इस प्रकार शुभ संकल्प करके दैनिक शौचादिक क्रियाओं से निपटकर, छने हुये जल से स्नान करना। नहाते समय शैम्पू या चर्बीयुक्त साबून प्रयोग नहीं करना चाहिये । पुन: धुले हुए साधारण वस्त्र पहनकर मन्दिर जी आना चाहिये । क्योंकि यदि हम चमकीले—भड़कीले वस्त्र पहनकर मन्दिर जी आते हैं तो अन्य लोगों का मन, भगवान के दर्शन—पूजन—स्वाध्याय से हट जायेगा, जिससे हमे पापबन्ध होगा । वैसे प्राचीन समय की मन्दिर आदि आने की वेषभूषा, स्त्री पुरुषों के लिये पीले या लिये पीले या सपेद रंग की साड़ी—धोती — दुपट्टा था, जिससे व्यक्ति अपने आप में संयमित रहता था और धर्म—ध्यान में खूब मन लगता था। याद रहे कि हमें चमड़े के बने बेल्ट , जूते चप्पल , पर्स आदि का प्रयोग में नहीं लेनी चाहिये । क्योंकि जिस जानवर का चमड़ा होगा , उसी जाति के समूर्च्छन जीव (वैक्टीरिया) हमारे शरीर के स्पर्श से उत्पन्न होकर मरते रहते हैं । माता बहिनों को अपने ओठों में लिपिस्टिक या नाखूनों में नेलपालिस नहीं लगाना चाहिये । क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ जीवों के खून से निर्मित होती हैं सेन्ट आदि भी हिंसक तरीके से निर्मित होते है । अत: मन्दिर जी आते समय इनका भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। ध्यान रहे कि हमारा मुख भी जूठा नहीं होना चाहिये, अर्थात् मुख में लौंग, इलायची, सौफ, सुपारी, तम्बाकू , गुटका, पान मसाला आदि नहीं होना चाहिये । मुख शुद्धि से हमारे पाठ या मन्त्रोच्चारण एवं शरीर की शुद्धि बनी रहती है एवं हमारे अन्दर पूज्यों का बहुमान एवं विनम्र गुण प्रगट होता है ।
हमें अपने घर से ही शक्तयानुसार शुद्ध मर्यादित जल—चन्दन, अक्षत—पुष्प—नैवेद्य—दीप—धूप और फलादि यथायोग्य अष्टद्रव्य थाली या डिबिया आदि में रखकर , ईर्यापथ यानि नीचे चार हाथ जमीन देखकर चलना चाहिये ।
मन्दिर जी में भगवान को निश्चित यही द्रव्य चढ़ाना चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं है । यह तो श्रद्धा—भक्ति—शक्ति के अनुसार ही द्रव्य चढ़ाया जा सकता है । इस विषय में पण्डित श्री सुदासुखदास जी ने ‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ ग्रन्थ की टीका में निम्न रूप में लिखा है —
समस्त ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य, शूद्र अपना—अपना सामर्थ्य, देशकाल के योग्य अनेक स्त्री, पुरुष, नपुंसक, धनाढ्य—नर्धन, सरोग—नरोग जिनेन्द्र की आराधना करैं हैं । कोई ग्राम निवासी हैं, कोई नगर निवासी हैं, कोई वन निवासी हैं, कोई अति छोटे ग्राम में बसने वाले हैं । जिनमें कोई तो अति उज्जवल अष्ट प्रकार की सामग्री बनाय पूजन के पाठ पढ़िकरि पूजन करैं हैं । कोई कोरा सूखा जव, गैहूँ, चना, मक्का, बाजरा, उड़द, मूंग, मोठ इत्यादि धान्य की मूठी