।। जैन धर्म के प्रभावक आचार्य ।।

शौरसेनी प्राकृत के प्रमुख आचार्यों का यहां संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।

आचार्य गुणधर: कसायपाहुड

दिगम्बर परम्परा में जो शौरसेनी प्राकृत में लिखित ग्रन्थ प्राप्त होते हैं उनमें प्रथम श्रुत ग्रन्थ का प्रणयन करने वाले आचार्य गुणधर हैं। इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार, नन्दिसंघ की शौरसेनी प्राकृत पट्टावलि और जयधवला टीका आदि में आचार्य गुणधर ओर उनकी पूर्व परम्परा का वर्णन मिलता है। विद्वानों ने गुणधराचार्य का समय विक्रम पूर्व शतब्दी स्वीकार किया हैं ये आचार्य धरसेन और कुन्दकुन्द के पूर्ववर्ती हैं। इनको अर्हद ्वली संघनायक के समकालीन माना जाता है। गुणधराचार्य दिगम्बर परम्परा के प्रथम सूत्रकार हैं। इन्होंने ‘कसायपाहुड’ नामक ग्रन्थ की रचना 180 शौरसेनी प्राकृत गाथाओं में की हैं, जो 16000 पदप्रमाण विषय को अपने में समेटे हुए हैं। ग्रन्थकार अपनी गाथाओं को सूत्रगाथा कहते हैं-

गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा विहत्तम्मि।
वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि।।
-गा. 2

कसायपाहुड को पेज्जदोसपाहुड भी कहते हैं। कषाय राग-द्वेष का सम्मिलित नाम है। उनकी परिणति है। अतः कषायों में जो कर्मबंध होता है, उसकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेशबंध आदि विशेषताओं का विश्लेषण इस कसायपाहुड में किया गया है। संक्षेप में यह कर्मसिद्धांत का ग्रन्थ है, जिसने परवर्ती साहित्य को बहुत प्रभावित किया है। इस मूल ग्रन्थ पर 8वी शताब्दी में आचार्य वीरसेन ने ‘जयधवला’ नामक विशाल टीका लिखी है। इस पर चूर्णि आदि भी लिखी गयी है।

आचार्य धरसेन

इन्द्रनन्दि श्रुतावतार में अह्द्वलि माघनन्दि और धरसेन इन तीन आचार्यों की विद्वत्ता का परिचय दिया गया है। सम्भवतः इनमें गुरूशिष्य सम्बंध भी रहे हों। धवला टीका में आचार्य धरसेन का विशेष परिचय मिलता है। धरसेन दर्शन और सिद्धांत विषय के गंभीर विद्वान थे। वे आचार्य के साथ शिक्षक भी थे, मंत्रशास्त्र के ज्ञाता भी। उनके द्वारा रचित ‘योनिपाहुड’ नामक ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है। आचार्य धरसेन को सभी अंग और पूर्वों का एक देश ज्ञाता माना जाता है। विद्वानों ने विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य धरसेन वीर-निर्वाण सम्वत् 633 तक जीवित थे। उन्होंने वी.नि.सं. 630-31 मेंपुष्पदंत और भूतबलि को श्रुत की शिक्षा प्रदान की थी। अतः धरसेन का समय ई. सन् 73 मके लगभग स्वीकार किया जाता हैं अभिलेखीय प्रमाणों से भी धरसेन ई. सन् की प्रथम शताब्दी के विद्वान सिद्ध होते हैं। आचार्य धरसेन ने शौरसेनी प्राकृत के प्राचीन ग्रन्थ षट्खण्डागम के विषय का प्रतिपादन अपने शिष्यों पुप्पदंत और भूतिबलि को कराया था। धरसेनाचार्य को सौराष्ट्र देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में रहने वाला संत कहा गया है। उनके पास आंध्र प्रदेश, वेण नदी के तट से दो आचार्य पढ़ने आये थे। उन्हें दक्षिण देश के आचार्यों ने भेजा था। इससे स्पष्ट है कि शौरसेनी प्राकृत में पठन-पाठन करने वाले आचार्य उस समय सर्वत्र व्याप्त थे।

