सुधी श्रावक को रात्रि में उक्त चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अनिवार्य है, तभी वह रात्रि भोजन का त्यागी कहलाएगा अन्यथा नहीं। जो चारों प्रकार के आहार का त्याग करने में असमर्थ हैं उन्हें अपनी शक्ति के अनुसार 1, 2, 3, 4 आदि प्रकार के आहार का रात्रि के लिए अवश्य ही त्याग करना चाहिए। यह भी श्रावक का छटवां अनिवार्य मूल गुण है। रात्रि में चारों प्रकार के भोजन का त्याग करने वाले सुधी श्रावक को 1 वर्ष में 6 माह के उपवास करने के बराबर पुण्र्याजन होता है।
(छने हुए प्रासुक जल का प्रयोग करना) अनछने जल की एक बूंद में जैनागमानुसार असंख्यात जीव होते हैं। वे जीव यदि अपना आकार कबूतर के बराबर कर लें तो तीनों लोकों में भी न समयें ऐसा कुछ मनीषियों का कहना हैएवं वैज्ञानिकों के द्वारा भी अनछने जल की 1 बूंद में 36450 जीव सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखे गये हैं। अतः अहिंसा धर्म का पालन करने हेतु प्रत्येक सुधी श्रावक को पानी खादी या लट्टा के मोटे कपड़े से (जिस कपड़े में सूर्य की किरण सीधी पार न हो) छानना चाहिए वह भी दुहरे कपड़े से छानें। पुनः उस विलछानी को कड़ेदार बाल्टी से उसी कुंए, नदी, झील आदि में पानी की तरह पर धीरे से छोड़े जिससे जीव घात न हो। कपड़े का विस्तार बर्तन के मुख से तिगुना लम्बा, दुगना चैड़ा हो जिससे पानी छानने में बाध न हों ‘देवसेन’ आदि अनेकों आचार्यों ने कहा है कि पानी का प्रयोग उसी प्रकार मितव्ययता के साथ करें जिस प्रकार दूध, घी आदि काप्रयोग किया जाता है। छने हुए जल की मर्यादा अन्तर्मुहूर्त (2 घड़ी 48 मिनट) के पूर्व तक ही है। दो घ्ज्ञडत्री बाद जब-जब जल प्रयोग करें तो जल पुनः छानना चाहिए।
दया, करूणा, अनुकम्पा, अहिंसा, रहम इत्यादि शब्द कथंचित एकार्थवाची हैं। दया को ही आचार्यों ने धर्म कहा है। अहिंसा के अभाव में धर्म का अस्तित्व ही नहीं रहता। अहिंसा ही परम धर्म है, विश्व शांति का कारण है, स्वपर कल्याण की आधार शिला है। अहिंसा किसी सम्प्रदाय, पंथ, आम्नाय, संस्थ द्वारा उद्घोषित धर्म नहीं है, अपितु सार्वजनिक, सार्वभौमिक, प्राणी मात्र के कल्याण करने में सक्षम प्रत्येक तीर्थंकर, परमात्मा, ऋषि, मुनि संतों व आचार्यों भगवंतों द्वारा प्रतिपादित है। जिस प्रकार तुम्हें अपने प्राण प्रिय हैं उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी को अपनेप्राण प्रिय हैं। कोई भी अपने प्राणों के बदले तीन लोकों की सम्पत्ति भी लेना स्वीकार नहीं करेगा। इससे सिद्ध होता है कि अहिंसा की कीमत तीन लोक की विभूति से भी अधिक है। जहां-जहां हिंसा विद्यमान है वहां वहा अशांति, दुख, कलह, क्रूरताएं, तानाशाही, भुखमरी, अकाल, महामारी, वैमनस्यताएं, लड़ाई-झगड़े, संक्लेशताएं एवं अराजकता का ही साम्राज्य होता है। हिंसा का ताण्डव नृत्य प्रलय का ही उद्घोषक है वहां निर्भयता नहीं रह सकती। आगम में हिंसा के मुख्य 4 भेद किये है -
1. संकल्पी हिंसा - संकल्प पूर्वक जीवघात करना संकल्पी हिंसा है।
2. उद्योगी हिंसा - व्यापार उद्योग धन्धें के माध्यम से की हुई हिंसा उद्योगी हिंसा है।
3. आरंभी हिंसा - रसोई बनाना, झाडू लगाना, पानी भरना, वस्त्रों को धोना, गृह सफाई करना, चक्की चलाना अत्यादि आरंभ करने में जो हिंसा होती है उसे आरंभी हिंसा कहते हैं।
4. विरोधी हिंसा - सच्चे देव, शास्त्र, गुरू, धर्म, परिवार वार साधर्मी जनों की रक्षा करने में जो हिंसा होती है वह विरोधी हिंसा है। श्रावक को संकल्पी हिंसा का त्याग जो अनिवार्य ही है तथा यथाशक्य उद्योगी, आरंभी, विरोधी हिंसा का भी त्याग करना चाहिए। जगज्जननी, विश्व कल्याणी, उस परम पुनीता अहिंसा की शरण में ही आत्म कल्याण के इच्छुक को आ जाना चाहिए। बारे में विशेष जानकारी अष्टमूलगुण प्रकरन में देख सकते हैं।