तीर्थंकर महावीर के संघ के अनेक साधक और विशिष्ट ज्ञान आचार्य सम्मिलित थे। उन्होंने जैन संघ के विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। प्रतिभा सम्पन्न और प्रभावक आचार्यों की परम्परा भगवान महावीर के बाद निरंतर चलती रही हे। इस सुदीर्ध काल में हजारों ऐसे जैनाचार्य हुए जिन्होंने संघ संचालन एवंज ैन धर्म के प्रचार-प्रसार और देश की विभिन्न भागों में अपूर्व साहित्य के सृजन में महत्वपूर्ण योगदान किया है। विद्वानों ने जैन धर्म के इन आचार्यों के अवदान पर विस्तृत पुस्तकें भी लिखी हैं। यहां संक्षेप में कतिपय ऐसे प्राचीन प्रभावक आचार्यों का परिचय दिया जा रहा है जिससे जैन संघ के विकास में अनेक योगदान का परिज्ञान हो सके। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन आचार्यों की नामावली पूर्व में दी जा चुकी है, उन आचार्यों की शिष्य परम्परा सम्पूर्ण देश में विकसित हुई है। ऐसे प्रमुख प्रभावक आचार्यों को यहां सुविधा की दृष्टि से दो भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है:-
1 जैन संघ के प्रमुख प्राभावक आचार्य
2 दिगम्बर परम्परा के प्राकृत साहित्य के आचार्य
श्रुतधर आचार्य भद्रबाहु
दिगम्बर जरम्परा के अनुसार श्रुतधर आचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली गोवर्धन के शिष्य थे। श्वेताम्बर के अनुसार आचार्य भद्रबाहु के दीक्षा गुरू और शिक्ष गुरू आचार्य यशोभद्र थे। इन्होंने अपने गुरूभाई संभूतविजय से जैन संघ का नेतृत्व सम्हाला था। भगवान महावीर के शिष्य परम्परा में आचार्य भद्रबाहु सातवें पट्टधर थे। प्रचाीन ग्रंथों में इनका जीवन संक्षेप में उपलब्ध है, उसमें इनको प्राचीन गौत्री कहा गया है। इनका जन्म वी.नि. सं. 94 (433 ई. पू.) में हुआ था। दीर्ध भुजाएं होने के कारण इनको भद्रबाहु कहा गया है। इन्होंने आचार्य यशोभद्र के पास मुनि-दीक्षा ग्रहण की थी। इन्होंनें अपनी साधना और ज्ञान के आधार पर सम्पूर्ण आगम का ज्ञान प्राप्त किया था। इनको वीर निर्वाण सं. 156 में आचार्य पद प्राप्त हुआ था। आचार्य भद्रबाहु के विराट व्यक्तित्व और अगाध ज्ञान के कारण इन्हें श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराएं सम्मनपूर्वक याद करती हैं। आचार्य भद्रबाहु को 14 पूर्वों का ज्ञाता माना गया है।
जैन संघ की परम्परा के अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण की द्वितीय शताब्दी में भयंकर दुष्काल पड़ा था उस समय अनके श्रुतसम्पन्न मुनि काल-कवलित हो गये थे। तब जैन धर्म के संघ और श्रमणों के समूह ने आचार्य भद्रबाहु से नेपाल जाकर 14 पर्वूों का ज्ञान किसी योग्य शिष्य को देने की प्रार्थना की थी। बड़े अनुरोध के बाद आचार्य भद्रबाहु ने मुनि स्थूलभद्र को सात वाचनाएं देना स्वीकार किया था। किंतु परम्परा से ज्ञात होता है कि वे मुनि स्थूलभद्र को 10 पूर्वों तक का ज्ञान ही दे पाए थे।
दिगम्बर परम्परा में आचार्य भद्रबाहु का जीवन प्रसंग विभिन्न रूपों में वर्णित है। उसके अनुसार आचार्य भद्रबाहु ने 12 वर्षीय भयंकर दुष्काल की घोषणा की थी और उनके आदेश से विशाखाचार्य के नेतृत्व में विशाल श्रमण संघ दक्षिण की ओर पुन्नाड देश में चला गया था। आचार्य भद्रबाहु अवन्तिनगरी में विराजमान थे, तब वहां सम्राट चन्द्रगुप्त का शासन था। चन्द्रगुप्त ने भद्रबाहु से श्रमण दीक्षा ग्रहण की थी और उनके साथ वह भी दक्षिण की यात्रा में गया था। अनेक उल्लेखों के अनुसार आचार्य भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त का समाधिमरण श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर हुआ था, ऐसी मान्यता है। दिगम्बर मान्यता के अनुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु का निर्वाण वी.नि. स. 162 में हुआ था। जबकि श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार उनका निर्वाण वी. नि. सं. 170 में हुआ था।
श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु और निमित्तधर (ज्योतिषी) आचार्य भद्रबाहु इन दो आचार्यों को अलग-अलगे मानने की परम्परा भी जैन धर्म में उपलब्ध है। ऐसी स्थिति में प्रथम भद्रबाहु और द्वितीय भद्रबाहु दो अलग-अलग व्यक्तित्व जैन संध्ज्ञ में स्वीकार किये जाते हैं। पाश्चात्य विद्वान डाॅ. हर्मन जैकोबी ने श्रुतधर भद्रबाहु और निरूक्तिकार भद्रबाहु ये दो आचार्य भिन्न-2 स्वीकार किये हैं।
आचार्य स्थूलभद्र
