भगवान श्री अभिनंदन जिनपूजा
-अथस्थापन-नरेन्द्र छंद-

श्री अभनंदन जिन तीर्थंकर, त्रिभूवन आनंदकारी।
तिष्ठ रहें त्रैलोक्य शिखर पर, रत्नत्रय निधिधारी।।
परमानंद सुधारस स्वादी, मुनिवर तुम को ध्याते।
आह्वानन कर तुम्हें बुलाऊं, पूजूं मन हर्षाके।।

ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अथ अष्टक-स्रग्विणी छंद-

पद्म सरोवर का जल लेकर, कंचन झारी भरिये।
तीर्थंकर पदधारा देकर, जन्म मरण को हरिये।।
अभिनंदन जिन चरण कमल को, पजूं मन वच तन से।
परमानंद सुखास्पद पाऊं, छूटूं भव भव दुःख से।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

मलयागिरि चंदन काश्मीरी, केशर संग घिसायो।
जिनवर चरण सरोरूह चर्चत, अतिशय पुण्य कमाओ।।
अभिनंदन जिन चरण कमल को, पजूं मन वच तन से।
परमानंद सुखास्पद पाऊं, छूटूं भव भव दुःख से।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

मोतीसम तंदुल उज्ज्वल ले, धोकर थाल भराऊं।
जिनवर आगे पुंज चढ़ाकर, अक्षय सुख को पाऊं।।
अभिनंदन जिन चरण कमल को, पजूं मन वच तन से।
परमानंद सुखास्पद पाऊं, छूटूं भव भव दुःख से।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

चंपा हरसिंगार चमेली, माला गूंथ बनाई।
तीर्थंकर पद कमल चढ़ाकर, काम व्यथा विनशाई।।
अभिनंदन जिन चरण कमल को, पजूं मन वच तन से।
परमानंद सुखास्पद पाऊं, छूटूं भव भव दुःख से।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

फेनी गुझिया पूरण पोली, बरफी और समोसे।
प्रभु के सन्मुख अर्पण करते, क्षुधा डाकिनी नाशे।।
अभिनंदन जिन चरण कमल को, पजूं मन वच तन से।
परमानंद सुखास्पद पाऊं, छूटूं भव भव दुःख से।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय क्ष्ज्ञुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

रत्नदीप की ज्योती जगमग, करती तिमिर विनाशे।
प्रभु तुम सन्मुख आरति करते, ज्ञान ज्योति परकाशे।।
अभिनंदन जिन चरण कमल को, पजूं मन वच तन से।
परमानंद सुखास्पद पाऊं, छूटूं भव भव दुःख से।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

धूप दशांगी धूपघटों में, खेवत उठे सुगंधी।
पापपुंज जलते इक क्षण में, फैले सुयश सुगंधी।।
अभिनंदन जिन चरण कमल को, पजूं मन वच तन से।
परमानंद सुखास्पद पाऊं, छूटूं भव भव दुःख से।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

सेव अनार आम सीताफल, ताजे सरस फलों से।
पूजूं चरण कमल जिनवर के, मिले मोक्ष फल सुख से।।
अभिनंदन जिन चरण कमल को, पजूं मन वच तन से।
परमानंद सुखास्पद पाऊं, छूटूं भव भव दुःख से।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

जल फल अर्घ सजाकर उसमें, चांदी पुष्प मिलाऊं।
’ज्ञानमती’ कैवल्य हेतु मैं, प्रभु को अघ्र्य चढऊं।।
अभिनंदन जिन चरण कमल को, पजूं मन वच तन से।
परमानंद सुखास्पद पाऊं, छूटूं भव भव दुःख से।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-सोरठा-

नाथ! पाद पंकेज, जल से त्रय धारा करूं।
अतिशय शांती हेत, शांतीधारा विश्व में।।10।।
शांतये शांतिधारा।

हरसिंगार गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूं।
मिले आत्म सुख लाभ, जिनपद पंकज पूजते।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।

-अथस्थापन-नरेन्द्र छंद-
पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल पर पांच अघ्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।

-नरेन्द्र छंद-
पूरी अयोध्या में सिद्धार्था, माता के आंगन में।
रत्न बसरते पिता स्वयंवर, बांट रहे जनज न में।।
मास श्रेष्ठ वैशाख शुक्ल की, षष्ठी गर्भ कल्याणक।
इन्द्र महोत्सव करते मिलकर, जजें गर्भ कल्याणक।।1।।
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लाषष्ठयां श्रीअभिनंदनजिनगर्भकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

