वैज्ञानिक अनुसंधानों से अब यह सिद्ध हो गया है कि शंख और घंटे की ध्वनि से रोग के कीटाणुओं का नाश होता है। प्रति सेकेण्ड २७ घनफुट शक्ति को जोर से बजाये गये शंख की ध्वनि २०० फुट की दूरी के वैक्टीरिया को नष्ट कर डालती है। शंख ध्वनि से हेजा, मलेरिया आदि रोगों के कीटाणु भी नष्ट होते हैं। मिरगी, मूच्र्छा, कंठ माला और कुष्ठ रोगियों के अंदर शंख ध्वनि से रोगानाशक रोगनाशक प्रतिक्रिया होती है। शिकागो के डॉ. वाईनेन का दावा है कि अब तक वे तेरह सौ बहरे रोगियों को शंख ध्वनि से ठीक कर चुके हैं। अप्रका में जहरीले सर्प के काटने पर घंटा बजाकर इलाज किया जाता है। मास्को की एक अदालत ने तीन वैज्ञानिकों को संमिति घंटा ध्वनि परीक्षण के लिये गठित की जिसने सात दिनों तक परीक्षण के बाद घोषित किया कि घंटा ध्वनि से तपेदिक रोग ठीक होता है। तपेदिक के अतिरिक्त इससे कई अन्य शारीरिक कष्ट भी दूर होते हैं तथा मानसिक उत्कर्ष भी होता है। मास्को के सेनिटोरियम में विगत कई वर्षों से तपेदिक के इलाज के लिये घंटा ध्वनि का प्रयोग किया जा रहा है। साभार प्रस्तुति दीक्षान्त ठाकुर, विश्वमित्र, कलकत्ता (१६.४.१९९७)
आज के वैज्ञानिक युग में तरह—तरह के ध्वनि प्रसारण यंत्रों के चलने से ध्वनि प्रदूषण भी होने लगा है जिससे इन धर्म यंत्रों की ध्वनियों का प्रभाव कम हो गया है। फिर भी यदि भक्ति भावनापूर्वक प्रयोग किया जाये तो सफलतायें आज भी मिलती है। मिल सकती है । कहीं—कहीं सुरक्षा की दृष्टि से घंटा मंदिर जी के भीतर लगा रहता है।
घंटा बजाने के बाद उँ जय—जय—जय! निस्सही, निस्सही, निस्सही! नमोऽस्तु—नमोऽस्तु— नमोऽस्तु मध्यम स्वर से (न अधिक जोर से, न अधिक धीरे से) बोलना चाहिये। मन्दिर जी में प्रवेश करते समय ‘‘निस्सही’’ क्यों बोला जाता है ? जिस प्रकार से मनुष्य अपने घर परिवार की टोलियाँ की टोलियां बनाकर तीर्थयात्राओं को जाते हैं, ठीक उसी प्रकार से देवगति के चतुर्निकाय के देवतागण भी अदृश्य होकर तीर्थयात्राओं को आते है, और जिन—मन्दिरों की भक्ति—पूजा आदि करके पुण्योपार्जन करते हैं एवं जो मूर्तियाँ उनके मन भा जाती हैं , जो स्थान उन्हें आकर्षित करते हैं, वहाँ पर वे देवतागण अतिशय भी दिखलाते हैं । अत: ‘निस्सही’ शब्द इसलिये बोला जाता है कि वहाँ पर पहले से आये, मौन भक्ति—पूजा में मग्न अदृश्य देवतागण यदि हों तो उनकी भक्ति पूजा में विघ्न न हो। वे देवतागण ‘निस्सही’ शब्द सुनकर व्यवस्थित हो जाते हैं एवं आपको भी दर्शन— पूजन — भक्ति के लिये बहुमान, स्थान देते है। इसी के साथ क्षेत्रीय देवतागण क्षेत्रपालादिक से मन्दिर जी में प्रवेश की अनुमतिसूचक यह शब्द उच्चारण किया जाता है।
कुछ लोग ‘निस्सही’ शब्द का अर्थ अशुभ रागादि विकल्पों को मंदिर जी के बाहर छोड़ना मानते हैं। परन्तु जब हम लोग घर से मन्दिर जी की ओर चलते हैं, तभी हमारे अशुभ रागादि विकल्प परिणाम छूट जाते हैं, छूट जाने चाहिये। तब फिर ‘निस्सही’ शब्द के अशुभ रागादि विकल्प छूटते है ऐसी युक्ति नहीं लगती है।
