भगवान श्री पुष्पदंतनाथ जिनपूजा
-अथ स्थापना-(गीता छंद) -

श्री पुष्पदंतनाथ जिनेन्द्र त्रिभुवन अग्र पर तिष्ठें। सदा।
तीर्थेश नवमें सिद्ध हैं, शतइन्द्र पूजें सर्वदा।।
चउज्ञानधारी गणपती, प्रभु आपके गुण गावते।
आह्वान कर पूजें यहां, प्रभु भकित से शिर नावते।।

ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अथ अष्टक (नरेन्द्र छंद)-

सरयू नदि का शीतल जल ले, जिनपद धार करूं मैं।
साम्य सुधारस शीतल पीकर, भव भव त्रास हरूं मैं।
पुष्पदंत जिन पद पंकज को, पूजत निज सुख पाऊं।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र नशाऊं।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय जन्मपरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

काश्मीरी केशर चंदन घिस, जिनपद में चर्चूं मैं।
मानस तनु आगंतुक त्रयविध, ताप हरो अर्चूं मैं।।
पुष्पदंत जिन पद पंकज को, पूजत निज सुख पाऊं।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र नशाऊं।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदन निर्वपामीति स्वाहा।

मोती सम उज्ज्वन अक्षत से प्रभु ढिग पुंज चढ़ाऊं।
निज गुणमणि को प्रगटित करके, फेर न भव में आऊं।।
पुष्पदंत जिन पद पंकज को, पूजत निज सुख पाऊं।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र नशाऊं।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अक्ष्ज्ञयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

जूही मोगरा सेवतं, वासंती पुष्प चढ़ाऊं।
कामदेव कोभस्मसात् कर, आतम सौख्य बढ़ाऊं।।
पुष्पदंत जिन पद पंकज को, पूजत निज सुख पाऊं।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र नशाऊं।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

घेवर फेनी लड्डू पेड़ा, रसगुल्ला भर थाली।
तुम्हें चढ़ाऊं नाश हो, भरे मनोरथ खाली।।
पुष्पदंत जिन पद पंकज को, पूजत निज सुख पाऊं।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र नशाऊं।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

स्वर्णदीप में ज्योति जलाऊं, करूं आरती रूचि से।
मोह अंधेरा दूर भगे जब ज्ञान भारती प्रगटे।।
पुष्पदंत जिन पद पंकज को, पूजत निज सुख पाऊं।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र नशाऊं।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

एला चंदन कर्पूरादिक, मिश्रित धूप सुगंधी।
जिन सन्मुख अग्नी में खेऊं, धूम उड़े दिश अंधी।
पुष्पदंत जिन पद पंकज को, पूजत निज सुख पाऊं।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र नशाऊं।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

आड़ू लीची सेव संतरा, आम अनार चढ़ाऊं।
सरस मधुर फल पाने हेतू, शत शत शीश झुकाऊं।।
पुष्पदंत जिन पद पंकज को, पूजत निज सुख पाऊं।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र नशाऊं।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

जल गंधादिक अघ्र्य बनाकर, सुवरण पुष्प मिलाऊं।
केवल ज्ञानमती हेतु मैं, प्रभु को अघ्र्य चढ़ाऊं।।
पुष्पदंत जिन पद पंकज को, पूजत निज सुख पाऊं।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र नशाऊं।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-अथ स्थापना-(गीता छंद) -

यमुना सरिता नीर, प्रभु चरणों धारा करूं।
मिले निजात्मा समीर, शांतीधारा शं करे।।10।।
शांतये शांतिधारा।

सुरभित खिले सरोज, जिन चरणों अर्पण करूं।
निर्मद करूं मनोज, पाऊ जिनगुण संपदा।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।

-अथ स्थापना-(गीता छंद) -
पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल पर पांच अघ्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।

-रोला छंद-
प्राणत स्वर्ग विहाय, काकंदीपुर आये।
इंद्र सभी हर्षाय, गर्भकल्याण मनाये।।
पिता कहे सुग्रीव, जयरामा जगमाता।
नवमी फागनु कृष्ण, जत मिले सुखसाता।।1।।
ऊँ ह्रीं फाल्गुलकृष्णानवम्यां श्रीपुष्पदंतनाथजिनगर्भकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

मगसिर एकम शुक्ल, जन्म लिया तीर्थंकर।
रूचकवासिनी देवि, जातकर्म में तत्पर।।
शची प्रभू को गोद, ले स्त्रीलिंग छेदा।
जन्म महोत्सव देव, करके भव दुख भेदा।।2।।
ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाप्रतिपदायां श्रीपुष्पदंतनाथजिनजन्मकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

