भगवान श्री शीतलनाथ जिनपूजा
-अथ स्थापना-(शंभुछंद) -

हे शीतल तीर्थंकर भगवन्! त्रिभुवन में शीतलता कीजे।
मानस शारीरिक आगुतुक, त्राय ताप दूर कर सुख दीजे।।
चारण ऋद्धीधारी ऋषिगण, निज हृदय कमल में ध्याते हैं।
हम भी प्रभु का आह्वानन कर, सम्यक्त्व सुधारतस पाते हैं।।

ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अथ अष्टक (शंभु छंद)-

भरत जावे पूरा त्रिभुवन भी, प्रभु इतना नीर पिया मैंने।
फिरभी नहिं प्यास बुझी अब तक, इसलिए नीर से पूंजूं मैं।।
हे शीतल तीर्थंकर! तुमको, पूजत मन शीतल हो जावे।
वच शीतल हों सब व्याथी नशें, तनु में शीतलता आ जावे।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

प्रभु त्रिभुवन में भी घूम घूम, शीतलता चाही चंदन से।
प्रभु अब शीतलता होवेगी, चंदन तुम पद में चर्चनसे।।
हे शीतल तीर्थंकर! तुमको, पूजत मन शीतल हो जावे।
वच शीतल हों सब व्याथी नशें, तनु में शीतलता आ जावे।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

त्रिभुव में सब पद प्राप्त किया, वे खंड खंड हो बिखर गये।
अक्षत से पूजंू पद पंकज, हो मुझ अखंड पद इसीलिए।।
हे शीतल तीर्थंकर! तुमको, पूजत मन शीतल हो जावे।
वच शीतल हों सब व्याथी नशें, तनु में शीतलता आ जावे।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

तुम कीर्ति सुगंधी त्रिभुवन में, प्रभु फैल रही गणधर गायें।
इसलिए सुगंधित कुसुम लिये, तुमपद पूजें निज यश पायें।।
हे शीतल तीर्थंकर! तुमको, पूजत मन शीतल हो जावे।
वच शीतल हों सब व्याथी नशें, तनु में शीतलता आ जावे।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

प्रभु तीनलोक से अधि अन्न, पकवान खा चुका मैं जगमें।
फिर भी नहिं भूख मिटी इनसे, अतएव चरू से पूजूं मैं।।
हे शीतल तीर्थंकर! तुमको, पूजत मन शीतल हो जावे।
वच शीतल हों सब व्याथी नशें, तनु में शीतलता आ जावे।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशानाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

अज्ञान अंधेरा त्रिभुवन में, नहिं देख सका निज आत्म को।
इसलिए दीप से मैं पूजूं, निज ज्ञान ज्योति मुझ प्रगटित हो।।
हे शीतल तीर्थंकर! तुमको, पूजत मन शीतल हो जावे।
वच शीतल हों सब व्याथी नशें, तनु में शीतलता आ जावे।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

ये कर्म त्रिजग में दुःख देते, इनको अब शीघ्र जलाने को।
मैं धूप अग्नि में खेऊं अब, प्रभु पूजा यश फैलाने को।
हे शीतल तीर्थंकर! तुमको, पूजत मन शीतल हो जावे।
वच शीतल हों सब व्याथी नशें, तनु में शीतलता आ जावे।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

नानाविध फल काी प्राप्ति हेु, मैं घू चुका प्रभु त्रिभुवन में।
अब एक मोक्ष फल प्राप्ति हेतु, फल मधुर चढ़ाऊं तुम पद में।।
हे शीतल तीर्थंकर! तुमको, पूजत मन शीतल हो जावे।
वच शीतल हों सब व्याथी नशें, तनु में शीतलता आ जावे।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

निज आत्मनिधी को भूल गया, बस मूल्य विषय सुख का आंका।
वन ’ज्ञानमती’ हित अघ्र्य चढ़ाकर, प्रभु पाऊं रत्नत्रय सांचा।।
हे शीतल तीर्थंकर! तुमको, पूजत मन शीतल हो जावे।
वच शीतल हों सब व्याथी नशें, तनु में शीतलता आ जावे।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-दोहा-

प्रभु त्रयधारा करूं, त्रिभुवन शांती हेतु।
शीतल जिन की भक्ति है, भवि को भवदधि सेतु।।10।।
शांतये शांतिधारा।

शीतल जिन पदकमल में, पुष्पांजलि विकिरंत।
तिहुंजग यश विस्तारके, त्रिभुवन सौख्य भरंत।।11।।
यदिव्य पुष्पांजलिः।

-अथ स्थापना-(शंभुछंद) -
पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल और पांच अध्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।

-गीता छंद’
शीतल प्रभू अच्युत सुरग से, भद्रिकापुरि आ गये।
दृढ़रथ पिता माता सुनंदा, के गरभ में आ गये।।
तिथि चैत्र कृष्णा अष्टमी, धनपति रतन बरसा रहा।
इन्द्रादि गर्भोत्सव किया, पूजत गरभ के दुख दहा।।1।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णाअष्टम्यां श्रीशीतलनाथजिनगर्भकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

तिथि माघ कृष्णा द्वादशी, प्रभु जन्मते बाजे बजे।
देवों के आसन कंप उठे, सुर इन्द्र ये हर्षित तबे।।
सुरशैल पर पांडुकशिला पे, जन्म अभिषव था हुआ।
जिन जन्म कल्याणक जजत, मेरा जनम पावन हुआ।।2।।
ऊँ ह्रीं माघकृष्णाद्वादश्यां श्रीशीतलनाथजिनजन्मकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

