वर्णी जी कहने लगे माताजी आप झूठ बोलना कब से सीख गयीं? धर्ममाता चिरौंजाबाई क्या बोलती हैं? बेटा, एक बात बता कि स्वाध्याय करने में किस चीज का ज्ञान होता है? हेय को छोड़ना और उपादेय को ग्रहण करना। स्वाध्याय हमें यही बताता है कि जो गलत है उसे छोड़ो, और जो सही है उसे ग्रहण करो। हम गेहूँ को अपनी तरफ ला रहे हैं और कचरे को बाहर फैक रहे हैं। इसका नाम ही तो स्वाध्याय हैं जो गेहूँ उपादेय है, उसको हम अपनी तरफ ला रहे हैं और जो कचरा हेय है उसे हम बाहर की तरफ पेंâक रहे हैं। हमारे जीवन की हर चर्या स्वाध्याय हो सकती है। यह मत समझना कि हम घण्टों ग्रंथ पढ़ते रहें, पन्ना पलटते रहें तो इसका नाम स्वाध्याय हुआ।
यदि आपके विवेक में यह जागृति आ जाए कि हमें पानी को दोहरे छन्ने में छानकर पीना है तो जहाँ पर आप छना पानी पी रहे हैं तो वहाँ पर भी आप स्वाध्याय कर रहे हैं। क्योंकि आप जिनेन्द्र भगवान की वाणी का परिपालन कर रहे हैं। जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि पानी छानकर पीना चाहिये। यह स्वाध्याय है जीता जागता स्वध्याय है। यदि आप दिन में भोजन कर रहे हैं तो आप स्वाध्याय कर रहे हैं क्योंकि आप जिनेन्द्र भगवान की वाणी का परिपालन कर रहे हैं। जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि दिन में भोजन करना चाहिये, यह स्वाध्याय है। आप यदि दुकान पर बैठे हैं और ईमानदारी से कमा रहे हैं और आपकी अन्तरात्मा कह रही है कि हमें मिलावट नहीं करनी है, ईमानदारी से इतने प्रतिशत ही लेना है तो वहाँ पर भी बैठकर आप स्वाध्याय कर रहे हैं।
स्वाध्याय केवल किताबें पढ़ने से नहीं होता है। स्वाध्याय की घण्टों चर्चा की, घर में जाकर जरा सा नमक कम हुआ तो घरवाली को हजारों गालियाँ सुना डालीं। आचार्य ने इसका नाम स्वाध्याय नहीं बताया है। जहाँ समत्व परिणाम की अनुभूति हो, उसका नाम स्वाध्याय है। जहाँ सुख—दुख एक से दिखें, उस स्थिति में जाकर स्वाध्याय की परणति बनती है। अपनी आत्मा को सम्यज्ञान से सुशोभित करना स्वाध्याय है। पग—पग पर हमें जो पापों का बोध कराये वहीं स्वाध्याय है, और ऐसे ज्ञान की आराधना करना ही स्वाध्याय है। बस, पोथी पढ़ ली, ग्रंथों के नाम पढ़ लिये, पेज नम्बर, लाइन नम्बर। कोई समझे, वाह! कितना विद्वान है? लम्बे चौड़े स्वाध्याय करने की कोई जरूरत नहीं है।
यदि आपको भक्ष्य—अभक्ष्य का विवेक आ जाये, वहाँ पर भी आपका स्वाध्याय जाग्रत हो गया। किसी को जीव रक्षा का भाव आ गया तो वहाँ पर भी स्वाध्याय शुरु हो गया। आप अपने दायित्व को पूरा कर रहे हैं, आप अपने दैनिक कत्र्तव्यों का पालन कर रहे हैं, वहाँ पर भी आप अपना स्वाध्याय कर रहे हैं। समय से आप ऑफिस जा रहे हैं, वहाँ भी आप स्वाध्याय कर रहे हैं, आप अपने समय से हर क्रिया का परिपालन कर रहे हैं तो स्वाध्याय बहुत बड़ी चीज नहीं है। लेकिन वह अवतरित होना चाहिए। स्वाध्याय के माध्यम से जो हमारे अन्दर ज्ञान उद्भूत होता है, वह चारित्र में ढलना चाहिये, तब वह स्वाध्याय है।
‘स्व आत्मने अध्येति इति स्वाध्याय’’'