मूल बात, प्रामाणिक व्याख्या यह है कि हमारे चरणानुयोग—मूलाचार आदि ग्रन्थों में आचार्यों ने साधुओं एवं श्रावकों के लिये भी तेरह प्रकार की क्रियाएँ बतलाई है। पंचपरमेष्ठी को नमस्कार, छह आवश्यक, निस्सही एवं आस्सही इस प्रकार कुल तेरह क्रियाएँ लिखी हैं। इसमें निस्सही का प्रयोग तो मन्दिर जी में नगर, ग्राम, घर, श्मशान आदि में प्रवेश करने के पूर्व, किसी वृक्ष के नीचे बैठने, लघुशंका, दीर्घशंका करने से पूर्व प्रयोग किया जाता है एवं उस स्थान को छोड़ते हैं या बाहर निकलते हैं तब ‘आस्सही—आस्सही—आस्सही’ तीन बार बोला जाता है। अत: इससे सिद्ध है कि ‘निस्सही’ शब्द का प्रयोग मात्र अशुभ रागादि छोड़ने के लिये नहीं किया जाता, बल्कि क्षेत्रपालादि से क्षेत्र प्रवेश अनुमति के लिये ही किया जाता है। यदि हमने ‘निस्सही’ से अशुभ विकल्प छोड़े हैं तो ‘अस्सही’ से क्या हम अशुभ विकल्प ग्रहण करेंगे ?
‘निस्सही’ शब्द से ही हमारे साधर्मी बन्धु भी यदि दर्शन—पूजन—भक्ति करते हुए बीच में खड़े हों तो उन्हें भी संकेत मिल जाता है कि कोई दर्शनार्थी पीछे दर्शन करने आया है। वह भी आपको स्थान देगा/ देना चाहिये। इसी के साथ पहले से जो व्यक्ति दर्शन करने वाला है, वह भय आदि से बच जायेगा। क्योंकि मौन—पूर्वक पीछे से दर्शन करने से कभी—कभी आगे वाले पर उसकी परछाई पड़ने से वह भयभीत हो सकता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुये हमारे आचार्यों ने ‘निस्सही’ आदि शब्दों का विधान बनाया है। पुन: णमोकार मन्त्र, उसका माहात्म्य एवं चत्तारि दण्डक, इस प्रकार भक्ति—भावपूर्वक पढ़ना चाहिये। जैसे—
णमो अरिहंताणं— णमो सिद्धाणं— णमो आइरियाणं— णमो उवज्झायाणं— णमो लोए—सव्व—साहूणं— एसो पञ्च णमोकारो, सव्व पावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं।।
पुन:चत्तारिमंगल का पाठ पढ़े।
इस प्रकार हाथ जोड़कर बोलते हुए वेदी के सामने रखी हुई बेंच चौकी आदि जिस पर द्रव्य सामग्री चढ़ाते हैं, हाथ या डिब्बी में लाये हुए चावल आदि द्रव्य को निम्न श्लोक बोलते हुए मन्त्र को उच्चारण करते हुए चढ़ायें—
उदक चन्दन तन्दुल पुष्पवै:,चरु सुदीप सुधूप फलार्घवै:। धवल मंगल गान रवा कुले: जिन गृहे जिननाथ—महं—यजे।।
पाँच पुंज (ढेरी) में ‘‘ऊँ ह्रीं श्री गर्भ—जन्म—तप—ज्ञान— नर्वाण कल्याणक प्राप्तये जलादि अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा’’अथवा ‘‘ऊँ ह्रीं श्री अरिहंत—सद्ध आचार्य—उपाध्याय—सर्वसाधुभ्यो जलादि अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।’’ इस प्रकार मंत्र बोलते हुए चढ़ाना चाहिये। अब प्रश्न यह उठता है कि मन्दिर जी की प्रतिमा अरिहंतों या सिद्धों की है फिर मंत्र में आचार्य — उपाध्याय— सर्वसाधु को सम्मिलित क्यों किया गया ? इसका उत्तर यह है कि जब इन प्रतिमाओं के पंचकल्याणक होते हैं। तब दीक्षा (तप) कल्याणक में, इनमें साधु—उपाध्याय एवं आचार्य परमेष्ठी की दीक्षा के मंत्रो के संस्कार किये जाते हैं। पुन: केवल ज्ञान कल्याणक में अरिहंतों के गुण एवं मोक्षकल्याणक में सिद्धों के गुण रूप मंत्रों के संस्कार