|| चौबीस तीर्थंकर विधान ||

ऊँ
चौबीस तीर्थंकर विधान
मंगल स्तोत्र
-शुंभु छंद-

सिद्धीप्रद चौबीस तीर्थंकर, वर पंचकल्याणक के स्वामी।
स्वर्गावतार के छह महिने, पहले सुरपति आज्ञा मानी।।
धनपति रत्नों को वर्षाकर, सारे जग को दारिद्र धोवें।
जिनवर का गर्भकल्याणक यह, जन-जन में मंगलकर होवे।।1।।

श्री आदि देवि से सेवित मां, तीर्थंकर की जननी होतीं।
इन्द्राणी जिनशिशु को लेकर, अतिहर्षित मन पुलकित होतीं।।
मेरू पर एक हजार आठ, कलशों से जिन अभिषव होवे।
यह जन्म कल्याणक जिनवर का, सब जन को मंगलप्रद होवे।।2।।

बारह भावन भाते ही तो, लौकांतिक सुर आ जाते हैं।
सुरनिर्मित शिविका पर चढ़कर, तीर्थंकर वन में जाते हैं।।
’’सिद्धेभ्यो नमः’’ मंत्रपूर्वक, दीक्षा ले निज में रत होवें।
दीक्षा कल्याणक जिनवर का, हम सबको मंगलप्रद होवे।।3।।

प्रभु घात घातिया केवलरवि, भू से पण सहस धनुष ऊपर।
वर समवसरण में कमलासन पर, अधर विराजैं तीर्थंकर।।
द्वादशगण दिव्यध्वनी सुनकर, निज आत्मा का अघमल धोवें।
यह केवलज्ञान कल्याणक भी, हम सबको मंगलप्रद होवे।।4।।

प्रभु श्रीविहार का अंत समय, सब योग निरोध आयोगि बनें।
ध्यानाग्नी में कर्मेन्धन को, भस्मीकर शिवपति सिद्ध बनें।।
तीर्थंकर की अतिशय भक्ती, निजसौख्य सुधारस प्रद होवे।
निर्वाण कल्याणक जिनवर का, हम सबको मंगलप्रद हावे।।5।।

अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।