जहाँ हम आत्मा के निकट रहकर अपना अध्ययन करते हैं उसका नाम है स्वाध्याय। जहाँ हमारी चेतना, सचेत और सावधान रहे, वहीं स्वाध्याय है। जहाँ हमें अपने मन और बुद्धि से हटकर अन्तरात्मा का भाव सुनाई देने लग जाये, वहीं स्वाध्याय हैं पुस्तक तो माध्यम है अपनी तरफ आने का, पुस्तक हमें संकेत देती है। पत्थर है, आप इस रास्ते से जाईये, संकेत है। जाओगे तो पाओगे, नहीं तो खड़े—खड़े पछताओगे। अत: स्वाध्याय करना चाहिये।
लेकिन सबसे पहले आप प्रथमानुयोग को पढ़िये, महापुरुषों के जीवन चरित्र को पढ़िये। आपकी आधे से ज्यादा दुविधायें तो वहीं पर समाप्त हो जायेगी। जो मानसिक विकृतियाँ उद्भूत हो रही है आप अपनी खोई हुई शक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, चारों अनुयोगों के अन्दर अपनी चेतना को मांजो।
लेकिन सबसे पहले प्रथमानुयोग के दौर से गुजरो। प्रथमानुयोग हमारा जितना परिपक्व होगा, उतना ही हमारी अनुभूतियाँ परिपक्व होंगी और यदि केवल एक ही अनुयोग को पकड़े बैठे रहे हैं कि आत्मा, आत्मा, आत्मा तो आत्मा इतनी सस्ती चीज नहीं है जो ऐसे ही मिल जाएगी आत्मा का गुणानुवाद करना, आत्मा की बात करना और आत्मा से बात करना जमीन आसमान का अन्तर है।
एक विद्वान थे जो विशेष रूप से आत्मा का ही गुणानुवाद करते थे। आचार्य क्या कहते हैं, ‘‘अदु:खतं भावितं ज्ञानं क्षीयते दु:ख सन्निधौ’ यदि आपकी मिलिट्री (सैनिक) भोजन करते रहे और जंगलों में पड़े रहे, अभ्यास नहीं करे। और जब लड़ाई का समय आये तो क्या युद्धजीत पायेंगे? नहीं जीत पायेंगे युद्ध। सुखी जीवन में किया गया तत्त्व का अभ्यास दु:ख आने पर पलायमान हो जाता है खूँटी पर टँग जाता है। इसलिये इतनी बात होती है तो हम लोग फालतू थोड़े ही थे, घर में मौज मारते, आत्मा—आत्मा चिल्लाते कोई दिक्कत थी क्या? लेकिन उस आत्मा को पाने के लिये दु:ख—सुख सबकी अनुभूतियाँ करते हैं। उसे मांजते हैं कि आत्मा का समत्व तो आ जाए। विपरीत परिस्थितियाँ जुड़ती हैं कि जीवन से जब बौखलाहट उत्पन्न होती है, तब उस समत्व को पाना, कषाय का शमन करना है। मैं ऐसे विद्वान की बात कर रहा था जो आत्मा, आत्मा आत्मा चिल्लाते थे। हाय! मेरी प्यारी आत्मा! प्रभु आत्मा, प्रभु आत्मा! उसके बिना उनका काम नहीं चलता था। एक बार उनको फोड़ा हो गया और जब फोड़ा हुआ तो भाई उसकी चीरा—फाड़ी हुई, डॉक्टर ने क्या किया कि उसको मसक दिया तो वह कहने लगे हाय! मरा! एक कोई खड़ा था। वह व्यक्ति कहने लगा कि आत्मा तो मरती नहीं है। पण्डित जी कहते हैं भाड़ में गयी वह आत्मा, अभी तो मैं मरा जा रहा हूँ।
जरा सोचिये, विचारिये जिस आत्मा के व्यक्ति ने जीवन भर गीत गाये और उस आत्मा को एक सेकेण्ड नहीं लगा, भाड़ में डाल दिय। बताईये, आप तो हमारी आत्मा से हमें कितना प्यार है? बन्दरिया जैसा। सच्चा प्यार चिड़िया का और झूठा प्यार बन्दरिया का। चिड़िया का प्यार सच्चा होता है? मालूम है आपको बरसात के दिनों में दाना—चुग कर लाती है । जब उसका बच्चा छोटा होता है तो वह अपने मुँह से चुगाती है। और बन्दरिया का प्यार देखो, अगर आप बच्चे को खाने को दोगे तो तो उस बच्चे से छुड़ाकर खा लेगी और बन्दर की एक और विशेषता है कि उसका बच्चा मर जाए तो उसे लिये—लिये घूमेगी। कितना प्यार है, एक प्रेक्टीकल करके देखो। बन्दरिया को पानी के अन्दर डालो और पानी का स्तर धीरे धीरे बढ़ाओं तो जब तक पानी का स्तर गर्दन तक आयेगा, तब तक अपने बच्चे को ऊपर बैठायेगी और जैसे ही पानी का स्तर बढ़ा , वैसे ही अपने बच्चे को दोनों हाथों से नीचे डाल देती है और उसके ऊपर खड़ी हो जाती है बन्दरिया।
