श्रीमत् — पवित्र— मकलंक— मनन्त—कल्पम् , स्वायं भुवं सकल मंगल—मादि तीर्थम् । नित्योत्सवं मणिमयं निलयं जिनानाम् , त्रैलोक्य — भूषण— महं शरणं प्रपद्ये।।
क्या आपको मालूम है कि गंधोदक कहाँ , कैसे और क्यों लगाते हैं ? प्राय: प्रतिदिन की भाँति आँखों , मस्तक, गला, आदि पर गंधोदक लगाते हैं। लेकिन गंधोदक लगाते समय निम्न श्लोक में से कोई एक या तीनों अवश्य बोलना चाहिए ।
निर्मलं निर्मली करणं , पवित्रं पाप नाशनं । जिन गन्धोदकं वन्दे, अष्टकर्म विनाशनं ।। अथवा निर्मल से निर्मल अति, श्री जिन का अभिषेक । रोग हरे सब सुख करे , काटे कर्म अशेष । अथवा मुक्ति श्री वनिता करोदक— मिदं पुण्यां— करोत्पादकम् । नागेन्द्र त्रिदशेन्द्र चक्र पदवी, राजाभिषेकोदकम् ।। सम्यग्ज्ञान चरित्र दर्शनलता, संवृद्धि सम्पादकम् । कीर्ति श्री जय साधकं तब जिन! स्नानस्य—गन्धोदकम् ।।
जिनाभिषेक का महत्त्व जिनसेनाचार्य देव ने आदि पुराण ग्रन्थ में निम्न प्रकार से लिखा है—
माननीय मुनीन्द्राणां जगतामेक पावनी । साव्याद् — गन्धाम्बु— धारास्मान् या स्म व्योमाप—गायते ।।(१३/१९५)
जो मुनीन्द्रों के द्वारा भी सम्माननीय है तथा संसार को पवित्रता प्रदान करने में अनुपम—अद्वितीय है, वह आकाश गंगा के समान प्रतीत होने वाली गन्धाम्बुधारा (अभिषेक) हम सबका कल्याण करें।
जरा सोचने और समझने की बात है कि हमारे व्यवहारिक जीवन के उपयोग में आने वाला साधारण जल भी हमारे द्वारा उच्चारित किये गये शांति मंत्रो से तथा जिन प्रतिमा को पंचकलयाण के समय अंकन्यास विधि से एवं ‘सूर्यमंत्र’ से प्राण प्रतिष्ठित की गई थी, उनसे मन्त्रित हो जाता है । क्योंकि पाषाण प्रतिमाओं में भी धातुओं के अंश अवश्य ही होेते हैं और धातुएँ विद्युत की सुचालक होती है । मारबल के पाषाण में दूध से दही जमाने (बनाने) की शक्ति है । दक्षिण भारत में आज भी कई मूर्तियाँ ऐसी हैं, जिनके अभिषेक जल के प्रयोग से सर्प विष भी उतर जाता है ।
प्रतिमाओं में ‘‘सूर्यमंत्र’’ देने का अधिकार दिगम्बर साधु को ही है । जिस प्रकार अखिल विश्व को प्रकाश देने वाला सूर्य अखण्ड शक्ति का स्रोत है । आज का आधुनिक विज्ञान सूर्य ऊर्जा से कई यंत्रो को संचालित कर रहा है । अत: ‘सूर्यमंत्र’ को साधन रूप सिद्धि प्राप्त करने वाले कुशल वैज्ञानिक हमारे दिगम्बर साधु ही होते हैं। जिस मूर्ति का ‘सूर्यमंत्र’ संयमशील, दृढ़ चरित्र साधु द्वारा दिया गया होगा, वह मूर्ति उतनी ही आकर्षक, चमत्कारी एवं प्रभावकारी होती है ।
जल विद्युत का सुचालक है, सार्वभौमिक द्रव्य है, हर जगह आसानी से उपलब्ध हो जाता है । अत: जब यह जल जिन प्रतिमा पर अभिषिक्त होता है, तब मूर्ति के चारों ओर प्रवाहित होने वाला ‘सूर्यमंत्र’ का तेज—ऊर्जा उससे यह जल भी संस्कारित (चार्ज) होकर असाध्य रोगों को दूर करने में समर्थ हो जाता है । मैनासुन्दरी ने इसी गन्धोदक के माध्यम से अपने पति श्रीपाल सहित सात सौ कुष्टियों का कुष्ट रोग दूर कर दिया था।
लेकिन पुन: एक प्रश्न उठता है कि जब यह गन्धोदक असाध्य रोगादि को दूर करने में समर्थ है, इससे हमारे जीवन में होने वाली मानसिक—दैहिक—दैविक व्याधियाँ दूर क्यों नहीं होती हैं ? आपका प्रश्न बहुत ही उत्तम है । आपने सुना होगा कि पारसमणि यदि लोहे से छू जाए तो लोहा, सोना बन जाता है, परन्तु सोना बनने वाले लोहे के साथ एक शर्त यह भी है कि लोहा जंग लगा हुआ नहीं होना चाहिए । क्योंकि जंग लगे लोहे को पारसमणि से कितना ही छुआओ, वह लोहा सोना नहीं बन सकता है । ठीक उसी प्रकार से जिन तन—मन में संसार कि विषय—कषाय रूपी जंग लगी हो, उस शरीर को कितना ही गन्धोदक में स्नान कराओ, वह निरोग नहीं हो सकता है । अत: गन्धोदक के प्रभाव को देखने के लिए पहले उसकी आस्था होना तो जरूरी है, किन्तु विषय— कषायों से उदासीनता संयम— त्याग भी जरूरी है ।
कुछ लोग विवाद या प्रश्न करते हैं कि गन्धोदक को उत्तमांग (मस्तक—गला तथा नाभि से ऊपर) ही लगाना चाहिए । जिस प्रकार औषधि, खाने की खाई जाती है लगाने की लगाई जाती है । ठीक उसी प्रकार से रोगग्रस्त अवस्था में गन्धोदक को सर्वांग में लगाने से कोई विरोध नहीं आता है क्योंकि मैनासुन्दरी ने पति सहित सात सौ कुष्टियों पर गन्धोदक छिटका था । तब क्या गन्धोदक गलित कुष्टों के घावों पर नहीं लगा ? कहा भी है—
‘‘जिण चरण—कमल—गंधोदएण तणु सिंचवि कलिमलु हणि उजेण। संसार महावय णासठाइं पवि हियहं जेण सुह—भावणाई।।’’
अर्थात्— श्री जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों का गन्धोदक लेकर जिसने अपने शरीर को सिंचित किया, उसने कलि—पाप मल का नाश करके, पवित्र हृदय में सुख की भावना को प्राप्त कर लिया । अत: इस विषय में भी हमें विवाद नहीं करना चाहिए ।