हे वीतराग प्रभो ! आपकी पूजा करने पर आप प्रसन्न नहीं होते एवं आपकी निन्दा करने पर आप वैर धारण नहीं करते हैं । फिर भी संसारी प्राणी आपके निर्मल गुणों का स्मर्ण करके अपने मलिन चित्त को पवित्र कर लेते हैं ।।५७।।
‘‘ यद्यपि पूज्यों की अर्चना में कुछ आरम्भ (हिंसा) होता है और आरम्भ सावद्य यानि पाप है, किन्तु आपकी पूजा से असीम पुण्य राशि अर्जित होती है । इस अपेक्षा से यह सावद्यता अत्यन्त्य अल्प है ।’’ जैसे— समुद्र की अमृत समान जल राशि में यदि विष की एक बूँद गिर जाये तो समुद्र का पानी जहरीला नहीं हो जाता है । ठीक उसी प्रकार से आपकी पूजा आदि से प्राप्त विशाल पुण्य राशि के सामने पाप की एक छोटी—सी बूँद का क्या महत्व है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। पूजा—शील—दान—उपवास आदि बिना सावद्यता (आरंभी हिंसा) के नहीं हो सकते हैं ऐसा ‘जयधवला’ पु० प्रथम, पृष्ठ ९१ में लिखा है । आज वैज्ञानिक शोधों से सिद्ध हो चुका है कि मंदिरों में धार्मिक अनुष्ठानों से होने वाले अहिंसक यज्ञों में शुद्ध घी आदि की आहूति से पर्यावरण परिशुद्ध होता है । वैज्ञानिक कहते हैं कि गाय के घी से यज्ञ करने से वायुमंडल में एटमिक रेडिएशन का प्रभाव क्षीण होता है । एक तोला (दस ग्राम) ग्राम घी से यज्ञ करने से एक टन आक्सीजन बनता है । अत: मन्दिरों में घी के दीपक जलाये जाते हैं । लेकिन दीपक को काँच या लोहे की जाली से ढक कर रखें। जिससे त्रस जीवों की हिंसा भी नहीं हो इतना विवेक रखें। अत: आचार्यों के वाक्य प्रामाणिक मानकर दूसरों की कुछ मनमानी बातों को महत्व नहीं देना चाहिये ।
‘धवला’ पुस्तक में आचार्य श्री वीरसेन स्वामी से एक शिष्य ने बहुत ही सुन्दर प्रश्न किया है कि हे भगवन्! जब अरिहंत के चार घातिया कर्म नष्ट हो गये, उनमें जो अन्तराय कर्म नष्ट होने से, उनके अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग एवं अनन्त वीर्य प्रगट हुआ। अत: भगवान अनन्त दान के दाता हुए तो फिर वे हमें अनन्त दान क्यों नहीं देते हैं । यदि देते हैं तो हमें क्यों नहीं दिखता, मिलता है ? आचार्य वीरसेन स्वामी इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि हे भक्त! भगवान तो अनन्त दान निरन्तर देते ही रहते हैं । यदि वे अनन्त दान नहीं दें तो उनका महत्व ही घट जायेगा। लेकिन लेने वाले का लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं है तो उसे उस अनन्त दान का लाभ नहीं मिल सकता है ।
आप सबने अकृत पुण्य (धन्य कुमार) का चरित्र पढ़ा/सुना होगा। उसने पूर्व भव में मन्दिर के धन को खाया, फिर भी उसका जन्म एक नगर सेठ के यहाँ हुआ। किन्तु उसके गर्भ में आते ही सेठ का धन नष्ट हो गया एवं उसके पैदा होते ही वह सेठ मर गया। अत: उसका नाम अकृत पुण्य रखा गया। किसी तरह उसकी माँ ने मेहनत—मजदूरी करके उसे पाला—पोसा। जब वह चौदह—पन्द्रह वर्ष का हुआ तो एक दिन किसी सेठ के खेत में मजदूरों के साथ उसने भी मजदूरी की। शाम को मजदूरी बाँटते समय मजदूरों ने उस बालक को मजदूरी देने की अनुमोदना सेठ से की, तब उस बालक का परिचय सेठ ने पूछा। तब लोगों ने बतलाया कि यह हमारे पुराने नगर के सेठ के लडका है । उनकी मृत्यु के बाद इसकी माँ और यह मजदूरी आदि करके ही पेट पालते हैं ।
सेठ को उस बालक पर बड़ी दया आयी। सेठ ने सभी मजदूरों को तो निश्चित मजदूरी देकर विदा किया। लेकिन उस अकृत पुण्य को सेठ ली ने करुणा भाव से सोना—चाँदी आदि कीमती द्रव्य दिया। लेकिन जैसे ही अकृत पुण्य के हाथों में वह कीमती द्रव्य आया, वैसे ही अंगारों के समान गर्मी से उसके हाथ जलने लगे, जिससे अकृत पुण्य को बहुत वेदना हुई और उसने वह कीमती द्रव्य वहीं छोड़ दिया। पुन: सेठ जी ने विचार किया कि इसे कुछ अधिक चने देना चाहिये । सोना—चाँदी इसके भाग्य में नहीं है । अत: उसे एक बड़ी पोटली में चने बाँधकर दिये लेकिन पोटली में छिद्र होने से घर आते—आते थोड़े से ही चने उस पोटली में बचे।
अत: कहने का तात्पर्य यह है कि मन्दिर जी में जो भी धन—द्रव्य—सामग्री चढ़ाते हैं, वह हमारे लाभान्तराय कर्म के क्षय—क्षयोपशम में कारण अवश्य बनता है, जिससे हमें चाही—अनचाही अनुवूâल वस्तुओं की प्राप्ति अनायास ही होती है इसलिये ऐसा कभी मत सोचो कि मन्दिर जी में द्रव्य चढ़ाने से कुछ नहीं होता। जब मन्दिर जी का निर्माल्य द्रव्य खाने से दरिद्रता मिल सकती है, तब मन्दिर जी में द्रव्य चढ़ाने से धन—वैभव मिल जाये तो क्या आश्चर्य है ?