ल्याय चढ़ावैं हैं । कोई रोटी चढ़ावैं हैं, कोई राबड़ी चढ़ावैं हैं, कोई अपनी बाड़ी तैं पुण्य ल्याय चढ़ावैं हैं, कोई दाल, भात अनेक व्यंञ्जन चढ़ावैं हैं, कोई दाल, भात अनेक व्यंञ्जन चढ़ावैं हैं, कोई नाना प्रकार के घेवर, लड्डू, पेड़ा बरफी, पूड़ी, पूवा इत्यादि चढ़ावैं हैं । कोई वन्दना मात्र की करैं हैं, कोई स्तवन, कोई गीत—नृत्य वादित्र ही करैं हैं । ऐसे जैसा ज्ञान, जैसी संगति, जैसी सामर्थ्य, जैसी धन—सम्पदा, जैसी शक्ति, तिस प्रमाण देशकाल के योग्य जिनेन्द्र का आराधक मनुष्य है । तैं वीतराग का दर्शन, स्तवन, पूजन, वन्दना करि भावना के अनुकूल उत्तम,मध्यम, जघन्य पुण्य का उपार्जन करैं हैं ।१
वैवली वैं वा प्रतिमा के आगै अनुराग करि उत्तम वस्तु धरने का दोष नाहिं । उनके विक्षिप्तता होती नाहिं । धर्मानुराग तैं जीव का भला होय हैं ।२
अत: हमें इस विषय में किसी से विवाद नहीं करना चाहिये कि मन्दिर जी में हम क्या चढ़ायें, क्या नहीं ? बल्कि विवाद की जगह विवेक से काम लेना चाहिये । तभी हमें इस क्रिया का सही फल प्राप्त होगा। हमारी मुनि दीक्षा अजमेर (राज०) में हुई। वहाँ पर लगातार पाँच नसियाँ बनी हैं । पहली नसिया, जो सोनी जी की नसिया के नाम से प्रसिद्ध है । क्योंकि इसमें सोने (स्वर्ण) की सुन्दर—सुन्दर रचनायें हैं । उन्हें देखने के लिये देशी—वदेशी, जैनी—अजैनी सभी लोग आते हैं । इसी नसिया जी में अनन्त चतुर्दशी एवं निर्वाण लाडू के दिन सोनी जी के परिवार से शुद्ध घर का बना नैवेद्य (व्यञ्जन—फकवान) आज भी चढ़ाया जाता है । बुलन्देलखण्ड (म.प्र.) में कई स्थानों पर हमने विहार किया । महावीर जयन्ती पर अनन्त चतुर्दशी, निर्वाण लाडू पर पंचामृत अभिषेक एवं शुद्ध घर का या मन्दिर में ही बना नैवेद्य (व्यञ्जन—फकवान) आज भी जैन मन्दिरों में चढ़ाया जाता है । इटावा (उ.प्र.) में चातुर्मास हुआ, वहाँ भी श्रावकों ने पंचामृत की धारा एवं कई प्रकार की शुद्ध मिठाईयाँ बनाकर अनन्त चतुर्दशी को चढ़ायीं। और इस विषय में हम विशेष अधिक क्या कहें ? बारह वर्षों में होने वाले जैन कुम्भ मेला, विश्व के नवमें आश्चर्य गोमटेश्वर बाहुबली का पंचामृत अभिषेक हम सबकी श्रद्धा का केन्द्र होता है जहाँ उत्तर—दक्षिण का भेद मिट जाता है । इससे अधिक सजीव—सटीक प्रमाण और क्या हो सकता है हम सबके लिये। अत: इससे सिद्ध होता है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा मन्दिर जी में चढ़ाने वाली सामग्री में भेद हो सकते हैं । इस प्रकार भगवान के दर्शन के लिये जाते समय कुछ न कुछ अपने साथ सामग्री ले जाते हैं । परन्तु एक प्रश्न उठता है कि भगवान तो वीतरागी हैं, उन्हें इस सामग्री को चढ़ाने से क्या प्रयोजन ? सुनो नीतिकारों ने कहा है कि—
रिक्त पाणिनैव पश्येत् राजानां देवतां गुरुं। नैमित्तिक विशेषेण फलेन फलमादिशेत् ।।'