हिमनाश देखा नाथ के, मन में विरक्ती छा गयी।
वदि माघ बारस पालकी, शुक्रप्रभा तब आ गयी।।
सुरपति सहेकतुक बाग में, लेकर गये प्रभु चैक पे।
सिद्धं नमः कह लोच कर, दीक्षा ग्रही पूजूं अबे।।3।।
ऊँ ह्रीं माघकृष्णाद्वादश्यां श्रीशीतलनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

तिथि पौष वदि चैदश जिनेश्वर शुक्ल ध्यानी हो गये।
तब बेलतरू तल में त्रिलोकी, सूर्य केवल पा गये।।
सुंदर समवसृति में अधर, तिष्ठे असंख्यो भव्य को।
संबोध वचपीयूष से, तारा जजूं जिनसूर्य को।।4।।
ऊँ ह्रीं पौषकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशीतलनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

अश्विनी सुदी अष्टम तिथी, सम्मेदगिरि पे जा बसे।
इक सहस साधू साथ ले, मुक्तीनगर में जा बसे।।
अतिशय अतीन्द्रिय सौख्य, परमानंद अमृत पा लिया।
शीतल प्रभू का मोक्षकल्याणक, जजत निजसुख लिया।।5।।
ऊँ ह्रीं आश्विनशुक्लाअष्टम्यां श्रीशीतलनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-पूर्णाघ्र्य (देहा)-

शीतल तीर्थंकर प्रभो! आप त्रिजग के नाथ।
मन-वच-तन शीतल करो, जजूं नमाकर माथ।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथ पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य - ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला

-दोहा-

अति अद्भुत लक्ष्मी धरें, समवसरण प्रभु आप।
तुम ध्वनि सुन भविवृंद नित, हरें सकल संताप।।1।।

-शंभु छंद-

जय जय शीतल जिन का वैभव, अंतर का अनुपम गुणमय है।
जो दर्शनज्ञान सुख वीर्यरूप, आनन्त्य चतुष्टय गुणमय है।।
बाहर का वैभव समवसरण, जिसमं असंख्य रचना मानी।
गुरू गणधर भी वर्णन करते, थक जाते मनपर्यय ज्ञानी।।2।।

यह समवसरण की दिव्य भूमि, इक हाथ उपरि पृथ्वी तल से।
सीढ़ी से ऊपर उधर भूमि, यह तीस कोश की गोल दिखे।।
यह भूमि कमल आकर कही, जो इन्द्रनीलमणि निर्मित है।
है गंधकुटी इस मध्य सही, जो कमल कर्णिका सद्श है।।3।।

पंकज के दल सम बाह्य भूमि, जो अनुपक शोभा धारे है।
इस समवसरण का बाह्य भाग, दर्पण तल सम रूचि धारे है।।
यह बीस हजार हाथ ऊंचा, शुभ समवसरण अतिशय शोभे।
एकेक हाथ ऊंची सीढ़ी, सब बीस हजार प्रमित शोभें।।4।।

अंधे पंगू रोगी बालक, औ वृद्ध सभी जन चढ़ जाते।
अंतर्मुहूर्त के भीतर ही, यह अतिशय जिन आगम गाते।।
इसमें शुभ चार दिशाओं में, अति विस्तृत महा वीथियां है।
वीथी में मानस्तंभ कहे, जिनकी कलधौत पीठिका हैं।।5।।

जिनवर से बारह गुणे, तुंग, बारह योजन से दिखते हैं।
इनमें हैं दो हजार पहलू, स्फटिक मणी के चमके हैं।।
उनमें चारों दिश में ऊपर, सिद्धों की प्रतिमाएं राजें।
मानस्तंभों की सीढ़ी पर, लक्ष्मी की मूर्ति अतुल राजें।।6।।

ये दूर-दूर तक गांवों में, अपना प्रकाश फैलाते हैं।
जो इनका दर्शन करते हैं, वे निज अभिमान गलाते हैं।।
मानस्तंभों के चारों दिश, जलपूरित स्वच्छ सरोवर हैं।
जिनमें अतिसुंदर कमल खिले, हंसादि रवों से मनहर हैं।।7।।

प्रभु समवसरण में इक्यासी, गणधर सप्तर्द्धि समन्वित हैं।
सब एक लाख मुनिराज वहां, मूलोत्तर गुण से मंडित हैं।।
गणिनी धरणाश्री तीन लाख अस्सी हजार आर्यिका कहीं।
श्रावक दो लाख श्राविकाएं, त्रय लाख भक्ति में लीन रहीं।।8।।

नब्बे धनु तुंग देह स्वर्णिम, इस लाख पूर्व वर्षायू थी।
है कल्पवृक्ष का चिन्ह प्रभो! दश्वें तीर्थंकर शीतल जी।।
चिंतित फलदाता चिंतामणि, वांछित फलदाता कल्पतरू।
मैं पूजूं ध्याऊं गुण गाऊं, निज आत्म सुधा का पान करूं।।9।।

हे नाथ! कामना पूर्ण करो, निज चरणों में आश्रय देवो।
जब तक नहिं मुक्ति मिले मुझको, तब तक ही शरण मुझे लेवो।।
तब तक तुम चरण कमल मेरे, मन में नित सुस्थिर हो जावें।
जब तक नहिं केवल ’ज्ञानमती’ तब तक मम वच तुम गुण गावें।।10।।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

-सोरठा-

गिनत न पावें पार, प्रभू गुणरत्न को।
नमूं नमूं शत बार, तीन रत्न के हेतु ही।।1।।
।।इत्याशीर्वादः।।