परिवर्तन का स्वरूप भी तो हमारे पक्ष में ही है। अनन्तदुःखरूपसंसार का अभाव होकर अनंतसुखस्वरूप मोक्ष तो प्रकट होता है; पर मोक्ष का अभाव होकर फिर संसार-अवस्था प्रकट नहीं होती। अनंतदुःख विनाशीक है और अनंतसुख अविनाशी हैं। - इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी?
पर्यायों और संयोगों को स्थिर रखने का विकल्प निरर्थक तो है ही, अविचारितरमणीय भी है। यदि लौकिकदृष्टि से विचार करें, तब भी मृत्यु एक शास्वत सत्य है, जबकि अमरता एक काल्पनिक उड़ान के अतिरिक्त कुछ नहीं है; क्यांेकि भूतकाल में हुए अगणित वीरों में से आज कोई भी तो दिखाई नहीं देता। यदि किसी को सशरीर अमरता प्राप्त हुई होती तो वे आज हमारे बीव अवश्य होते। कहा भी है -
जिनके वियोग की कल्पना में आप इतने आकुल-व्याकुल हो रहे हहैं, सुखी होने के लिए जिन्हें आप अमर बनाना चाहते हैं; उन संयोगों और पर्यायों के अमर हो जाने पर आपको किन-किन समस्याओं का सामना करना होगा-कभी इसका भी विचार किया है आपने?
नहीं; तो जरा कल्पना कीजिए कि आप स्वयं सशरीर अमर हो गये हैं। अब आपकी मृत्यु कभी भी नहीं होगी। आपके सामने ही आपके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि अनेक पीढि़याँ पैदा होंगी और काल-गाल में समाती जावेंगी और आपको अपनी आँखों से यह सब देखते रहना होगा। साथी-संगी, मित्र आदि सभी चले जावेंगे, पत्नी भी। सब कुछ नया होगा, मात्र आप ही एक प्राचीनतम पुरातत्वीय चेतन सामग्री के रूप में उपलब्ध रहेंगे। चिडि़याघर में न सही, किसी मंदिर में ही सही; पर आपको अद्भुत अलभ्य दर्शनीय वस्तु बनकर रहना होगा। ऐसा अमरता की आपने कल्पना भी न की होगी, पर आप ही बताइये कि इससे अतिरिक्त और क्या हो सकता है?
शायद आपको यह अमरता पसंद न आवे और आप मरना चाहें, पर ध्यान रहे अमर लोग मरते नहीं है; अत तो अनंतकाल तक आपको इसीप्रकार रहना होगा।
आप यह भी सोच सकते हैं कि हम ही क्यों, हमारे सभी साथी, इष्ट-मित्र, पुत्र-परिवार सभी अमर होंगे, फिर तो अकेलापन नहीं खटकेगा और न पुत्र-परिवार को अपनी आँखों से मरता ही देखना होगा; सब-कुछ आज जैसा ही रहेगा। पर यदि ऐसा हुआ तो समस्या और भी अधिक उलझ जायेगी; क्योंकि फिर कोई मरेगा नहीं - यह बात तो ठीक, पर उत्पादन तो चालू रहेगा ही; क्योंकि आपकी कल्पना अमरता की है, अजन्मा की नहीं। इस स्थिति मंे भीड़ बढ़ती ही जावेगी। जनसंख्या की निरंतर वृद्धि के इस युग में इसकी भयावहता पर प्रकाश डालने की विशेष आवश्यकता नहीं है।
यदि आप कहें कि हम अमरता के समान अजन्मा की कल्पना भी करेंगे। यद्यपि आप अपने कल्पनालोक में विचरने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं, तथापि इससे भी कोई समाधान निकलनेवाला नहीं है; क्योंकि फिर तो सब यों का यों ही थम जायगा, विकास एकदम अवरुद्ध हो जावेगा। जरा और पीछे को चलें तो यदि आपके बाप-दादों ने ऐसी अमरता प्राप्त कर ली होती तो आपके आने की संभावना ही नहीं रहती।
वस्तुस्वरूप के विरुद्ध कल्पनालोक में विचरण करने पर बहुत दूर जाकर भी कुछ हाथ लगनेवाला नहीं है, सुख-शांति प्राप्त होनेवाली नहीं है; अतः भला इसी में है कि हम पर्यायों की नश्वरता को सही रूप में समझें, उसे सहजभाव से स्वीकार करें। सुख-शांति प्राप्त करने का एक मात्र यही उपाय है।
संयोगों और पर्यायों की अनित्यता को जब हम अपनी मिथ्या मान्यताओं और राग-द्वेष के चश्मे से देखते हैं तो वह दुःखकर प्रतीत होती है, यदि सम्यग्ज्ञान के आलेक में देखें तो वस्तु का स्वभाव होने से शांति और सुखोत्पादक ही प्रतीत होंगी। दोष हमारी दृष्टि मंे है और उसे हम खोज रहे हैं लोक में। षट्द्रव्यरूपी लोक तो अपने परिणमनस्वभाव मंे पूर्ण व्यवस्थित है; अतः परिवर्तन लोक में नहीं, अपनी दृष्टि मंे करना है; किन्तु जगतजन जगत को अपने राग-द्वेषात्मक दृष्टिकोण से देखते हैं और तदनुसार ही उसे परिणमित करना चाहते हैं। उल्टी गंगा बहाने केे इस दुष्प्रयत्न में हमने अनंतकाल बिताया है और अनंत दुःख भी उठाये हैं।
अब समय आ गया है कि हम वस्तु के परिणमनस्वभाव को सहजभाव से स्वीकार करें; संयोगों की क्षणभंगुरता का आपत्ति के रूप में नहीं, सम्पत्ति के रूप में प्रसन्नचित्त से स्वागत करें; संयोग-वियोगों में सहज समताभाव रखें, संयोगांे को मिलाने-हटाने के निरर्थक विकल्पों से यथासंभव विरत रहें; अपनी दृष्टि को परिणमनशील संयोगों और पर्यायों से हटाकर अपरिणामी द्रव्यस्वभाव की ओर ले जावें; क्योंकि अनित्यभावना के सम्यक् चिंतन का यही सुपरिणाम है।
सभी आत्माथीजन जगत की क्षणभंगुरता को पहिचानकर स्वभावसन्मुख हों - इस पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ।
आत्मानुभूति क्या है?
सुनकर नहीं, पढ़कर नहीं; आत्मा को प्रत्यक्ष अनुभूतिपूर्वक साक्षात् जानना ही आत्मज्ञान है और इसीप्रकार जानते रहना ही आत्मध्यान है। इसप्रकार का आत्मज्ञान सम्यग्ज्ञान है और इसीप्रकार आत्मध्यान सम्यक्चारित्र है। जब ऐसा आत्मज्ञान और आत्मध्यान होता है तो उसी समय आत्मप्रतीति भी सहज हो जाती है, आत्मा में अपनापन भी सहज आ आता है, अतीन्द्रिय आनंद का वेदन भी उसीसमय होता है, सबकुछ एक साथ ही उत्पन्न होता है और सबका मिलाकर उकनाम आत्मानुभूति है।