घर में स्नानादि के समय या जब से जिनेन्द्र देव के दर्शन की भावना प्रारम्भ होती है, तभी से उस देव दर्शन का फल एवं महत्त्व प्रारम्भ हो जाता है, ऐसा हमारे पूर्व आचार्य कहतें हैं कि —
जब चिन्तो तब सहस्र फल, लक्खा फल गमणेय। कोड़ा कोड़ी अनन्त फल जब जिनवर दिट्ठेय।।'
अर्थात् जब हमें भगवान के दर्शन करने का विचार — संकल्प मन में आता है कि अरे ! अभी हमें मन्दिर जी जाना है, भगवान के दर्शन करना है । ऐसा चिन्तन आते ही हजार गुणा फल प्रारम्भ हो जाता है । जब आप सामग्री आदि लेकर भक्ति—स्तुति आदि पढ़ते हुये मन्दिर की ओर ईर्यापथपूर्वक चल देते हैं, तब आपको लाख गुणा फल होता है । लेकिन जब आप मन्दिर जी में पहुँचकर साक्षात् जिनमूर्ति के दर्शन करते है, तब अवश्य ही अनन्त कोड़ा कोड़ी फल होता है । आपने पढ़ा होगा, सुना होगा कि श्री सम्मेद शिखर जी की प्रत्येक टोंक की वन्दना करने से इतने इतने करोड़ों उपवासों का फल मिलता है । इतना ही नहीं, तत्वार्थ सूत्र के रचयिता उमास्वामी आचार्य जी ने भी अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है कि —
दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्वार्थे पठते सति। फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनि पुंगवै: ।।'
अर्थात् तत्त्वार्थ सूत्र के दस अध्यायों का पाठ करने से एक उपवास का फल मिलता है, ऐसा मुनि श्रेष्ठों ने कहा है ।
आज के आधुनिक भौतिक युग में इस प्रकार के फल की चर्चा जब की जाती है, तो कुछ इसे प्रलोभन मानते हैं कि इस फल के लोभ से व्यक्ति मन्दिर आना, तीर्थयात्रा करना, सूत्रादि का पाठ करना आदि सीखें। परन्तु ऐसा है नहीं कि मात्र प्रलोभन हो, दिखावा हो और फल कुछ नहीं मिले।
हमारे पूर्वाचार्यों की दृष्टि बड़ी ही वैज्ञानिक — मनोवैज्ञानिक थी। उन्होंने एक विशुद्ध गणित निकाला। जैसे—पाँच किलो जल को एक किलो शक्कर से यथार्थ मीठा किया जा सकता है, तथा उतने ही जल को दो चम्मच सेकरीन डालकर मीठा किया जा सकता है । मिठास दोनों में बराबर है । लेकिन कहाँ एक किलो शक्कर और कहाँ दो चम्मच सेकरीन। ठीक उसी प्रकार से इतने करोड़ दिन के उपवास करके, व्यक्ति अपने जितने कर्मों की निर्जरा करके परिणामों की विशुद्धि प्राप्त करता है, उतने कर्मों की निर्जरा, परिणामों की विशुद्धि उसे एक दिन के मन्दिर जाने, शिखर जी की एक टोंक की वन्दना करने एवं एक दिन के तत्वार्थ सूत्र के पाठ करने से हो सकती है/होती है । यदि भावात्मक तरीके से इन सब कार्यों को किया जाये तो इसके फल के बारे में कभी हमें शंका नहीं होनी चाहिये ।
मंदिर जी आते समय रास्ते में कोई भी स्तुति, स्तोत्र , पाठ, प्रार्थना आदि पढ़ते आना चाहिए। जैसे— दर्शन स्तुति, भक्तामर स्तोत्र, विनय पाठ, मेरी भावना, आलोचना पाठ, महावीराष्टक, मंगलाष्टक, गोमटेश स्तुति आदि, चाहे हिन्दी—संस्कृत—प्राकृत किसी भी भाषा में हो, उन्हें वंâठस्थ करके ही पढ़ना चाहिये जिससे देव—दर्शन का माहात्म्य प्रगट होता है, उपयोग में स्थिरता आती है । इसी से परिणाम विशुद्ध होते हैं जो हमारे अशुभ कर्मों को नष्ट करने में समर्थ होते हैं यहाँ संस्कृत का सरल देव दर्शन स्तोत्र बताया जा रहा है । इसे अवश्य ही कण्ठस्थ याद कर लेना चाहिये ।
