।। परिक्रमा क्यों ? ।।

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गन्धोदक —तिलक लगाने के बाद वेदी की तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) लगानी चाहिए। जहाँ परिक्रमा नहीं हो वहाँ विकल्प नहीं करना चाहिए। ये तीन प्रदक्षिणा जन्म — जरा— मृत्यु के विनाश हेतु तथा मन—वचन—काय से भक्ति की प्रतीक रूप, बायें हाथ से दाएं हाथ की तरफ लगायी जाती है क्योंकि ‘‘आत्मन: प्रकृष्टं दक्षिणीकृत्य अयनं— गमनमिति प्रदक्षिणा’’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो गुणों में श्रेष्ठ हो, उन्हें अपने दक्षिण—पाश्र्व (दाहिने हाथ की ओर) रखते हुए जो गमन किया जाये, वही ‘ प्रदक्षिणा’ कहलाती है। यह एक व्यवहारिक नियम है कि प्रकृति के कृत्रिम—अकृत्रिम यंत्र जैसे घड़ी, पंखा, नक्षत्रों का गमन आदि दाहिनी ओर से ही होता है। इनका बायीं ओर चलना अशुभ है। शादी की भँवरें भी मंगलता का सूचक है, दांयी ओर से ही लगायी जाती है। लोक व्यवहार में पुरुष को उत्तम मानने के कारण से किसी भी विशेष कार्य में स्त्री को बायीं ओर रखते हैं और पुरुष को स्त्रियों के दाहिनी ओर खड़ा करते हैं। इसलिए ही सम्भवत: लोक व्यवहार में नारी को ‘वामांगी’ कहा गया है। मंदिर जी भी समवशरण का प्रतीक माना है। अत: चारों दिशाओं में विद्यमान भगवान की छवि अवलोकन करने की भावना परिक्रमा करते समय होनी चाहिए। इस प्रकार परिक्रमा करते समय भी कोई स्तुति, स्तोत्र, पाठ आदि बोलते रहना चाहिए।

तीन प्रदक्षिणा देने के बाद पुन: वेदी के एक ओर खड़े होकर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिए। बहुत से व्यक्ति बहुत जल्दी णमोकार मंत्र पढ़कर ढोक लगाकर घर चले जाते है और इतने में ही देव—दर्शन की विधि को पूरा समझ लेते है। क्या आपको मालूम है कि नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ने में २७ श्वांसोच्छवास का समय लगता है ? इतने समय में ही नौ बार णमोकार पढ़ना चाहिये, तभी उस मंत्र पढ़ने का फल मिल सकता है।

‘‘निरखो अंग—अंग जिनवर के।’’
यदीया वाग्गंगा विविध—नय—कल्लोल—वमला।
वृहज्ज्ञानांभोभि—र्जगति जनतां या स्नपयति।।
इदानी—मप्येषा बुधजन—मरालै: परिचिता।
महावीर स्वामी नयन—पथगामी भवतु मे।।

अंग—अंग निरखो, नीचे से ऊपर तक, ऊपर से नीचे तक बार—बार देखो, उनकी सम्पूर्णता को अपनी हृदय भूमिका में अवतरित करने का प्रयास करो। जब आपकी अपनी आँखों में जिनेन्द्र भगवान का जिनबिम्ब सम्पूर्ण रूप से समा जायेगा, व्यवस्थित हो जायेगा, आपके मन को छू जायेगा तो प्रकाश ही प्रकाश हो जायेगा । हमारे अन्तरंग का प्रकाश जाग्रत हो जायेगा।

आप भगवान के नखों को देखिये। उन नखों से कान्ति निकल रही है। ऐसी अपनी कल्पना कीजिए और वह कान्ति हमारे अन्त: स्थल में जा रही है। आँखों के माध्यम से परावर्तित हो रही है क्योंकि भगवान के नखों में कान्ति है। जिनके जीवन में कान्ति है उनके जीवन में शान्ति है। आपके जीवन में कोई कान्ति नहीं है। इसलिये आपके जीवन में शान्ति नहीं है। भक्तामर काव्य के प्रथम स्तोत्र में मानतुंग आचार्य देव यही बात कहते हैं कि भक्त देवों के झुके हुए मुकुटों की मणियों की कान्ति को उद्योदित , प्रकाशित आपके चरण कमल कर रहे हैं। आपके चरणों में इतनी कान्ति है कि मुकुटों की मणियाँ अपने आप झिलमिल—झिलमिल होने लगती है। वैसे ही हमारे अन्त:स्थल में प्रभु के पादाम्बुजों की प्रभा आविर्भूत हो जाए तो आलौकिक आनन्द उद्भूत हो जायेंगे।

जैसे कभी अचानक अन्धेरा हो जाता है और अन्धेरा होने के बाद अचानक उजाला होता है तो सभी के मुँह से एक कौतूहल निकलता है, आवाज होना शुरु हो जाती है। वैसे ही हमारे जीवन में जब आन्तरिक उजाला हो जायेगा, अपने आप ध्वनियाँ मुखरित होनी शुरु हो जायेगी। अभी तक आप जिनेन्द्र भगवान के साक्षी में खड़े थे। जिनेन्द्र भगवान के प्रतिबिम्ब को आपने निहारा और जिनेन्द्र भगवान का उपदेश प्राप्त किया।