भगवान श्री ऋषभदेव जिनपूजा
(स्थापना - गीता छंद)

हे आदिब्रह्म! युगपुरूष! पुरूदेव! युगद्रष्टा तुम्हीं।
युग आदि में इस कर्मभूमि, के प्रभो! कर्ता तुम्हीं।।
तुम ही प्रजापतिनाथ! मुक्ती, के विधाता हो तुम्हीं।
मैं आपका आह्वान करता, नाथ! अब तिष्ठो यहीं।।1।।
ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषअ् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

अष्टक - चाल - नंदीश्वर पूजा

जिनवच सम शीतल नीर, कंचन भृंग भरूं।
जिन चरणांबुज में धार, दे जगद्वंद्व हरूं।।
श्री आदिनाथ जिनराज, आदी तीर्थंकर।
मैं पूजं भक्ति समेत, तुमको क्षेमंकर।।1।।
ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

जिनतनु सम सुरभित गंध, सुवरण पात्र भरूं।
जिनचरण सरोरूह चर्च, भव संताप हरूं।।
श्री आदिनाथ जिनराज, आदी तीर्थंकर।
मैं पूजूं भक्ति समेत, तुमको क्षेमंकर।।2।।
ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति निर्वपामीति स्वाहा।

जिन गुणसम उज्ज्वल धौत, अक्षत थाल भरे।
जिन चरण निकट धर पुंज, अक्षय सौख्य भरे।।
श्री आदिनाथ जिनराज, आदी तीर्थंकर।
मैं पूजं भक्ति समेत, तुमको क्षेमंकर।।3।।
ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

जिनयशसम सुरभित श्वेत, कुंद गुलाब लिये।
मदनारिजयी जिनपाद, पूजूं हर्ष हिये।।
श्री आदिनाथ जिनराज, आदी तीर्थंकर।
मैं पूजूं भक्ति समेत, तुमको क्षेमंकर।।4।।
ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

जिनवचनामृत सम शुद्ध, व्यंजन थाल भरे।
परमामृत तृप्त जिनेन्द्र, पूजत भूख टरे।।
श्री आदिनाथ जिनराज, आदी तीर्थंकर।
मैं पूजूं भक्ति समेत, तुमको क्षेमंकर।।5।।
ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

वरभेद ज्ञान सम ज्योति, जगमग दीप लिये।
जिनपद पूजत ही होते, ज्ञान उद्योत हिये।।
श्री आदिनाथ जिनराज, आदी तीर्थंकर।
मैं पूजूं भक्ति समेत, तुमको क्षेमंकर।।6।।
ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

दशगंध सुगंधित धूप, खेवत कर्म जरे।
निज आतम गुण सौगंध्य, दश दिश माहिं भरे।।
श्री आदिनाथ जिनराज, आदी तीर्थंकर।
मैं पूजूं भक्ति समेत, तुमको क्षेमंकर।।7।।
ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

जिन ध्वनिसम मधुर रसाल, आम अनार भले।
जिनपद पूजत तत्काल, फल सर्वोच्च मिले।।
श्री आदिनाथ जिनराज, आदी तीर्थंकर।
मैं पूजूं भक्ति समेत, तुमको क्षेमंकर।।8।।
ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

ले अष्ट द्रव्य का थाल, अध्र्य सम चढ़ाऊं मैं।
कैवल्य ’ज्ञानमति’ हेतु, तुम गुण गाऊं मैं।।
श्री आदिनाथ जिनराज, आदी तीर्थंकर।
मैं पूजूं भक्ति समेत, तुमको क्षेमंकर।।9।।
ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अध्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-सोरठा-

सरयूनदी सुनरी, जिनपद पंकज धार दे।
शीघ्र हरो भव पीर, शांतीधारा शांतिकर।।10।।
शांतये शांतिधारा।

बेला कमल गुलाब, चंप चमेली ले घने।
आदीक्ष्वर पादाब्ज, पूजत ही सुख संपदा।।11।।
शांतये शांतिधारा।

पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल पर पांच अघ्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शुभु छंद-
यह पुरी अयोध्या इन्द्र रचित, चैदहवें कुलाकर नाभिराज।
माता मरूदेवी के आंगन, बहु रत्न वृष्टि की धनदराज।।
आषाढ़ वदी द्वितीया सर्वारथ, सिद्धि से अहमिंद्र देव।
माता के गर्भ बसे आकर, इन्द्रों ने की पितु मात सेव।।
ऊँ ह्रीं आषाढ़कृष्णाद्वितीयायां श्रीआदिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अध्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्री ह्री धृति आदि देवियों ने, माता की सेवा भक्ति की।
नाना विध गूढ़ प्रश्न करके, माता की अतिशय तृप्ती की।।
शुभ चैत्र वदीनवमी जन्में, प्रभु त्रिभुवन में अति हर्ष हुआ।
इन्द्रों ने आ प्रभु को लेकर, मेरू पर अतिशय न्हवन किया।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णानवम्या श्रीआदिनाथजिनजन्मकल्याणकाय अध्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