उल्का गिरते देख, प्रभु विरक्त अपराण्हे।
मगसिर शुक्ला एक, तप लक्ष्मी को वरने।।
पालकि रविप्रभ बैठ, पुष्पकवन में पहुंचे।
जजूं आज शिर टेक, तपकल्याणक हित मैं।।3।।
ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाप्रतिपदायां श्रीपुष्पदंतनाथजिननदीक्र्षाकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

कार्तिक शुक्ला दूज, सांय पुष्पक वन में।
घाति कर्म से छूट, नागवृक्ष के तल में।।
केवल रवि प्रगटाया, समवसरण में तिष्ठे।
स्वात्म निधी मिल जाय, इसीलिए हम पूजें।।4।।
ऊँ ह्रीं कार्तिकशुक्लाद्वितीयायां श्रीपुष्पदंतनाथजिनकेवलज्ञार्नकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

भादों शुक्ला आठ, सायं सहस मुनी ले।
सकल कर्म को काट, गिरि सम्मेद शिखर से।।
पुष्पदंत भगवंत, सिद्धिरमा के स्वामी।
जजत मिले भव अंत, बनूं स्वात्म विश्रामी।।5।।
ऊँ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाअष्टम्यां श्रीपुष्पदंतनाथमोक्षकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-

पुष्पदंत जिननाथ की, भक्ति भवोदधि सेतु।
पूर्ण अघ्र्य अर्पण करूं, पूजा शिवसुख हेतु।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथ पंचकल्याणकाय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य - ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला

-सोरठा-

त्रिभुवन तिलक महान्, पुष्पदंत तीर्थेश हैं।
नित्य करूं गुणगान, पाऊं भेद विज्ञान मैं।।1।।

-रोला छंद-

अहो! जिनेश्वर देव! सोलह भावन भाया।
प्रकृती अतिशय पुण्य, तीर्थंकर उपजाया।।
पंचकल्याणक ईश, हो असंख्य जन तारे।
त्रिभुवन पति नत शीश, कर्म कलंक निवारें।।2।।

नाममंत्र भी आप, सर्वमनोरथ पूरे।
जो नित करते जाप, सर्व विघ्न को चूरें।।
तुम वंदत तत्काल, रोग समूल हरे हैं।
पूजन करके भव्य, शोक निमूल करे हैं।।3।।

इन्द्रिय बल उच्छ्वास, आयू प्राण कहाते।
ये पुद्गल पर परसंग, इनको जीव धराते।।
ये व्यवहारिक प्राण, इन बिन मरण कहावे।
सब संसारी जी इनसे जन्म धरावें।।5।।

निश्चयनय से एक, प्रण चेतना जाना।
इनका मरण न होय,यह निश्चय मन ठाना।।
यही प्राण मुझ पास, शाश्वत काल रहेगा।
शुद्ध चेतना प्राण, सर्व शरीर दहेगा।।5।।

कब ऐसी गति होय, पुद्गल प्राण नशाऊं।
ज्ञानदर्शमय शुद्ध, प्राण चेतना पाऊ।।
ज्ञान चेतना पूर्ण कर, तन्मय हो जाऊं।
दश प्राणों को नाश्ज्ञ, ज्ञानमती बन जाऊं।।6।।

गुण अनंत भवंत, तब हों प्रगट हमारे।
जब हो तनु का अंत, यह जिनवचन उचारें।।
समवसरण में आप, दिव्यध्वनी से जन को।
करते हैं निष्पाप, नमूं नमूं नित तुम को।।7।।

श्रीविदर्भमुनि आदि, अट्ठासी गणधर थे।
दोय लाख मुनि नाथ, नग्न दिगम्बर गुरू थे।।
घोषार्या सुप्रधान, आर्यिकाओं की गणिनी।
त्रय लख अस्सी सहस, आर्यिकाएं गुणश्रमणी।।8।।

दोय लाख जिनभक्त, श्रावक अणुव्रती थे।
पांच लाख सम्यक्त्व सहित श्राविका तिष्श्ठे।।
जिन भक्ति वर तीर्थ, उसमें स्नान किया था।
भवन अनंत के पाप, धो मन शुद्ध किया था।।9।।

चार शतक कर तुंग, चंद्र सदृश तनु सुंदर।
दोय लाख पूर्वायु, वर्ष आयु थी मनहर।।
चिन्ह मगर से नाथ, सब भविजन पहचाने।
नमूं नमूं नत माथ, गुरूओं के गुरू माने।।10।।

-दोहा-

ध्यानामृत पीकर भये, मृत्युंजय प्रभु आप।
धन्य घड़ी प्रभु भक्ति की, जजत मिटे भव ताप।।11।।
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

-सोरठा-

प्रभु मैं याचूं आज, जब तक मुक्ति नहीं मिले।
भव भव में संन्यास, सम्यग्ज्ञानमती सहित।।1।।

।।इत्याशीर्वाद।।