।। जैनम जयतु शासनम ।।
भावों के भेद एवं जिनशासन का महत्त्व कहते हैं -
भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव पायव्वं।
असुहं च अट्टरउद्दं सुह धम्मं जिणवारिंदेहिं।। 76।।

सुद्धं सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं।
इति जिणवरेहिं भणियं जं सेयं तं समायरह।। 77।।

प्यलियमाणकसाओ प्यलियमिच्छत्तमोहसमचित्ते।
पवइ तिहुवणसारं बोही जिणसासणे जीवो ।। 78।।

भावः त्रिविधप्रकारः शुभोऽशुभः शुद्ध एवं ज्ञातव्यः।
अशुभश्च आत्र्तरौद्रं शुभः धम्र्यं जिन्वरेन्द्रैः ।। 76।।

शुद्धः शुद्धस्वभावः आत्मा आत्मनि सः च ज्ञातव्यः।
इति जिनवरैः भणितं यः श्रेयान् तं समाचार।। 77 ।।

प्रगतिलतमानकषायः प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तः ।
आप्नोति त्रिभुवनसारं बोधि जिनशासने जीवः ।। 78 ।।

शुभ अशुभ एवं शुद्ध इस विधि भाव तीन प्रकार के।
रौद्रार्त तो हैं अशुभ किन्तु शुभ धरममय ध्यान है ।। 76 ।।

निज आत्मा का आत्मा में रमण शुद्धस्वभाव है।
जो श्रेष्ठ है वह आचरों जिनदेव का आदेश यह।। 77 ।।

गल गये जिसके मान मिथ्या मोह वह समचित्त ही।
त्रिभुवन में सार ऐसे रत्नत्रय को प्राप्त हो ।। 78 ।।

अर्थात् जिनवरदेव ने भाव तीन प्रकार का कहा है - 1. शुभ, 2. अशुभ और 3. शुद्ध। आत्र्त और रौद्र ये अशुभ ध्यान हैं तथा धर्मध्यान शुभ है।

शुद्ध है वह अपना शुद्ध स्वभाव अपने ही में है, इस प्रकार जिनवरदेव ने कहा है, यह जानकर इनमें जो कल्याण रूप हो, उसको अंगीकार करो।

यह जीवन ‘प्रगलितमानकषायः’ अर्थात् जिसका मानकषाय प्रकर्षता से गल गया है, किसी परद्रव्य से अहंकाररूप गर्व नहीं करता है और जिसके मिथ्यात्व का उदयरूप मोह भी नष्ट हो गया है; इसलिए ‘समचित्त’ है, परद्रव्य में ममकाररूप मिथ्यात्व और इष्ट-अनिष्ट बुद्धिरूप राग-द्वेष जिसके नहीं है, वह जिनशासन में तीन भुवन में सार ऐसी बोधि अर्थात् रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग को पाता है।

भावार्थः भगवान ने भाव तीन प्रकार के कहे हैं - 1. शुभ, 2. अशुभ और शुद्ध। अशुभ तो आत्र्त व रौद्रध्यान हैं, वे तो अति मलिन हैं, त्याज्य ही हैं। धर्मध्यान शुभ है, इस प्रकार यह कथचिंत् उपादेय हैं, इससे मन्दकाषयरूप विशुद्धभाव की प्राप्ति है। शुद्धभाव है, वह सर्वथा उपादेय है, क्योंकि यह आत्मा का स्वरूप ही है। इस प्रकार हेय, उपादेय जानकर त्याग और ग्रहण करना चाहिए; इसलिए ऐसा कहा है कि जो कल्याणकारी हो वह अंगीकार करना, यह जिनदेव का उपदेश है।

मिथ्यात्व भाव और कषायभाव का स्वरूप अन्य मतों में यथार्थ नहीं है। यह कथन इस वीतरागरूप जिनमत में ही है; इसलिए यह जीव मिथ्यात्व-कषाय के अभावरूप तीन लोक में सार मोक्षमार्ग, जिनमत के जीवन ही से पाता है, अन्यत्र नहीं है।