ऐरावत हाथी पर चढ़कर, इन्द्र शची सह आये।
जिन बालक को गोदी में लें, सुरगिरि पर ले जायें।।
माघ शुक्ल द्वादश तिथि उत्तम, जन्म महोत्सव करते।
जिनवर जन्म कल्याणक पूजत, हम भवदधि से तरते।।2।।
ऊँ ह्रीं माघशुक्लाद्वादश्यां श्रीअभिनंदनजिनजन्मकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सुंदर नगर मेघ का विनाश, देख प्रभू वैरागी।
लौकांिितक सुर स्तुति करते, प्रभु गुण में अनुरागी।।
हस्तचित्र पालकि में प्रभु को, बिठा अग्रवन पहुंचे।
माघ शुक्ल बारस दीक्षा ली, बेला कर प्रभु तिष्ठे।।3।।
ऊँ ह्रीं मघशुक्लाद्वादश्यां श्रीअभिनंदनजिनदीक्षाकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

पौष शुक्ल चैदश तिथि जिनवर, असनवृक्ष तलातिष्ठे।
बेला करके शुक्ल ध्यान में, घातियाकर्म रिपु दग्धे।
केवलज्ञान ज्योति जगते ही, समवसरण की रचना।
अर्घ चढ़ाकर पूजत ही मैं, झट पाऊं सुख अपना।।4।।
ऊँ ह्रीं पौषशुक्लाचतुर्दश्यां श्रीअभिनंदनजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

प्रभु सम्मेदशिखर पर पहुंचे, योग निरोध किया जब।
तिथि वैशाख शुक्ल षष्ठी के, निज शिवधाम लिया तब।।
इन्द्र सभी मिल मोक्ष कल्याणक, पूजा किया रूची से।
अभिनन्दन जिन निर्वाण कल्याणक, जजूं यहां भक्ति से।।5।।
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लाषष्ठयां श्रीअभिनंदनजिनमोक्षकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-

अभिनंदन जिनपदकमल, निजानंद दातार।
पूर्ण अघ्र्य अपर्ण करत, मिले भवोदधि पार।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथ पंचकल्याणकाय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य - ऊँ ह्रीं श्री अभिनंदनजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला

दोहा- गणपति नरपति सुरपती, खगपति रूचि मन धार।
अभिनंदन प्रभु आपके, गाते गुण अविकार।।1।।

-शेर छंद-

जय जय जिनेन्द्र आपने जब जन्म था लिया।
इन्द्रों के भी आसन कंपे आश्चय हो गया।।
सुरपति स्वयं आसन से उतर सात पग चले।
मस्तक झुका के नाथ चरण वंदना करें।।2।।

प्रभु आपका जन्माभिषेक इन्द्र ने किया।
सुरगण असंख्य भक्ति से आनंदरस लिया।।
तब इन्द्र ने ’’अभिनंदन’’ यह नाम रख दिया।
त्रिभुवन में भी आनंद ही आनंद छा गया।।3।।

प्रभु गर्भ में भी तीन ज्ञान थे तुम्हारे ही।
दीक्षा लिया तत्क्षण भी मनःपर्यज्ञान भी।।
छद्मस्थ में अठरा बरस ही मौन से रहे।
हो केवली फिर सर्व को उपदेश दे रहे।।4।।

गणधर प्रभू थे वज्रनाभि समवसरण में।
सब इक सौ तीन गणधर थे सब ऋद्धियां उनमें।।
थे तीन लाख मुनिवर ये सात भेद युत।
ये तीन रत्न धारी, निग्र्रथ वेष युत।।5।।

गणिनी श्री मेरूषेणा आर्या शिरोमणी।
त्रय लाख तीस सहस छह सौ आर्यिका भणी।।
थे तीन लाख श्रावक, पण लक्ष श्राविका।
चतुसंघ ने था पा लिया भव सिंधु की नौका।।6।।

सब देव देवियां असंख्य थे वहां तभी।
तिर्यंच भी संख्यात थे सम्यक्त्व युक्त भी।।
सबने जिनेन्द्र वच पियूष पान किया था।
संसार जलधि तिरने को सीख लिया था।।7।।

इक्ष्वाकुवंश भास्कार कपि चिन्ह को धरें।
प्रभु तीन सौ पचास धनु तुंग तन धरें।।
पचास लाख पूर्व वर्ष आयु आपकी।
कांचनद्युती जिनराज थे सुंदर अपूर्व ही।।18।।

तन भी पवित्र आपका सुद्रव्य कहाया।
शुभ ही सभी परमाणुओं से प्रकृति बनाया।।
तुम दे हके आकार वर्ण गंध आदि की।
पूजा करें वे धन्य मनुज जन्म धरें भी।।9।।

प्रभु देह रहित आप निराकार कहाये।
वर्णादि रहित नाथ! ज्ञानदेह धराये।।
परिपूर्ण शुद्ध बुद्ध सिद्ध परम आत्मा।
हो ’ज्ञानमती’ शुद्ध बनूं शुद्ध आतमा।।10।।

-दोहा-

पुण्य राशि औ पुण्य फल, तीर्थंकर भगवान्।
स्वातम पावन हेतु मैं, नमूं नमूं सुखदान।।11।।
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदनजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

-सोरठा-

अभिनंदन जिनराज, तीर्थंकर चैथे कहे।
नमूं स्वात्म हित काज, सकल दुःख दारिद हरूं।।1।।

।।इत्याशीर्वाद।।