7- देव शास्त्र गुरु, सिद्ध भगवान्, चौबीस तीर्थंकर भगवान्, मूल नायक भगवान्, दस लक्षण धर्म, सोलहकारण भावनाओं, पंचमेरू, नन्दीश्वर द्वीप का अर्घ्य अर्पित करे!
जल परम उज्ज्व ल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ | वर धूप निर्मल फल विविध, बहु जनम के पातक हरूँ || इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि, करत शिव पंकति मयूँ | अरिहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निग्रंथ नित पूजा रयूँ || वसुविधि अर्घ संजोय के, अति उछाह मन कीन | जा सों पूजू परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन || || ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल फल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करूं | तुमको अरपूं भवतार, भव तरि मोक्ष वरूं || चौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद सही | पद जजत हरत भवफंद, पावत मोक्ष मही || || ॐ ह्रीं श्री वृषभादि-वीरांत-चतुर्विंशति-तीर्थंकरेभ्योऽनर्य पद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।
गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणैः संगं वरं चन्दनं, पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम् । धपं गन्धयतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये, सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तरं वाञ्छितम् ।। || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिदधपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरौं । गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरौं ।। श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो । जय वर्दधमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ।। || ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।
आठो दरब संवार, धानत अधिक उछाह सों । भाव-आताप निवार,दस लच्छन पूजो सदा ॥ || ॐ ह्रीं श्री-उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण-धर्माय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वापमिति स्वाहा ।।
जल फल आठों दरव चढ़ाय द्यानत वरत करौं मन लाय। परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो।। दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय। परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो । || ॐ ह्रीं दर्शनविशुदधयादिषोडशकारणेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्य निर्वपामीति ||
आठ दरबमय अरघ बनाय, द्यानत पूजौं श्रीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।। पांचो मेरू असी जिन धाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम | महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।। || ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ||
यह अरघ कियो निजहेत, तुमको अरपत हों । धानत किज्यो शिवखेत, भूमि समरपतु हों | नन्दीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पंज करों । वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरों ॥ (नन्दीश्वर दीप महान चारों दिशि सोहें । बावन जिन मन्दिर जान सुर-नर-मन-मोहें ॥) || ॐ ह्रीं श्री-नन्दीश्वर-दवी पूर्व-पश्चिमोत्तर-दक्षिण-दिशु दव-पंचास-जिनालय-स्थित जिन प्रतिमाभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वापमिति स्वाहा ।।
8- भगवान् की 3 प्रदिक्षणाये लगाए! मंदिर जी में प्रतिमाये साक्षात् समवशरण का प्रतीक है,जिसमे अरिहंत भगवान् विराजमान है! पहली परिक्रमा में, हम दाहिने हाथ खड़े होकर तीन बार आवर्त कर, एक नमोस्तु करेंगे, फिर भगवान के पीछे जायेंगे तीन आवर्त और एक नमोस्तु करेंगे , इसी तरह भगवान के बाए और सामने भी आवर्त और एक नमोस्तु करें! दूसरी परिक्रमा में बेदी के चारों कोनो में नमोस्तु करे, तीसरी में भी नमोस्तु करना है !
प्रभु पतित पावन मैं अपावन, चरण आयो सरण जी । यों विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरण जी ॥ (१) तुम ना पिछान्यो आन मान्यो, देव विविध प्रकार जी । या बुद्धि सेती निज ना जान्यो, भम गिन्यो हितकार जी ॥ (२) भव विकट वन में करम बैरी, ज्ञान धन मेरो हरयो । तब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होए, अनिष्ट गति धरतो फिरयो ॥ (३) धन्य घड़ी यो धन्य दिवस यो ही, धन्य जनम मेरो भयो । अब भाग्य मेरो उदय आयो, दरश प्रभु जी को लाख लयो || (४) छवि वीतरागी नगन मुद्रा, दृष्टि नासा पै धरें । वस् प्रातिहार्य अनंत गुण जुट, कोटि रवि छवि को धरें ॥ (५) मिट गयो तिमिर मिथ्यात मेरो, उदय रवि आतम भयो । मो उर हरष एसो भयो, मनु रंक चिंतामणि लयो || (६) मैं हाथ जोड़ नवाय मस्तक, वीनऊँ तुम चरण जी । सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनहु तारण तरन जी ॥ (७) जायूँ नहीं सुरवास पुनि, नर राज परिजन साथ जी । "बुध" जाचहूँ तुम भक्ति भव भव, दीजिये शिवनाथ जी ॥ (८)
प्रदिक्षणा के पश्चात भगवान् को पंचांग नमस्कार करे ! महिलाओं को गौवासन ( केवल जैन आचार में ही गवासन नाम की एक विशेष मुद्रा है। शील गुण के उत्कृष्ट पालक हमारे आचार्य उपाध्याय व साधु गण दोनों पैर एक ओर कर के बैठ कर पांचों अंगों से ढोक देते हैं। समस्त नारी वर्ग के लिए इसी मुद्रा में ढोक देने की शिक्षा देते हैं। ) से जबकि पुरषों को पंचांग ( इस मुद्रा में जमीन पर बैठकर धोक देने में शरीर पाँच अंगों से धरती छता है: दो पैर, दो हाथ, मस्तक। ) नमस्कार करना चाहिए!
