अर्थात् जिनवरदेव ने भाव तीन प्रकार का कहा है - 1. शुभ, 2. अशुभ और 3. शुद्ध। आत्र्त और रौद्र ये अशुभ ध्यान हैं तथा धर्मध्यान शुभ है।
शुद्ध है वह अपना शुद्ध स्वभाव अपने ही में है, इस प्रकार जिनवरदेव ने कहा है, यह जानकर इनमें जो कल्याण रूप हो, उसको अंगीकार करो।
यह जीवन ‘प्रगलितमानकषायः’ अर्थात् जिसका मानकषाय प्रकर्षता से गल गया है, किसी परद्रव्य से अहंकाररूप गर्व नहीं करता है और जिसके मिथ्यात्व का उदयरूप मोह भी नष्ट हो गया है; इसलिए ‘समचित्त’ है, परद्रव्य में ममकाररूप मिथ्यात्व और इष्ट-अनिष्ट बुद्धिरूप राग-द्वेष जिसके नहीं है, वह जिनशासन में तीन भुवन में सार ऐसी बोधि अर्थात् रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग को पाता है।
भावार्थः भगवान ने भाव तीन प्रकार के कहे हैं - 1. शुभ, 2. अशुभ और शुद्ध। अशुभ तो आत्र्त व रौद्रध्यान हैं, वे तो अति मलिन हैं, त्याज्य ही हैं। धर्मध्यान शुभ है, इस प्रकार यह कथचिंत् उपादेय हैं, इससे मन्दकाषयरूप विशुद्धभाव की प्राप्ति है। शुद्धभाव है, वह सर्वथा उपादेय है, क्योंकि यह आत्मा का स्वरूप ही है। इस प्रकार हेय, उपादेय जानकर त्याग और ग्रहण करना चाहिए; इसलिए ऐसा कहा है कि जो कल्याणकारी हो वह अंगीकार करना, यह जिनदेव का उपदेश है।
मिथ्यात्व भाव और कषायभाव का स्वरूप अन्य मतों में यथार्थ नहीं है। यह कथन इस वीतरागरूप जिनमत में ही है; इसलिए यह जीव मिथ्यात्व-कषाय के अभावरूप तीन लोक में सार मोक्षमार्ग, जिनमत के जीवन ही से पाता है, अन्यत्र नहीं है।