अर्थात् राजा, देवता, गुरु, नैमित्तिक यानि वैद्य, ज्योतिषी के पास कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिये, अर्थात् कुछ न कुछ भेंट लेकर ही जाना चाहिये । क्योंकि फल की प्राप्ति फल से ही होती है । जिस भावना के साथ हम मन्दिर जी जा रहे हैं , उस भावना की सफलता हमारे द्रव्य के साथ निहित है, तभी तो कहा है कि —
१. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पृष्ठ २०९—२१० पं० सदासुखदास जी टीका—प्रकाशक श्री मध्य क्षेत्रीय मुमुक्षु मंडल संघ, सागर (मध्यप्रदेश) से उद्धृत । २. पं० टोडरमल जी, मोक्षमार्ग प्रकाशक , अध्याय ५, पृ. २४१।
द्रव्यस्य शुद्धि—मधिगम्य यथानुरूपं, भावस्य शुद्धि—मधिका—मधिगन्तु काम:। आलंबनानि विविधान्य—वलम्ब्य बल्गन्, भूतार्थ यज्ञ पुरुषस्य करोमि यज्ञं।।'
शास्त्रों में पढ़ा होगा, सुना होगा कि प्राचीन समय में लोग जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करते समय हीरा, मोती, पन्ना—माणिक आदि बहुमूल्य जवाहरात चढ़ाया करते थे। दर्शन कथा में मनोरमा ने गजमुक्ता प्रतिदिन चढ़ाकर भगवान के दर्शन करूँगी, तब भोजन करूँगी, ऐसा नियम लिया था और उसका पालन भी परीक्षा देकर किया । धन्य है ऐसी भवयात्मा को। अत: भगवान के मन्दिर में सोना—चाँदी आदि द्रव्य चढ़ाना भी हमारी श्रद्धा—भक्ति का द्योतक है । द्रव्य चढ़ाना हमारे परिणामों को विशुद्ध बनाने में निमित्त है तथा जितने द्रव्य को हम प्रभो चरणों में अर्पण करते हैं, उतना हमारा ‘लोभ्र’ का त्याग होता है । द्रव्य, सामग्री हाथ में होने से हमें रास्ते में भी मन्दिर जी जाने का, देव दर्शन करने का संकल्प बना रहता है ।
अहो! देखो!! राजगृही में भगवान महावीर स्वामी के समवशरण की ओर तिर्यञ्च गति का जीव ‘‘मेंढक’’ अपने मुख में कमल पुष्प की पांखुड़ी लेकर जा रहा था, किन्तु अकस्मात् राजा श्रेणिक के हाथी के पैरों के नीचे दबकर मरा, सो समवशरण के दर्शन के शुभ संकल्प से देव पदवी को प्राप्त हुआ। सुना है, गरीब सुदामा जब नारायण श्री कृष्ण से मिलने द्वारिका गये थे, तब वे भी अपने घर से एक पोटली में चावल भेंट देने हेतु साथ ले गये थे। जब तिर्यञ्च जैसे साधनहीन प्राणी एवं गरीब सामान्य मनुष्य भी लोक व्यवहार में अपने पूज्यों के पास खाली हाथ नहीं जाते हैं । तब हम लोग साधन—समपन्न होते हुए भी तीन लोक के स्वामी के दर्शन करने खाली हाथ आते हैं । तो उस दर्शन का कोई फल हमें मिलने वाला नहीं है ।