ऐसा ही हमारा हाल है। जब दु:ख पड़ेगा तो भाड़ में डाल देंगे आत्मा को। शरीर के प्रति मोह जाग्रत हो जायेगा कि हमारा शरीर बचना चाहिये। सम्यक् दृष्टि को शरीर से मोह नहीं होता है। वर्णी जी को, आचार्य वीर सागर महाराज जी, कुन्थु सागर महाराज जी जो अभी फिरोजाबाद में समाधिस्थ हुये हैं उनको फोड़ा हो गया था जाँघ के अन्दर। पूरी जाँघ पोली हो गई । डॉक्टर लोग पूरी सलाइ डाल—डाल कर निकालते थे मवाद । उनके चेहरे पर वह खुशी, वह मुस्कान, आत्मा, अलग है और शरीर अलग है क्योंकि उन्होंने उसे दु:ख के माध्यम से प्राप्त किया है।
ध्यान रखना, जो आदमी अपने जीवन में बड़ी मेहनत से कमाता है, उसको पैसे जाने में बड़ी तकतीफ होती है कि मेरा पैसा जा रहा है और जो हराम की मिली हुयी है, हराम जैसा ही खाता है, उसको दु:ख दर्द नहीं होता है। जो अपनी आत्मा को कष्ट सहन करके प्राप्त करेगा, वह अपनी आत्मा के अन्दर विकारों को घुसने नहीं देगा कि मैंने बड़ी मेहनत से इसे प्राप्त किया है। अगर ऐसे ही मुफ्त में आत्म मिल गयी तो उसे खिलाये जाओ, पिलाये जाओ।
स्वाध्याय हमें अपनी तरफ आने का संकेत देता है । स्वाध्याय हमारी अन्तरंग परणति को जाग्रत करने की भूमि है। हमारा यथार्थ आन्तरिक का दर्पण है। हमारी जिन्दगी भी दैनिक परिचर्यायें हैं वह सभी स्वाध्याय पर टिकी हुयी है। विश्व की जितनी भी सोने से लेकर जागने तक और जागने से लेकर सोने तक क्रियाओं का हर प्रकार का ज्ञान हमें स्वाध्याय के माध्यम से होता है। अपने जीवन को किस प्रकार से जियें यह भी हमें स्वाध्याय से मिलता है। हर परिस्थिति का सामना किस प्रकार से करें ? किस प्रकार से उन लोगों ने किया है, यह सभी फार्मूले हमें मिलते हैं । तो स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। स्वाध्याय जैसी विधि और और सस्ती चीज कोई नहीं है थोड़ी सी अन्य चीजें छोड़ करके। चार ग्रन्थों का अपने अन्दर स्वाध्याय कर लो। इससे ज्यादा हम कुछ नहीं कहेंगें।
एक बात और कह देते हैं, मन्दिर जी बने चित्रों को भी देखने में स्वाध्याय होता है। क्योंकि इन चित्रों की भाषा अनपढ़ भी पढ़ लेते हैं। अत: मन्दिरों में चित्र बनाने की परम्परा बहुत प्राचीन है। आप प्रतिदिन उन चित्रों को देखें, और चिन्तन करें। संसार वृक्ष, षट्लेश्या दर्शन आदि के एक—एक चित्र ही पूरे शास्त्र का सार समझा देते हैं। अत: इन चित्रों के देखने से भी स्वाध्याय होता है।
इसी के साथ मन्दिर जी में लिखे आगम—श्लोक, नीतिवाक्य, दोहे आदि पढ़ने से भी स्वाध्याय होता है। अत: येनकेन प्रकारेण स्वाध्याय करते ही रहना चाहिए।स्वाध्याय - Svaadhyaaya. Thorough spiritual study & contemplation.
आत्मरहित की भावना से सत् शास्त्र का वाचन, मनन या उपदेष आदि देना स्वाध्याय है अथवा आलस्य छोड़कर ज्ञान की आराधना मे तत्पर रहना स्वाध्याय नाम का तप है। इसके वाचना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, धर्मोंपदेश 5 भेद है।