किये जाते हैं। अत: पंचपरमेष्ठी की प्रतीक रूप प्रतिमा को इस तरह अघ्र्य चढ़ाने में कोई दोष नहीं है। अर्घ कहते हैं मूल्य को एवं अघ्र्य का अर्थ है मूल्यवान या बहुत कीमती होता है। परन्तु पूजा मंत्रो में अध्र्य का मतलब जल फलादि आठों द्रव्यों का मिश्रण है। यथार्थ में जिन जल फलादि को हमने परिश्रम या धन आदि खर्च करके अपने स्वामित्व भाव से जोड़ा है। उस सामग्री को मूल्यवान मानते हुए अपने पूज्यों को समर्पण करते हुए उसके अधिकार — ममत्व— अपनत्व भाव का त्याग करना ही अघ्र्य है।
कोई—कोई चावल का उँकार, स्वास्तिक, ह्रीं श्री या चन्द्राकार सिद्ध शिला भी बनाते हैं। इसमें भी कोई दोष नहीं है। सामग्री को विनय से बढ़ाना चाहिये—फैकना या फैलाकर नही चढ़ाना चाहिये। वेदी के सामने रुपये पैसे नहीं चढ़ाना चाहिये यदि रुपये पैसे चढ़ाना ही है तो मन्दिर जी रखी गोलक में चढ़ाना चाहिये। क्योंकि, गोलक के पैसों से मंदिर जी की सुरक्षा, उपकरण आदि की व्यवस्था होती है।
चावल आदि चढ़ाने के बाद नमस्कार करना चाहिये। पुरुषों यानि मनुष्यों को शास्त्रोक्त विधि से पंचाग यानि दोनों पैरों के घुटने, दोनों हाथों की कुहनियाँ सहित दोनों हाथों को नारियल के समान जोड़कर धरती पर रखकर उस नारियल के समान बद्ध हाथों पर अपना सिर रखना एवं अष्टांग यानि सर्वांग से जमीन पर पट्ट लेटकर नमस्कार करना चाहिये। साधु, आर्यिका, महिलायें, बच्चियों को गवासन यानि नीचे जमीन पर घुटने टेकते ही घुटनों को बायें हाथ की तरफ तथा पैरों के पंजों को दायें हाथ की तरफ ले जायें, जिस तरह गाय तिरछा बैठती है। पुन: दोनों हाथों की कुहनियाँ जमीन से स्पर्श करती हो तथा दोनों हथेलियाँ नारियल के समान आकृति में होकर जमीन छू रही हो ओर उसी पर अपना सिर रखकर नमस्कार करना चाहिये। नमस्कारात्मक मुद्राओं का प्रभाव भी हमारे मन—मस्तिष्क एवं शरीर पर पड़ता है। शरीर की बनावट एवं वस्त्रों के पहनाव आदि से स्त्रियों एवं पुरुषोें की नमस्कार मुद्राओं में अन्तर आ जाता है। सही तरीके से नमस्कार मुद्रा से प्रतिदिन दर्शन करने पर परिणामों की विशुद्धि में अवश्य ही प्रभाव पड़ता है।
नमस्कार करते समय भी स्तुति आदि बोलते रहना चाहिये एवं जिनेन्द्र देव के विभिन्न विशेषणों को उच्चारण करते हुए। जैसे— ‘हे सर्वज्ञ! वीतराग!! हितोपदेशी!!! जन्म जरा—मरण आदि अठारह दोषों से रहित । अतिशय आदि छियालीस गुणों से सहित, अरिहंत परमेष्ठी आपको हमारा अनन्तों — अनन्तों बार नमस्कार हो।’ ऐसा बोलते हुए कम से कम तीन बार नमस्कार मुद्रा में नमस्कार करना चाहिये। बैठकर यथायोग्य नमस्कार करने से मानसिक तनाव दूर होता है, विनय गुण प्रगट होता है, पूज्यों के प्रति आदर, बहुमान एवं समर्पण भाव झलकता है तथा ‘वन्दे तद्गुण लब्धये’ नमस्कार करने से भगवान जैसे ही वीतरागता आदि गुणों की प्राप्ति हो, ऐसी भावना करते हुए नमस्कार करना चाहिये। छोटे बच्चों को नमस्कार कराते समय श्रद्धा हो, बुद्धि हो, विवेक हो, सदाचार हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, आदि बोलना सिखा देना चाहिये।