।। लोकभावना ।।
’’लोकालोक विचारिकैं, सिद्धस्वरूप चितारि।
राग-विरोध बिडारिकैं, आतमरूप संवारि।।
आतमरूप संवारि मोक्षपुर बसो सदा ही।
आधि-व्याधि जर-मरन आदि दुख है न कदा ही।।
श्रीगुरू शिक्षा धारि टारि अभियान कुशोका।
मन थिर कारन यह विचारि निजरूप सुलोका।।1

लोकालोक के स्वरूप का विचार कर, लोकाग्र में विराजमान सिद्ध के स्वरूप का स्मरण कर, राग-द्वेष को दूर कर आत्मा के स्वरूप को सँवारना ही वास्तविक धर्म है, मोक्ष का मार्ग है। इस मार्ग पर चलनेवाले उस मोक्षपुर में सदा ही निवास करते हैं, जहां न तो आधि (मानसिक क्लेश) है और न व्याधि (शरीरिक रोग)। वहां जन्म-मरण आदि के दुख भी कभी नहीं होते। अतः अभिमान और शोक छोड़कर श्रीगुरू की शिक्षा को धारण करो। मन की स्थिरता का एकमात्र उपाय निजरूप सुन्दर लोक में विचरना ही है अर्थात आत्मा का अनुभव करना ही है; आत्मा का ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान ही है; आत्मा की रमणता ही है।’’

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इसप्रकार हम देखते हैं कि लोकभावना की विषय-वस्तु के विस्तार में जावें तो उसमें लगभग सम्पूर्ण लोकालोक ही समाहित हो जाता है; जो कुछ भी जिनागम में कहा गया है, वह सब कुछ आ जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिनागम में प्रतिपादित सम्पूर्ण विषय-वस्तु के सम्बंध में आत्मानुभवी संत और ज्ञानी श्रवक जो कुछ भी आत्मोन्मुखी चिन्तन करते हैं, वह सब लोकानुप्रेक्षा का ही चिन्तन; पर यह आवश्यक है कि उस चिन्तन की दिशा भेदविज्ञानपरक और वैराग्यप्रेरक होना चाहिए।

ज्ञेयरूप संयोगों, हेयरूप पुण्य-पापास्त्रवों एवं उपादेयरूप संवर-निर्जरा की चर्चा के उपरान्त लोकभावना में -समस्त लोक जिसके ज्ञानदर्पण में प्रतिबिंबित होता है, उस आत्मा का सम्पूर्ण लोक में क्या स्थान है और वह कौन है? -

यह चिन्तन किया जाता है। निजतत्व की तीव्रतम रूचि जागृत करने के लिए निजत्व की मुख्यता से किया गया लोक का चिन्तन ही लोकभावना है।

भावनाओं का स्वरूप और चिन्तन-प्रक्रिया विवेचनात्मक या निरूपणात्मक न होकर वैराग्यप्रेरक एवं आत्मोन्मुखी होने से लोकभावना के संदर्भ में ’लोक’ शब्द का अर्थ ’आत्मा’ भी किया जाता है। जिसमें सम्पूर्ण लोक आलोकित हो - ऐसा आत्मा ही चैतन्यलोक है। लोक शब्द की इसप्रकार की व्याख्याएं भी की जाती रहीं।

भगवती आराधना में इसे सतर्क सिद्ध किया गया है, जो इसप्रकार है -

यद्यप्यनेकप्रकारो लोकस्तथापीह लोकशब्देन जीवद्रव्यं लोक एवोच्यते। कथं? सूत्रेण जीवधर्मप्रवृत्तिक्रमनिरूपणात्।1

यद्यपि लोक अनेकप्रकार का है अर्थात लोक शब्द के अनेक अर्थ होते है; तथापि यहां लोक शब्द से जीवद्रव्य को ही लोक कहा जा रहा है; क्योंकि यहां जीव की धर्मप्रवृत्ति का प्रकरण चल रहा है।’’

वृहद्द्रव्यसंग्रह में व्यवहार-लोकभावना का इकतीस पृष्ठों में निरूपण करने के उपरान्त अंत में निश्चय-लोकभावना का स्वरूप इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -

’’जिसप्रकार दर्पण में प्रतिबिम्ब झलकते हैं; उसीप्रकार आदि, मध्य और अन्त रहित, शुद्ध-बृद्ध स्वभाववाले परमात्मा निर्मल केवलज्ञान में शुद्धात्मा आदि सभी पदार्थ आलोकित होते हैं, दिखाई देते हैं, ज्ञात होते हैं - इसकारण वह आत्मा ही निश्चयलोक है अथवा उस निश्चयलोकरूप निजशुद्धात्मा में अवलोकन ही निश्चयलोक है।

तथा समस्त शुभाशुीा संकलप-विकल्पों के त्यागपूर्वक निजशुद्धात्म भावना से उत्पन्न परमसुखामृतरस के स्वाद के अनुभवरूप, आनन्दरूप जो भावना है; वही निश्चय से लोकभावना है, शेष सब व्यवहार है।2’’

इस प्रकार यह निश्चित होता है कि लोभावना में लोकभावना में लोक के स्वरूप, आकार-प्रकार एवं जीवादि पदार्थो का जो विस्तृत विवेचन किया जाता है; वह सब तो व्यवहार है, निश्चयलोक तो चैतन्यलोक ही है। उस चैतन्यलोक में रमण करना एवं रमण करने की उग्रतम भावना ही निश्चय-लोकभावना है; क्योंकि लोकभावना के चिनतन का असली उद्देश्य तो आत्माराधना ही सफल प्ररेणा ही है।

अतः सभी आत्मार्थीजन षट्द्रव्यमयी लोक को जानकर निज चैतन्यलोक में ही जम जाय, रम जाय और अनन्तसुखी हें - इस पावन भावना से विराम लेता हूँ।  

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