।। जैन धर्म के प्रभावक आचार्य ।।

यतिवृषभ: तिलोयपण्णत्ति

शौरसेनी प्राकृत के समर्थ आचार्यों में यतिवृषभ का नाम उल्लेखनीय हैं शौरसेनी प्राकृत के प्रथम ग्रन्थ कसायपाहुड पर चूर्णिसूत्रों की रचना करने वाले यतिवृषभ हैं इनका दूसरा ग्रन्थ तिलोयपण्णति हैं इस ग्रन्थ में जैन भूगोल और जैन संघ्ज्ञ के इतिहास का विस्तृत विवरण है। इसमें कई गाथाएं प्रक्षिप्त भी स्वीकार की गई हैं। यतिवृषभ के समय-निर्धारण में विद्वानों ने पर्याप्त प्रयत्न किया है। उनके अनुसार यतिवृषभ को समय ई. सन् 176 के आस-पास सिद्ध होता है। आचार्य कुन्दकुन्द के बाद इनका समय स्वीकार किया गया है। यतिवृषभ की अब तक दो रचनाएं ही प्राप्त है। उनके आधार पर इन्हें जैन आगम ग्रन्थों का परम ज्ञाता माना जाता है। सातवीं शताब्दी और बाद के विद्वानों ने इनको आदरपूर्वक स्मरण किया हैं इनके गुरूओं में आर्यमंक्षु और नागहिस्त की गणना होती है।

वट्टकेर: मूलाचार

शौरसेनी प्राकृत के प्राचीन आचार्यों में मूलाचार के रचयिता बट्टकेर का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रारम्भ में आचार्य कुन्दकुन्द का ग्रन्थ ही मूलाचार मान लिया गया था क्योंकि बट्टकेर को उनका उपनाम अनुमानित किया गया था किंतु अब विद्वानों ने गहन अध्ययन के बाद यह स्पष्ट कर दिय है कि बट्टकेर स्वतंत्र आचार्य हुए हैं। बट्टकेर का समय आचार्य कुन्दकुन्द के समकालीन स्वीकार किया जाता है। अतः बट्टकेर प्रथम शताब्दी के प्राकृत आचार्य थें इनका ग्रन्थ मूलाचार मुनियों के आचार का प्रमुख ग्रन्थ है। इसमें कुल 1252 गाथाएं हैं। भाषा और शैली की दृष्टि से शौरसेनी प्राकृत की यह प्राचीन रचना है। श्रमणाचार का ग्रन्थ होने के कारण इसमें अनेक गाथाएं दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के साहित्य में प्रचलित मिलती हैं। जैन आचार दर्शन के लिए मूलाचार एक आधारभूत ग्रन्थ हैं।

शिवार्य: भगवती आराधना

शिवकोटि अथवा शिवार्य प्राचीन दिगम्बर आचार्य थे। जिन्होंने भगवती आराधना नामक शौरसेनी प्राकृत ग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थ का नाम आराधना अथवा मूलाराधना भी प्राप्त होता हैं शिवार्य को अनेक दिगम्बर आचार्यों ने आदरपूर्वक स्मरण किया हैं इससे ज्ञात होता है कि शिवार्य और उनका ग्रन्थ दोनों की अच्छी प्रसिद्धि थी। श्री पंडित नाथूराम प्रेमी शिवार्य को यापनीय संघ का आचार्य स्वीकार करते हैं ओर उनके गुरू का नाम सर्वगुप्त मानते हैं। विद्वानों ने शिवार्य का समय ई. सन् की दूरी-तीसरी शताब्दी माना हें इनके ग्रन्थ भगवतीआराधना पर 7वीं-8वीं शताब्दी में अपराजितसूरी द्वारा टीका लिखी जा चुकी है।

स्वामी कार्तिकेय - कार्तिकेयानुप्रक्षा

स्वामी कार्तिकेय अथवा कुमार के द्वारा रचित अनुप्रेक्षा ग्रन्थ को कार्तिकेयानुप्रक्षा नाम से जाना जाता है। इस ग्रन्थ में कुल 489 प्राकृत गाथाएं हैं जिनमें अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आश्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म इन बाहर अनुप्रेक्षाओं का वर्णन विस्तार से किय गया है। इस ग्रन्थ के रचियता कार्तिकेय के संबंध में विद्वानों ने पर्याप्त खोज की है। इन्हें लगभग पांचवीं शताब्दी का विद्वान माना जाता है। बारह अनुप्रेक्षाओं की जो कुन्दकुन्द बट्टकेर, और शिवार्य की परम्परा है, उससे भिन्न उमास्वामी की अनुप्रेक्षाओं की परम्परा को कार्तिकेय ने अपने इस ग्रन्थ में अपनाया हैं

आचार्य वीरसेन: धवला एवं जयधवला टीका

शौरसेनी प्राकृत साहित्य की प्रारम्भिक रचानाओं कषयपाहुड एवं षटखण्डागम की तरह उनकी टीकाओं का भी शौरसेनी प्राकृत के अध्ययन के लिए विशेष महत्व हैं इन प्राचीन ग्रन्थों पर टीका लिखने वाले आचार्य वीरसेन हैं। ये जैन दर्शन और संस्कृत प्राकृत भाषाओं के निष्णात पंडित थे। आचार्य जिनसेन (प्रािम) ने अपने गुरू वीरसेन स्वामी के पांडित्य और यश का वर्णन किया है। आचार्य वीरसेन के विद्यागुरू एलाचार्य थे और दीक्षागुरू श्री आर्यनन्दी थे। आचार्य वीरसेन राजस्थान (चित्तौड़) गुजरात, (बाटग्राम, बडौदा) आदि स्थानों पर भी रहे। इन्होंने षटखण्डागम पर प्राकृत संस्कृत में धवला टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन का समय सन् 816 स्वीकार किया जाता है।

आचार्य वीरसेन ने जो 72 हजार श्लोकप्रमाण धवला टीका लिखी है वह शौरसेनी प्राकृत के अनेक रूपों को सुरक्षित किये हुए हैं भाषा की दृष्टि से यह टीका अत्यंत समृद्ध हैं आचार्य वीरसेन ने कषायपाहुड पर जयधवला नामक टीका लिखी है। इस टीका के 20 हजार श्लोकप्रमाण अंश को वीरसेन ने लिखा और उसके बाद असमय में उनका निधन होने पर शेष 40 हजार श्लोकप्रमाण टीका उनके शिष्य जयसेन (द्वितीय) ने लिखी है। ये दोनों टीकाएं दर्शन, सिद्धांत, भाषा और संस्कृति की सामग्री की अनुपम निधि हैं। इन टीकाओं में प्राप्त शौरसेनी प्राकृत सम्बंधी सामग्री का पूर्णतया विश्लेषण होने पर प्राकृत भाषा के इतिहास पर नया प्रकाश पड़ेगा। इन टीकाओं के प्राकृत शब्दों का कोश बनाना प्राथमिक आवश्यकता है।

श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परा के परवर्ती अन्य जैन दार्शनिक संस्कृत-प्राकृत आदि भाषा के आचार्यों का परिचय इस पुस्तक के चतुर्थ अध्याय-भाषा एवं साहित्य के अंतर्गत दिया गया है। इन प्रभावक आचार्यों की प्रेरणा और प्रयत्नों से जैन धर्म के विभिन्न भागों में प्रसारित हुआ है।

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