पुरूदेव निलांजना नृत्य देख, वैराग्यभाव मन में लाये।
लौकांतिक सुर स्तुति करते, सुर सुदर्शना पालकि लाये।।
नक्षत्र उत्तराषाढ़ चैत वदि, नवमी प्रभु सिद्धार्थ वन में।
छह मास योग ले दीक्षा ली, मैं अध्र्य चढ़ाऊं प्रभु पद में।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णानवम्या श्रीआदिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अध्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

छह मास योग के बाद प्रभू, मुनिचर्या बतलाने निकले।
गजपुर में अक्षयतृतिया को, आहार दिया श्रेयांस मिले।।
इस सहस वर्ष तप तपने से, केवलज्ञानी होकर चमके।
दिव्यध्वनि से जग संबोधा, फाल्गुन वदि एकादशि तिथि के।।
ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाएकादश्यां श्रीआदिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अध्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

बारह विद्य सभा बनी सुंदर, मुनि आर्या सुरनर पशुगण थे।
प्रभु समवसरण में वृषभसेन, आदिक चैरासी गणधर थे।।
तीजे युग में त्रय वर्ष सार्ध, अरू मासशेष अष्टापद से।
चैदह दिन योग निरूद्ध माघ, वदि चैदश के प्रभु मुक्ति बसे।।
ऊँ ह्रीं माघकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीआदिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अध्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-पूर्णाध्र्य (दोहा)-

चिन्मय चिन्तामणि प्रभो! ऋषभदेव भगवान।
पूर्ण अध्र्य लेकर जजूं, मिले सिद्ध स्थान।।6।।
ऊँ ह्रीं आदिनाथ पंचकल्याणकाय पूर्णाध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधरा, दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य - ऊँ ह्रीं श्रीऋषभदेवजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला

-दोहा -

तीर्थंकर गुण रत्न को, गिनत न पावें पार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूं अनंतों बार।।1।।

-शंभु छंद -

श्री वृषभसेन आदिक चैरासी, गणधर मुनि चैरासि सहस।
बाह्यी गणिनी त्रय लाख पचास, हजार आर्यिका व्रतसंयुत।।
त्रय लाख सुश्रावक पांच लाख, श्राविका प्रभू का चउ संघ था।
आयू चैरासी लाख पूर्व, वत्सर व पांच सौ धनु तनु था।।2।।

-अनंग शेखर छंद-

जयो जिनेन्द्र! आपके महान दिव्य ज्ञान में,
त्रिलोक और त्रिकाल एक साथ भसते रहे।
अयो जिनेन्द्र! आपको अपूर्व तेज देखके,
असंख्य सूर्य और चंद्रमा भि लाजते रहे।।

जयो जिनेन्द्र! आपकमी ध्वनी अनच्छरी खिरे,
तथापि संख्य भाषियों को बोध है करा रही।
जयो जिनेन्द्र! आपका अचिन्तय ये महात्म्य देख,
सुभक्ति से प्रजा समस्त आप आप आ रही।।3।।

जिनेश! आपकी सभा असंख्य जीव से भरी,
अनंत वैभवों समेत भव्य चित्त मोहती।
जिनेश! आपके समीप साधु वृंद औ गणीन्द्र,
केवली मुनीन्द्र और आर्यिकायें शोभतीं।।

सुरेन्द्र देवियों की टोलियां असंख्य आ रहीं,
खगेश्वरों की पंक्तियों अनेक गीत गा रहीं।
सुभूमि गोचरी मनुष्य नारियां तमाम हैं,
पशू तथैव पक्षियों कि टोलियां भी आ रहीं।।4।।

सुबारहों सभा स्वकीय ही स्वकीय में रहें,
असंख्य भव्य बैठ के जिनेश देशना सुनें।
सुतत्त्व सात नौ पदार्थ पांच अस्तिकाय और,
द्रव्य छह स्वरूप को भले प्रकार से गुनें।।

निजात्म तत्त्व को संभाल तीनन रत्न से निहाल,
बार-बार भक्ति से मुनीश हाथ जोड़ते।
अनंत सौख्य में निमित्त आपको विचार के,
अनंत दुःख हेतु जान कर्मबंध तोड़ते।।5।।

स्वमोह बेल को उखाड़ मृत्युमल्ल को पछाड़,
मुक्ति अंगना निमित्त लोक शीश आ बसें।
प्रसाद से हि आपके अनंत भव्य जीव राशि,
आपके समान होय आप पास आ लसें।।

असंख्य जीव मात्र दृष्टि समीचीन पायके,
अनंतकाल रूप पंच परावर्त मेटते।
सुभक्ति के प्रभाव से असंख्य कर्म निर्जरा,
करें अनंत शुद्ध से निजात्म सौख्य सेवते।।6।।

-दोहा-

वृषभ चिन्ह स्वर्णिम तनू, प्रथम तीर्थंकर आप।
’ज्ञानमती’ सुख शांति दे, करो हमें निष्पाप।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाध्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलिः।
-दोहा-

नाथ! आप गुणसिंधु हैं, को कहि पावे पार।
नाममंत्र ही आपका, करे भवोदधि पार।।1।।

।।इत्याशीर्वादः।।