आचार्य स्थूलभद्र श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार तीर्थंकर महावीर के आठवें पट्टधर थे। इनको अंतिम श्रुतकेवली कहा गया है। जैन परम्परा के मंगल श्लोक में वीरप्रभु और इन्द्रभूति गौतम के बाद आचार्य स्थूलभद्र के नाम का स्मरण किया जाता है। आचार्य स्थलूभद्र श्रुतधर आचार्य संभूत विजय द्वारा दीक्षित थे और जैन संघ के संचालन का दायित्व उन्हें आचार्य भद्रबाहु के द्वारा प्राप्त हुआ था। इनका जन्म ब्राह्मण परिवार में वीर निर्वाण संम्वत 116 में मगध की राजधानी पाटलीपुत्र में हुआ था। स्थूलभद्र के पिता का नाम शकडाल और माता का नाम लक्ष्मी था। शकडाल नन्द्र साम्राज्य में महामंत्री के पद पर नियुक्त थे।
अतः स्थूलभद्र को राजसम्मान भी प्राप्त था। मंत्री शकडाल ने स्थूलभद्र को विभिन्न कलाओं की शिक्षा प्राप्त करने के लिए गणिका कोषा के पास भेजा था। इसके कारण एक बार शकडाल को अपने परिवार को बचाने के लिए स्वयं राजदरबार में अपने जीवन की बलि देनी पड़ी ।तब उनके रिक्त स्थान पर छोटे भाई श्रीयक के निवेदन पर स्थूलभद्र को राजा का महामंत्री पद स्वीकार करने के लिए निवेदन किया गया। इस घटना ने विवेक सम्पन्न स्थूलभद्र की आंखे खोल दी। राजनीति के कुचक्र को समझकर स्थूलभद्र ने वैराग्य धारणकर साधु की मुदा्र में राजदरबार में प्रवेश किया। यह देखकर सभी लोग चकित रह गयें राजा को मजबूरन स्थूलभद्र के छोटे भाई श्रीयक को मंत्री बनान पड़ा और स्थूलभद्र संसार से विरक्त होकर अपनी साधना में लीन हो गये।
स्थूलभद्रने वीर निर्वाण संवत् 146 में आचार्य संभूत विजय से दीक्षा ग्रहण की थी और उनसे आगम साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया था। मुनि स्थूलभद्र ने गुरू की आज्ञा लेकर प्रथम चर्तुमास पर्वू परिचिता कोषा गणिका के भव में जाकर व्यतीत किया। कोषा गणिका उन्हें सभीप्रकार से संसार के भोगों में वापिस लाने के प्रयत्न में हार गयी। तब स्थूलभद्र मुनि ने कोषा को उपदेश दिया और उसे श्राविका के व्रत प्रदान किये। स्थूलभद्र की इस संयम-विजय ने उनहें जैन संघ में अत्यंत दया का पात्र बना दिया। वे वापिस जब आचार्य संभूत विजय के पास लौटे तो उन्हें बहुत आदर प्रदान किया गया। उस समय पाटलिपुत्र में महाश्रमण सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें 11 अंगों की वाचना की गयी। किंतु दृष्टिवाद आगम अन्य किसी श्रमण को याद नहीं था। इसके लिए मुनि स्थूलभद्र नेपाल में आचार्य भद्रबाहु के पास भी जाकर रहे। किंतु वे दृष्टिवाद की पूरी वाचना नहीं ले पाये। आचार्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को वीर निर्वाण संवत 170 में आचार्य पद प्रदान किया था। आचार्य स्थूलभद्र जीवन भर जैन संघ्ज्ञ की सेवा करते रहे अैर जैन संघ के तेजस्वी साधक के रूप में उनका स्मरण किया जाता है। वीर निर्वाण संवत् 215 में इनका स्वर्गवास हो गया।
क्रांतिकारी आचार्य कालक (द्वितीय)
श्वेताम्बर परम्परा के प्रमुख प्राचीन आचार्यों में आचार्य कालक द्वितीय का स्मरण किया जाता हैं इनका चरित्र पादलिप्त प्रबंध में मिलता है। इनकी जन्मभूमि धारानगरी थी। आचार्य कालक ने इस देश के बाहर ईरान, जावा अैर सुमात्रा तक की लम्बी पदयात्राएं की थीं। इनकी बहिन का नाम सरस्वती था। आचार्य कालक एक बार उज्जैनी नगरी में संघ सहित आये तब वहां पर राजा गर्दभिल्ल का शासन था, उसने साध्वी सरस्वती के सौन्दर्य पर मोहित होकर उसका उपहरण कर लिया। तब आचार्य कालक ने राजा के समक्ष उपस्थित होकर उसे समझाया किंतु जब उसने साध्वी सरस्वती को वापिस नहीं किया तब आचायर्य कालक ने उनसे बदला लने की प्रतिज्ञा की। गर्दभिल्ल शक्तिशाली शासक था अतः उससे शत्रुता लेने को कोई तैयार नहीं था। तब आचार्य कालक ने ईराक के राजाओं से मित्रता की और उन शक राजाओं को भारत लाकर उनको गर्दभिल्ल से बदला लेने के लिए तैयार किया। अंततः विदेशी सत्ता के हाथों गर्दभिल्ल पराजित हुआ अैर आचार्य कालक ने बहिन सरस्वती को उससे मुक्त कराया तथा प्रायश्चित देकर उसे पुनः दीक्षा दी। निशीथचूर्णि आदि में आचार्य कालक की कथा विस्तार से प्राप्त होती है। ऐसी मान्यता है कि आचार्य कालक के नेतृत्व में सर्वप्रथम चतुर्थी के दिन संवत्सरी का पर्व मनाया गया। नरेश विक्रमादित्य और आचार्य कालक के सम्बंधों पर जैन साहित्य में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध होती हैं उनका जीवन कई आश्चर्यजनक प्रसंगों से भरा हुआ हैं।