जय जिनेंद्र देव की! पंचपरमेष्ठी भगवान् की जय !
मंदिरजी में देवदर्शन का महत्व -
अरिहंत भगवन के बिम्ब (प्रतिमा) के मंदिर जी में नित्य दर्शन करने से हमे उन जैसे बनने की प्रेरणा मिलती है, जो कि जीवन का हमारा मुख्य लक्ष्य है! जिनबिम्ब की छाप हमारे हृदय पर अंकित होती है! देवदर्शन के लिए मंदिर जाना उसी प्रकार आवश्यक है, जैसे किसी विद्यार्थी को शिक्षा ग्रहण करने के लिए विद्यालय जाना आवश्यक है! घर में पूजा करने पर हमें इस प्रकार का यथायोग्य वातावरण उपलब्ध नहीं होता ! आत्मा से बंधे निधति और निकाचित कर्मों (अधिकतम कड़े कर्म, जिन की निर्जरा सरलता से नहीं होती) की निर्जरा भी मात्र देवदर्शन से हो जाती है!
दर्शनं देवदेवस्य,दर्शनं पाप नाशनम! दर्शनं स्वर्गसोपानं,दर्शनं मोक्षसाधनम!!
अर्थात देव और देवादि का दर्शन; पापों को नष्ट करने वाला है और मोक्ष का साधन है! जिन्होंने विधि पूर्वक मन लगाकर दर्शन किये, उनके लिए यह मोक्ष प्राप्ति का साधन है!
1- सबसे पहिले मंदिर जी के परिसर में पहुँच कर पैर धोये, मुख की शुद्धि ठन्डे जल से करे! मंदिर जी में प्रवेश कर मुख्य द्वार के दरवाजे/दहलीज को हाथ से स्पर्श कर, हाथ से अपने मस्तक को स्पर्श करे क्योकि मंदिर जी भी पूजनीय नवदेवताओं में एक देवता (जिन चैत्यालय) है!
फिर तीन बार निसहि: का उच्चारण करे -
ॐ जय! जय! जय! निसहिः, निसहिः, निसहि:
निसहि: से तात्पर्य है -
2- मंदिर जी में प्रवेश कर 3 बार घंटा बजाकर मन को एकाग्रचित करे! मंदिर जी का घंटा हमारी विशुद्ध भावनाओं को प्रसारित करने का साधन है; क्योंकि पंचकल्याणक के समय घंटे को भी मंत्रों से संस्कारित किया जाता है; इस की आवाज से सांसारिक विचारों का तारतम्य टूट जाता है और एकाग्रता आती है। यह मांगलिक है, मंगल नाद है!
इसे ' सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चारित्र- प्राप्ताय नम:' बोलते हुए प्राय: तीन बार ही बजाना चाहिए।
फिर प्रतिमाजी को बार बार एकाग्रचित हो कर देखे, प्रणाम करे ! फिर उच्चारण करे
ॐ जय! जय! जय! | नमोऽस्तु! नमोऽस्तु! नमोऽस्तु!| णमो अरिहंताणं, णमो सिधाणं, णमो आइरियाणं | णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं || ॐ ह्रीं अनादिमूलमंत्रेभ्यो नमः | (पुष्पांजलि क्षेपण करें)
3- णमोकार मंत्र- श्वासोच्छवास विधि से (3 श्वासो में) बोले जिस से अन्य भक्तों कि पूजा में विघ्न नहीं पड़े! देवदर्शन करते समय, आप किसी अन्य भक्त के दर्शन करने में बाधक नहीं होने चाहिए अन्यथा आपके दर्शनावरणीय कर्म का आस्रव/बंध होगा ! दर्शन आँखे बंद करके नहीं करने चाहिए अन्यथा वीतराग मुद्रा का दर्शन कैसे होगा !
4- फिर उच्चारण करे
चत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं, सिधा मंगलं, साह मंगलं, केवलपण्णत्तो धम्मो मंगलं | चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो | चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरिहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णतं धम्म सरणं पव्वज्जामि || ॐ नमोऽर्हते स्वाहा | (पुष्पांजलि क्षेपण करें)
दर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनम्। दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम्॥१॥ दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वन्दनेन च। न तिष्ठति चिरं पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम्॥२॥ वीतराग - मुखं दृष्ट्वा, पद्मरागसमप्रभम्। नैकजन्मकृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति॥३॥ दर्शनं जिनसूर्यस्य, संसार-ध्वान्तनाशनम्। बोधनं चित्तपद्मस्य, समस्तार्थ-प्रकाशनम्॥४॥ दर्शनं जिनचन्द्रस्य, सद्धर्मामृत-वर्षणम्। जन्म-दाहविनाशाय, वर्धनं सुखवारिधेः॥५॥ जीवादितत्त्व प्रतिपादकाय, सम्यक्त्व मुख्याष्टगुणार्णवाय। प्रशान्तरूपाय दिगम्बराय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय॥६॥ चिदानन्दैक - रूपाय, जिनाय परमात्मने। परमात्मप्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नमः॥७॥ अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम। तस्मात्कारुण्यभावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वरः ॥८॥ न हि त्राता न हि त्राता, न हि त्राता जगत्त्रये। वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति॥९॥ जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्जिने भक्ति-दिनेदिने। सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु,सदा मेऽस्तु भवे भवे॥१०॥ जिनधर्मविनिर्मुक्तो, मा भूवंचक्रवत्र्यपि। स्यां चेटोऽपि दरिद्रोऽपि, जिनधर्मानुवासित:॥११॥ जन्मजन्मकृतं पापं, जन्मकोटिमुपार्जितम्। जन्ममृत्युजरा-रोगो, हन्यते जिनदर्शनात्॥१२॥ अद्याभवत् सफलता नयन-द्वयस्य, देव ! त्वदीय चरणाम्बुज वीक्षणेन। अद्य त्रिलोक-तिलक ! प्रतिभासते मे, संसार-वारिधिरयं चुलुक-प्रमाण:॥१३॥
5- चौबीस तीर्थंकर के नामों का भी उच्चारण कर सकते है
6- भगवान् के समक्ष पांच अर्घ्य के पुंज; पांच परमेष्ठी के समक्ष, जिनवाणी के समक्ष ४ अर्घ्य के पुंज; प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग और मुनि श्री के समक्ष ३ पुंज अर्घ्य के उनके समयग्दर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यगचारित्र के लिए अर्पित करे!