चारित्रमोह के तीव्र उदय में रामचन्द्रजी जैसे सम्यग्दृष्टि धीर-वीर महापुरुष का चित्त भी आकुल-व्याकुल हो उठा था। लक्ष्मण की मृत देह को भी छह माह तक ढोते रहना तथा सीता के वियोग में पशु-पक्षियों एवं वृक्ष लताओं से भी समाचार पूछते फिरना क्या साधारण व्याकुलता का परिणाम हो सकता है? फिर भी वह आकुलता अज्ञानजनय नहीं थी, रागजन्य ही थी।
अज्ञानजन्य व्याकुलता दूर करने के साथ-साथ राग-द्वेषजन्य व्याकुलता दूर करने के लिए भी संयोगों और पर्यायों की अस्थिरता-क्षणभंगुरता का चिंतन निरंतर आवश्यक है। यही कारण है कि अनित्यादि भावनाओं का चिंतन ज्ञानी-अज्ञानी, संयमी-असयंमियों-सभी को उपयोगी है, आवश्यक है, सुखकर है, शांतिदायक है, परम अमृत है।
गौतमबुद्ध के पास कोई वृद्ध महिला अपने इकलौते मृत पुत्र को लेकर पहुँची। उनसे उसे जीवित कर देने का आग्रह करने लगी, अनुरोध करने लगी, विलख-विलख कर रोते हुए प्रार्थना करने लगी।
बहुत समझाने पर भी जब उसने अपना आग्रह नहीं छोड़ा तो महात्मा बुद्ध ने उससे कहा -
‘‘उस घर से एक मुट्ठी तिल लेकर आओ, जिस घर में आज तक किसी की मृत्यु न हुई हो।‘‘
उस घर की तलाश में अविवेकी वृद्धा बिना विचारे ही दौड़ पड़ी; पर घर-घर चक्कर काटने पर भी उसे ऐसा कोई घर न मिला, जिसमें किसी भी मृत्यु न हुई हो। मिलता भी कैसे; क्योंकि जगत में ऐसा घर होना संभव ही नहीं है। संसरण (परिवर्तन) का नाम ही तो संसार है। जगत का स्वरूप ही परिवर्तनशील है।
अन्ततोगत्वा थककर वह पुनः बुद्ध के पास पहुँची और अपनी असफलता बताई तो बुद्ध कहने लगे -
‘‘मृत्यु एक अनिवार्य तथ्य है, उसे किसी भी प्रकार टाला नहीं जा सकता। उसे सहज भाव में स्वीकार कर लेने में ही शांति है, आनंद है। सत्य को स्वीकार करना ही सन्मार्ग है।‘‘
अनित्यभावना में भी वस्तु के इसी पक्ष को उभारा जाता है, इसी सत्य से परिचित कराया जाता है, इसी तथ्य को अनेक युक्तियों से उजागर किया जाता है, उदाहरणों से समझाया जाता है।
अनित्यभावना संबंधी उक्त छंद में भी इसी तथ्य को उजागर किया गया है।
ध्यान रखने की बात यह है कि इस छंद में तो असमानजातीय पर्यायरूप एकक्षेत्रावगाही शरीर की नश्वरता का ही भान कराया गया है; पर पं. दौलतरामजी ने तो इस सीमा को और भी विस्तृत कर दिया है। वे लिखते हैं -
जवानी, घर, गाय-भैंस, स्त्री, घोड़ा, हाथी, आज्ञाकारी सेवक, इन्द्रियों के भोग - ये सभी वस्तुएँ बिजली के समान चंचल और इंदधनुष के समान क्षणस्थाई हैं।‘‘
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि -
जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है, उसका नियम से नाश होगा; क्यांेकि परिणामस्वरूप से तो कुछ भी नित्य नहीं है। जन्म मरण से, यौवन बुढ़ापे से एवं लक्ष्मी विनाश से सहित ही उत्पन्न होती है। इसप्रकार सभी वस्तुओं को क्षणभंगुर जानो।‘‘
अनित्यभावनासंबंधी उक्त कथनों में यद्यपि संयोगी पदार्थों एवं पर्यायों की क्षणभंगुरता का ही ज्ञान कराया गया है; तथापि प्रयोजन उनसे विरक्ति उत्पन्न करना है, दृष्टि को वहाँ से हटाकर स्वभावसन्मुख ले जाना है। यही कारण है कि अनित्यभावना मंे जहाँ एक ओर पर्यायों की अनित्यता की चर्चा की जाती है तो दूसरी ओर द्रव्यस्वभाव की नित्यता का ज्ञान भी कराया जाता है।
