।। निर्जराभावना ।।
’’मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय।
तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु।।412।।

हे आत्मन! तू आपने आपको मोक्षमार्ग में स्थापित कर, उसी का अनुभव कर, उसी का ध्यान कर और उसी में निरंतर विहार कर; अन्य द्रव्यों में विहार मत कर।’’

तात्पर्य यह है कि जमने योग्य, रमने योग्य, अनुभव करने योग्कय, ध्यान करने योग्य और विहार करने योग्य एकमात्र मोक्षमार्गरूप संवर और निर्जरा तत्व ही हैं।

इसी बात को आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार कहते हैं -

’’एको मोक्षपथो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्यात्मक -
स्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति।
तस्मिन्नेव निरंतरं विहरति द्रव्यांतराण्यस्पृशन्
सोय्वश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विंदति।।1

दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक एक ही मोक्षमार्ग है। जो पुरूष (पुरूषार्थी जीव) उक्त मोक्षमार्ग (मोक्षमार्ग के आधारभूत शुद्धात्मा) में ही स्थिर रहता है, निरंतर उसी का ध्यान करता है, उसी को चेतता है, उसी का अनुभव करता है, अन्य द्रव्यों का स्पर्श भी न करता हुआ निरंतर उसी में विहार करता है; ह पुरूष नित्योदित समयसार (शुद्धात्मा) को अल्पकाल में अवश्य ही प्राप्त करता है।’’

यहां एक प्रश्न संभव है कि संवर भावना में तो यह कहा गया था कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के मोक्षमार्गरूप निर्मलभाव भी ध्यये नहीं हैं, श्रद्धेय नहीं हैं, परमज्ञेय भी नहीं हैं, अराध्य भी नहीं हैं; आराध्य तो अनंत गुणों का अखण्ड पिण्ड एक चैतन्यस्वभावी निजात्मत्व ही है और यहां यह कहा जा रहा है कि तू अपने को मोक्षमार्ग में स्थापित कर, उसी अनुभव कर, उसी का ध्यान कर, उसी में निरंतर विहार कर, अन्य द्रव्यों में विहार मत कर।

माई! दोनों कथानों में कोई विरोध नहीं है, दोनों का भाव एक ही है। उक्त सन्दर्भ में समयसार की निम्नांकित गाथा मननीय है -

’’दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।
ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो।।16।।

साधुपुरूषों को दर्शन-ज्ञान-चारित्र का नित्य सेवन करना चाहिए; क्योंकि निश्चय से तीनों को आत्मा ही जानो।’’

वस्तुतः बात यह है कि उक्त कथनों में मात्र निश्चय-व्यवहार का कथनभेद है, क्रियात्मक अन्तर रंचमात्र भी नहीं है; क्योंकि आत्मा की आराधना का नाम ही दर्शन-ज्ञान-चारित्र है। अतः चाहे ऐसा कहो कि आत्मा की आराधना करो या यह करो कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करो - एक ही बात है।

उक्त गाथा की टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र इस बात को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं -

’’यह आत्मा जिस भाव से साध्य तथा साधन हो, उस भाव से ही नित्य सेवन करने योग्य है - इसप्रकार स्वयं विचार करके दूसरों को व्यवहार से समझाते हैं कि साधु पुरूष को दर्शन-ज्ञान-चारित्र सदा सेवन करने योगय हैं; किन्तु परमार्थ से देखा जाय तो ये तीनों एक आत्मा ही हैं; क्योंकि ये आत्मा से अन्य वस्तु नहीं हैं। अतः यह स्वतःसिद्ध है कि एक आत्मा ही सेवन करने योग्य है।’’

आचार्य अमृतचन्द्र के उक्त कथन में एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि ज्ञानीजन स्वयं तो ऐसा विचार करते हैं कि सर्वप्रकार से एक आत्मा ही नित्य सेवन करने योग्य है; किंु इसी बात को दूसरों को इस प्रकार समझाते है कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही सदा सेवन करने योग्य हैं।

इस कथन के रहस्य को न समझ पाने के कारण कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि यह क्या बात हुई? क्या मुक्ति में भी ’हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और’ वाली बात चलती है? क्या आचार्यदेव अपने लिए तो एक आत्मा ही सेवन योग्य मानते हैं और दूसरों के लिए दर्शन-ज्ञान-चारित्र के सेवन करने का उपदेश देते हैं?

पर बात ऐसी नहीं है; क्योंकि जिसे निश्चयनय से आत्मा का सेवन कहते हैं, उसे ही व्यवहारनय से दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन कहा जाता है। स्वयं कानिश्चय निश्चयरूप और उपदेश व्यवहाररूप होने से ही इसप्रकार का प्रयोग हुआ है; मूलतः दोनों कथनों में कोई अन्तर नहीं है, एक ही बात है।

आत्मा का दर्शन, ज्ञान और ध्या नही आत्मा में स्थापित होना है, आत्मा का अनुभव करना है, आत्मा में जमना-रमना है, आत्मा में विहार करना है तथा यही परिणमन मोक्षमार्ग में स्थापित होना है मोक्षमार्ग में विहार करना है; अतः दोनों कथनों के भाव में कोई अन्तर नहीं है। मोक्षमार्ग में स्थापित होने का क्रियात्मकरूप आत्मश्रद्धान, आत्मज्ञान और आत्मचरण (आत्मध्यान) ही है, इससे भिन्न कुछ नहीं।

जब द्रव्यस्वभाव की आरे से बात करते हैं तो उसे आत्मा की आराधना, साधना, उपासना कहते हैं ओर जब पर्यायस्वभाव की ओर से बात करते हैं तो उसी को रत्नत्रय की साधना, आराधना, उपासना या मोक्षमार्ग की साधना, आराधना या उपासना कहा जाता है। ध्येय, श्रद्धेय परमज्ञेयरूप उपास्य - आराध्य तो त्रिकाली धु्रव आत्मा ही है और उसके ध्यान, श्ऱद्धान एवं ज्ञानरूप उपासना-आराधना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग है; अतः चाहे आत्मा की उपासना कहो, चाहे मोक्षमार्ग की उपासना कहो-एक ही बात है।

संवर मोक्षमार्ग का आरम् है और निर्जरा मोक्षमार्ग, अतः संवरपूर्वक निर्जरारूप परिणमन ही मोक्षमार्ग में आरूढत्र होना है। इसी दिशा में निरंतर बढ़ते रहने की भावना ही निर्जराभावना है।

शुद्धोपयोग है स्वरूप जिसका-ऐसी भावनिर्जरारूप परिणमन कर, पूर्णतः स्वात्मनिष्ठ होकर सम्पूर्ण जगत अनन्त-आनन्दरूप मोक्षदशा को प्राप्त करे - इस पावन भावना से विराम लेता हूँ।  

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