‘‘प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम अच्छी किस्म के १०० ग्राम चावल, दो—चार बादाम, सुपारी, लौंग, इलाइची, छुहारे, चिटवें आदि मिलाकर प्रतिदिन चढ़ाना चाहिये । जब आप लोग प्रतिदिन व्यसनों—चाय, पान, जर्दा, सिगरेट आदि में पचासों रुपया खर्च कर देते हो, तब क्या श्री जिनेन्द्र देव को पाँच रुपये की सामग्री भी श्रद्धा भाव से नहीं चढ़ा सकते हैं ? माता—बहिनें भी व्यर्थ के फैशन में प्रतिदिन पचासों रुपये खर्च कर देती हैं, लेकिन भगवान को सामग्री चढ़ाने में कंजूसी करती हैं । घर से पूरी डिब्बी भरकर मन्दिर जी आती है, लेकिन थोड़ी—थोड़ी सामग्री चढ़ाकर बची हुई घर वापस ले जाती हैं इस तरह एक दिन की भरी हुई डिब्बी चार—छह दिन तक चल जाती है ।
हम आपसे पूछना चाहते हैं कि यदि आपके घर कोई मेहमान मिठाई का भरा डिब्बा लाये और आपके सामने ही डिब्बे को खोलकर मिठाई को चार टुकड़े आपके बर्तन में रख दे और बाकी अपने साथ ही वापस घर ले जाये तो आपको कैसा लगेगा ? या आप किसी के घर मेहमान बनकर जाये और इस प्रकार करें तो दूसरों को कैसा लगेगा ? थोड़ी सोचने—विचारने की बात है कि आप लोग तीन लोक के स्वामी के सामने क्या करते हैं, ऐसा करने से हमें क्या फल मिलेगा ?
अत: हम अपने घर से सामग्री उतनी ही ले जायें जितनी हमें उस दिन मन्दिर जी में चढ़ानी है ।
बहुधा लोग एक प्रश्न यह भी करते हैं कि मन्दिर जी में अधिकांशत: चावल ही क्यों चढ़ाये जाते हैं ? सुनों ! चावल व्यक्ति के जीवन की खाद्य सामग्री का प्रमुख भोजन है । हर प्रान्त के गरीब—अमीर लोग इसका उपयोग खाने में करते हैं हमारे तीर्थंकरों के दीक्षा के उपरान्त अधिकांशत: क्षीरान्न (चावल की खीर) से ही पारणा हुए। हमारे भोजन के एक ग्रास का प्रमाण भी एक हजार चावलों से माना जाता है ।’’
चावल से छिलका अलग होने पर उसमें पुन: अंकुरित होने की शक्ति नष्ट हो जाती है यानि जमीन में बोने से चावल उगता नहीं है । चावल सद होने से शुक्ल लेश्या का प्रतीक है । चावल के दाने में कोई जीव—जन्तु अपना घर नहीं बना सकता। अखण्ड (जो टूटे न हों) चावलों को अक्षत भी कहते हैं । उन्हें चढ़ाकर अक्षय पद की कामना करते हैं इत्यादि, कई कारणों से मन्दिर जी में चावल चढ़ाने का अधिक महत्तव है ।
पुन: एक प्रश्न यह भी उठता है कि जब हमारे प्रभो! वीतरागी हैं , ना तो वे हमें कुछ देतें हैं और न हमसे कुछ माँगते हैं, तब हम उनके लिये इतनी बहुमूल्य सामग्री क्यों चढ़ाते हैं ? कुछ सामग्री जैसे फूल—दीप—धूप—फल चढ़ाने में तो कुछ हिंसा या सावद्यता भी होती है, फिर हम उन्हें क्यों चढ़ाते हैं? इन सभी प्रश्नों का उत्तर स्वामी समन्तभद्राचार्य जी ने स्वयंभू स्तोत्र में तीर्थंकर वासुपूज्य जी की स्तुति करते हुए दिया है —
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ! विवान्त वैरे । तथापि ते पुण्य—गुण स्मृतिर्न: पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्य: ।।५७।। पूज्यं जिनं त्वा—चर्यतो जनस्य, सावद्य लेशो बहुपुण्य राशौ । दोषाय नालं कणिका विषस्य, न दूषिका शीत शिवाम्बु राशौ।।५८।।'