9- तीन परिक्रमाएं केवल दिन में, भगवान् के समवशरण में चारों दिशाओं में विराजमान भगवान के दर्शन के लिए, और रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए ले! रात्रि में परिक्रमाएं नहीं लगाते जिससे हम दिखाई नहीं देने वाले जीवो की अनावश्यक हिंसा से बच सके! भगवान के दर्शन के समय यह विचार रहना चाहिए कि यह जिनमन्दिर समवसरण है और उसमें साक्षात् जिनेन्द्रदेव के समान जिनप्रतिमा विराजमान हैं। समवसरण में भी भगवान् के बाह्यरूप के ही दर्शन होते हैं। वही रूप जिनबिम्ब (प्रतिमा) का है। किन्तु, साक्षात् जिनेन्द्रदेव के मुख से निकली दिव्यध्वनि सुनने का सौभाग्य जिनबिम्ब से संभव नहीं है, इसीलिए वेदिकाजी में जिनबिम्ब के साथ जिनवाणी भी विराजमान रहती है। जिनबिम्ब और जिनवाणी दोनों मिलकर ही समवसरण का रूप बनाती हैं। अत: देवदर्शन के पश्चात् शास्त्र-स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने से साक्षात् जिनेन्द्रदेव के दर्शन और उनके उपदेश-श्रवण जैसा लाभ प्राप्त होता है।
10- गंधोदक ग्रहण करने की विधि - गंधोदक भगवान के अभिषेक से प्राप्त सगन्धित पवित्र जल है ! हाथ को धोकर चम्मच अथवा कन्नी अंगुली को छोड़कर अगली दो अंगुलियों से थोडा सा गंधोदक लेकर मस्तक, नेत्र, कंठ एवं हृदय पर धारण करे !
गंधोदक लेते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करे -
"निर्मलं निर्मले करणं, पवित्रं पापनाशनम्। जिन गन्धोदकम् बंदे अष्ट कर्म विनाशनम्' ||
अर्थात यह निर्मल है, निर्मल करने वाला है, पवित्र है और पापों को नष्ट करने वाला है, ऐसे जिन गंधोदक कि मैं वंदना करता हूँ, यह मनुष्य के अष्टकर्मो का नाशक है! गंधोदक अत्यंत महिमावान है!
गंधोदक लेते समय ध्यान रखने योग्य विशेष बात है- अंगुली से एक बार गंधोदक कटोरे में से लेने के बाद पुन: वही अंगुली पुन: गंधोदक लेने के लिए, बिना धोये, गंदक के कटोरे मे डालना अनुचित है क्योकि शरीर का स्पर्श करने से वे अशुद्ध हो जाती है!
11- उसके बाद भगवन जी को नमस्कार करते हुए मंदिर जी से बाहर असहि: असहि: असाही: बोलते हुए आये! ध्यान रखे, बाहर आते हुए आपकी पीठ पूजनीय भगवान् की ओर नहीं रहे! 3 बार बोले म: दर्शन! " " भयार्थ पन: दर्शन! " " भयार्थ पन: दर्शन! " अर्थात हे भगवान आपके दर्शन से मुझे बड़ा आनंद मिला है! आपका दर्शन मुझे बार बार मिले! बार बार मिले, बार बार मिले !
मानस्तम्भ का महत्व-जिस स्तम्भ को देख कर मान नष्ट हो जाये उसे मानस्तम्भ कहते है ! शास्त्रों के अनुसार इन्द्रभूति गौतम, भगवान् महावीर के समवशरण में मानस्तम्भ देखने से पूर्व मिथ्यादृष्टि थे, किन्तु इंद्र के कहने पर उन्होंने जब समवशरण में प्रवेश किया तब उनका मान, मानस्तम्भ देखते ही नष्ट हुआ, उन्हों ने वही वंदना करी, जय हो भगवन जय हो भगवन बोले, और वही सम्यग्दृष्टि हुए! जैनियों के अतिरिक्त अन्य मति, जो भगवान के दर्शन करना चाहे वे मानस्तम्भ की प्रतिमाओं के दर्शन कर सके! इसलिए वे मंदिर के बाहर निर्मित किये जाते है! मानस्तम्भ में प्रतिष्ठित प्रतिमाये सबसे ऊपर और बीच में होती है! इसलिए हमे दोनों मूर्तियों कि विधिवत वंदना करनी चाहिए! जिस भी भगवान की प्रतिमाये हो उनके लिए अर्घ्य के चार पुंज बनाकर चारों कोनो मे अर्पित करने चाहिए! मानस्तम्भ में चारों प्रतिमाये एक ही भगवान् की और भिन्न भिन्न भगवान् की भी होती है ! इन प्रतिमाओं को अर्घ्य से पूजा करे और नमस्कार करे!