भगवान श्री अनंतनाथ जिनपूजा
-अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद

श्री अनंत जिनराज आपने, भव का अंत किया है।
दर्शन ज्ञान सौख्य वीरजगुण, को आनन्त्य किया है।।
अंतक का भी अंत करें हम, इसीलिए मुनि ध्यते।
आह्वानन कर पूजा करके, प्रभु तुम गुण हम गाते।।1।।

ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अथ अष्टक (अडिल्ल छंद)-

सरयूनदि को नीर कलश भर लाइये।
जिनवर पद पंकज में धार कराइये।।
भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूं।
रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूं।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

मलयज जंदन गंध सुगंधित लाइये।
तीर्थंकर पद पंकज अग्र चढ़ाइये।।
भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूं।
रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूं।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

उज्ज्वल अक्षत मुक्ता फल सम लाइये।
जिनवर आगे पुंज चढ़ा सुख पाइये।।
भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूं।
रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूं।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

वकुल कमल बेला चंपक सुमनादि ले।
मदनजयी जिनपाद पद्म पूजूं भले।।
भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूं।
रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूं।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

कलाकंद मोदक घृतमालपुआ लिये।
क्षुधाव्याधि क्षय हेतू आज चढ़ा दिये।।
भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूं।
रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूं।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

घृतदीपक की ज्योति जले जगमग करे।
तुम पूजा तत्काल मोह तम क्षम करे।।
भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूं।
रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूं।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

अगर तगर सित चंदन आदि मिलाय के।
अग्नि पात्र में खेऊं भाव बढ़ाय के।।
भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूं।
रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूं।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

अनंनास अंगूर आम आदिक लिये।
महामोक्षफल हेतु तुम्हें अर्पण किये।
भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूं।
रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूं।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

जल गंधादिक अघ्र्य लिया भर थार में।
’ज्ञानमती’ निधि हेतु जजूं त्रयकाल में।।
भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूं।
रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूं।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-दोहा-

श्री अनंत जिनराज के, चरणों धार करंत।
चउसंघ में भी शांति हो, समकित निधि विलसंत।।10।।
शांतये शांतिधारा।

बेला कमल गुलाब ले, पुष्पांजली करंत।
मिले आत्म सुख संपदा, कटें जगत दुःख फंद।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
-अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद
पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल पर पांच अघ्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।

-सखी छंद-
सिंहसेन अयोध्यापति थे, जयश्यामा गर्भ बसे थे।
कार्तिक वदि एकम तिथि में, प्रभु गर्भकल्याणक प्रणमें।।1।।
भव अंतक श्री जिन अनंत पद को जजूं।
रोग शोक भय नाश सहज निज सुख भजूं।।2।।
ऊँ ह्रीं कार्तिककृष्णाप्रतिपदायं श्रीअनंतनाथजिनर्गीकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

तिथि ज्येष्ठ वदी बारस में, सुर मुकुट हिले जिन जन्में।
अठ एक हजार कलश से, जिन न्हवन किया सुन हरषें।।2।।
ऊँ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाद्वादश्यां श्रीअनंतनाथजिनजन्मकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

तिथि ज्येष्ठ वदी बारस थी, उल्का गिरते प्रभु विरती।
तप लिया सहेतुक वन में, पूजत मिल जावे तप में।।3।।
ऊँ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाद्वादश्यां श्रीअनंतनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

वदि चैत अमावस्या के, पीपल तरू तल जिन तिष्ठे।
केवल रवि उगा प्रभू के, मैं जजूं त्रिजग भ चमके।।4।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णाअमावस्यायां श्रीअनंतनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

चैत आमावसी यम नाशा, शिवनारि वरी निज भासा।
सम्मेद शिखर को जजते, निर्वाण जजत सुख प्रगटे।।5।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णअमावस्यायां श्रीअनंतनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-पूर्णाघ्र्य (दोहा)

श्री अनंत भगवंत के, चरणकमल सुखकंद।
पूजूं अघ्र्य चढ़ाय के, पाऊं परमानंद।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथ पंचकल्याणकाय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य - ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्रायः नमः।
जयमाला

-बसंततिलका छंद-


देवाधिदेव तुम लोक शिखामणी हो।
त्रैलोक्य भव्यजन कंज विभामणी हो।।
सौ इन्द्र आज पद पंकज में नमें हैं।
साधू समूह गुण वर्णन में रमे हैं।।1।।

जो भक्त नित्य तुम पूजन को रचावें।
आनंद कंद गुणवृंद सदैव ध्यावें।।
वे शीघ्र दर्शन विशुद्धि निधान पावें।
पच्चीस दोष मल वर्जित स्वात्मध्यावें।।2।।

निःशंकितादि गुण आठ मिले उन्हीं को।
जो स्वप्न में भिी हैं संस्मरते तुम्हीं को।।
शंका कभी नहिं करें जिनवाक्य में वो।
कांक्षें न ऐहिक सुखदिक को कभी वो।।3।

ग्लानी मुनी तनु मलीन विषे नहीं है।
नाना चमत्कृति विलोक न मूढ़ता है।।
सम्यक्चरित्र व्रत से डिगते जनों को।
सुस्थिर करें पुनरपी उसमें उन्हीं को।।4।।

अज्ञान आदि वश दोष हुए किसी के।
अच्छी तरह ढक रहें न कहें किसी से।।
वात्सल्य भाव रखते जिनधर्मियों में।
सद्धर्म द्योतित करें रूचि से सभी में।।5।।

वे द्वादशांग श्रुत सम्यग्ज्ञान पावें।
चारित्रपूर्ण धर मनपर्यय उपावें।।
वे भक्त अंत बस केवलज्ञान पावें।
मुक्त्यंगना सह रमें शिवलोक जावें।।6।।

गणधर जयादिक पचास समोसृती में।
छयासठ हजार मुनि संयमलीन भी थे।।
थी सर्वश्री प्रमुख संयतिका वहां पे।
जो एक लाख अरू आठ हजार प्रमिते।।7।।

दो लाख श्रावक चतुर्लख श्राविकाएं।
संख्यात तिर्यक् सुरादि असंख्य गायें।।
उत्तुंग देह पच्चास धनू बताया।
है तीस लाख वर्षायु मुनीश गाया।।8।।

’’सेही’’ सुचिन्ह तनु स्वर्णिम कांति धारें।
वंदूं अनंत जिन को बहु भक्ति धारें।।
पूजूं नमूं सतत ध्यान धरूं तुम्हारा।
संपूर्ण दुःख हरिये भगवन! हमारा।।9।।

हे नाथ! कीर्ति सुन के तुम पास आया।

पूरा मनोरथ सभी जो साथ लाया।।
सम्यक्त्व क्षायिक करो सुचरित्र पूरो।
कैवल्य ’ज्ञानमति’ दे, यम पाश चूरो।।10।।

-दोहा-

तुम पद आश्रय जो लिया, सो पहुंचे शिवधाम।
इसीलिए तुम चरण में, करूं अनंत प्रणाम।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।

-सोरठा-

श्री अनंत भगवंत, नमूं नमूं तुम पदकमल।
मिले भवोदधि, क्रम से निजसुख संपदा।।1।।

।।इत्याशीर्वाद।।