इस दृष्टि से अनित्यभावना संबंधी निम्नांकित छंद द्रष्टव्य हैं -
उक्त छन्दों में वस्तु के द्रव्यांश और पर्यायांश - दोनों की ही चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि द्रव्यदृष्टि से सभी वस्तुएँ स्थिर है और पर्यायदृष्टि से कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है।
यद्यपि दोनों ही छन्दों की वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करनेवाली प्रथम पंक्तियों में एक ही बात कही गई है; तथापि प्रेरणा देनेवाली द्वितीय पंक्तियों में भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रेरणा दी गई है। प्रथम छंद में क्षणस्थाई पर्याय की अनित्यता को गौण करके नित्य स्थाई निज शुद्धात्मद्रव्य पर दृष्टि केन्द्रित करने की प्रेरणा दी गई है और दूसरे छंद में पर्यायों के संयोग-वियोग में हर्ष-विषाद नहीं करने की बात कही गई है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि अनित्यभावना की चिंतनप्रक्रिया का मूल प्रयोजन इष्ट-अनिष्ट पर्यायों के संयोग-वियोग में हर्ष-विषाद न करके समताभाव धारण करने के लिए दृष्टि को पर और पर्यायों पर से हटाकर द्रव्यस्वभाव पर केन्द्रित करना है; क्योंकि समताभाव की प्राप्ति का एकमात्र उपाय वृŸिा का स्वभावसन्मुख होना ही है।
अनित्यभावना सम्बंधी चिंतन करते हुए भी यदि समताभाव जागृत नहीं होता है तो समझना चाहिए कि हमारी तत्ससम्बंधी चिंतनप्रक्रिया सम्यक् नहीं है, कहीं कोई गड़बड़ी अवश्य है। अनित्यादि भावनाओं का चिंतन करते समय जैसा साम्यभाव हमारी मुखमुद्रा एवं हाव-भावों में परिलक्षित होना चाहिए, वैसा बहुत कम देखने में आता है; अपितु चिन्तित चित्त एवं विचलित मुखमुद्रा यही बताते हैं कि संयोगों के अनिवार्य वियोग एवं पर्यायों के सुनिश्चित प्रलय के चिंतन से हम और अधिक आकुल-व्याकुल हो उठे हैं।
जब अनित्यता आत्मवस्तु का पर्यायगत स्वभाव है तो वह दुःखकर कैसे हो सकती है। यदि स्वभाव और उसका चिंतन-विचार भी आकुलता उत्पन्न करेंगे तो फिर सुख और शांति का कोई उपाय ही शेष न रहेगा; क्योंकि सुख और शांति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय तो वस्तुस्वभाव का सम्यक् ज्ञान-श्रद्धान ही है।
वस्तुतः बात यह है कि पर्यायगत स्वभाव के चिंतन की दिशा और प्रक्रिया सम्यक् न होने से ही यह सब गड़बड़ी होती है; अतः इस दिशा में विस्तृत दिशाबोध की अत्यंत आवश्यकता है।
पर्यायों की परिवर्तनशीलता वस्तु का पर्यायगत स्वभाव होने से आत्मार्थी के लिए हितकर ही है; क्योंकि यदि पर्यायें परिवर्तनशील नहीं होतीं तो फिर संसारपर्याय का अभाव होकर मोक्षपर्याय प्रकट होने के लिए अवकाश भी नहीं रहता। अनंतसुखरूप मोक्ष-अवस्था सर्वसंयोगों के अभावरूप ही होती है। यदि संयोग अस्थाई न होकर स्थाई होते तो फिर मोक्ष कैसे होता? अतः संयोगों की विनाशीकता भी आत्मा के हित में ही है।