दर्शनं—देव—देवस्य, दर्शनं पाप नाशनम् । दर्शनं स्वर्ग सोपानं, दर्शनं मोक्ष साधनम् ।। दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधुनां वन्दनेन च । न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्र हस्ते यथोदकम् ।। वीतराग मुखं दृष्टवा, पद्मराग सम प्रभं। जन्म—जन्म कृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति। दर्शनं जिन सूर्यस्य, संसार ध्वान्त—नाशनम्।। बोधनं चित्त पद्मस्य,समस्तार्थ प्रकाशनम् । दर्शनं जिन चन्द्रस्य, सद्भर्मामृत—वर्षणं। जन्म—दाह— ाqवनाशाय, वद्र्धनं सुख—वारिधे। जीवादि तत्त्व प्रतिपादकाय, सम्यक्तव मुख्याष्ट गुणार्णवाय । प्रशान्त रूपाय दिगम्बराय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय।। चिदानन्दैक रूपाय, जिनाय परमात्मने । परमात्म—प्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नम:।। अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्य भावेन, रक्ष—रक्ष जिनेश्वर:।। न हि त्राता , न हि त्राता, न हि त्राता जगत्त्रये। वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति ।। जिने भक्ति—र्जिने भक्ति—र्जने भक्ति—र्दिने—दने। सदा मेऽस्तु, सदा मेऽस्तु, सदा मेऽस्तु भवे—भवे।। जिन धर्म विनिर्मुक्तो, मा भवेच्चक्रवत्र्यपि । स्याच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि, जिन धर्मानुवासित: ।। जन्म—जन्म कृतं पापं, जन्म कोटि समार्जितम् । जन्म—मृत्यु जरा रोगं, हन्यते जिन दर्शनात् ।। अद्या भवत्सफलता नयन द्वयस्य, देव त्वदीय चरणांबुज वीक्षणेन। अद्य त्रिलोक— ाqतलक प्रतिभासते मे, संसार वारिधि— रयं चुलुक प्रमाणम् ।।
प्रभो! पतित पावन मै अपावन, चरन आयो शरण जी । यों विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन—मरन जी ।। तुम ना पिछान्या आन मान्या, देव विविध प्रकार जी । या बुद्धि सेती निज न जाण्यो, भ्रम गिण्यो हितकार जी ।। भव विकट वन में करम वैरी, ज्ञान धन मेरो हर्यो । सब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ट गति धरतो फिर्यो।। धन घड़ी धन दिवस यों ही, धन जनम मेरो भयो। अब भाग्य मेरो उदय आयो, दरश प्रभो! को लख लयो।। छवि वीतरागी नगन मुद्रा, दृष्टि नासा पै धरैं । वसु प्रातिहार्य अनन्त गुणयुत, कोटि रवि छवि को हरैं ।। मिट गयो तिमिर मिथ्यात्व मेरो, उदय रवि आतम भयो। मो उर हरष ऐसो भयो, मनु रंक चिन्तामणि लयो।। मैं हाथि जोड़ नवाय मस्तक, वीनउँ तुव चरण जी । सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनहुँ तारण तरण जी ।। जाचूँ नहीं सुरवास पुनि नर—राज परिजन साथ जी । ‘बुध’ जाचहूँ तुव भक्ति भव—भव दीजिये शिवनाथ जी ।।
यह ‘प्रभो! पतित पावन’ हिन्दी की स्तुति है। इसे भी याद कर लेना और नयी—नयी विनती स्तुतियाँ भी याद करते रहना चाहिये। कम से कम सात दिन के लिये सात पाठ याद होनी चाहिये जिससे प्रतिदिन एक पाठ भक्ति—भााव पूर्वक अर्थ—बोध करते हुए पढ़ सको।