पुष्पदंत एवं भूतबलि

आचार्य धरसेन के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए आन्ध्रप्रदेश से जो दो व्युत्पन्न विद्वान आये थे, इतिहास में उनके नाम पुष्पदंत और भूतबलि प्राप्त होते हैं। किंतु कथानक के अनुसार ये नाम उनके गुरू धरसेनाचार्य ने उनकी परीक्षा लेने के बाद दिये थे अतः इन दोनों शिष्ष्यों के मूल नामों का उल्लेख नहीं मिलता। शिक्षा प्राप्ति के बाद ये मुनि पुनः दक्षिण भारत की ओर गये थे और वहीं पर उन्होंने शौरसेनी प्राकृत में ‘षट्खण्डागम’ ग्रन्थ की रचना की। डाॅ. नेमिचन्द्र शास्त्री मानते हैं कि षटखण्डागम ग्रन्थ का प्रारम्भिग भाग वनवास देश (उत्तर कर्णाटक) में रचा गया और शेष ग्रन्थ द्रविड़ देश में। इन दोनों आचार्यों में पुष्पदंत ज्येष्ठ थे और भूतबलि उनसे अवस्था में कम। विद्वानों ने इन आचार्यों का समय धरसेनाचार्य के समकालीन होने से वीरनिर्वाण सं. 633 के पश्चात लगभग ई. सन् 50-90 माना है।

‘षट्खण्डागम’ ग्रन्थ का विषय पुष्पदंत एवं भूतबलि ने आचार्य धरसेन से पढ़ा था। इस ग्रन्थ को लिखने की रूपरेखा पुष्पदंत ने बनायी होगी। किंतु वे ग्रन्थ के प्रथम भाग सत्प्ररूपणा के 177 सूत्रों की रचना ही कर सके। बाद में भूतबलि ने ग्रन्थ के पांच खण्डों के छह हजार सूत्रों की रचना की और बाद में महाबंध नामक छठे खण्ड के 30 हजार सूत्रों का निर्माण किया। वास्तव में षट्खण्डागम ग्रन्थ में प्राचीन परम्परा से प्राप्त श्रुतज्ञान की प्ररूपणा की गयी है। ‘षट्खण्डागम’ नामक शौरसेनी प्राकृत का यह प्राचीन ग्रंथ छह खण्डों में विभक्त है:-

1.जीवटाठ्णः जीव के गुण धर्म और अवस्थाओं का वर्णन।

2. खुद्दाबंधः मार्गणाओं के अनुसार बंध/अबंध का वर्णन।

3.बंध सामित्तविचयः कर्म की प्रकृतियां और उनके स्वामी।

4.वेयणाः आठ कर्मों का वेदना की अपेक्षा से वर्णन

5. वग्गणाः बन्धनीय पुद्गल स्कन्धों का वर्णन

6.महाबंध प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बंध।

इस तरह यह षट्खण्डागम ग्रन्थ जैन दर्शन में कर्मसिद्धांत गुणस्थान और जीव की विभिन्न अवस्थाओं का सांगोपांग वर्णन करता है।

आचार्य कुन्दकुन्द और उनके ग्रन्थ

दिगम्बर परम्परा के श्रुतधर आचार्यों आचार्य कुन्दकुन्द का महतवपूर्ण स्थान है इनकी शौरसेनी प्राकृत रचनाओं में बारसअणुवेक्खा में इनके नाम का उल्लेख मिलता है। इन्होंने अपने अष्टपाहुड के बोधपाहुड में अपने गुरू का नाम श्रुतकेवली भद्रबाहु बतलाया है आचार्य कुन्दकुन्द के समय पर विद्वानों ने पर्याप्त विचार-विमर्श किया हैं उसके अनुसार आचार्य कुन्दकुन्द ई. सन् की प्रथम शताब्दी के विद्वान हैं। उनके जन्म को दो हजार वर्ष होने पर अभी कुछ वर्ष पूर्व सारे देश में पूज्य आचार्य विद्यानन्द जी महाराज की सत्प्रेरणा से आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्त्राब्दि वर्ष मनाया गया है। इन दो हजार वर्षों में आचार्य कुन्दकुन्द के शौरसेनी प्राकृत ग्रन्थों ने परवर्ती साहित्य को बहुत प्रभावित किया हैं

आचार्य कुन्दकुन्द की शौरसेनी प्राकृत पर प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं:-

1.प्रवचनसार

2.समयसार

3. पंचास्तिकाय

4.नियमसार

5.रयणसार

6.अठ पाहुड़

7.दस भक्तियां आदि।

इन ग्रन्थों के अतिरिक्त आचार्य कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों का उल्लेख प्राप्त होता है। कुन्दकुन्द के शौरसेनी प्राकृत साहित्य में शौरसेनी प्राकृत के स्वरूप को जानने की महत्वपूर्ण सामग्री है। कुन्दकुन्द साहित्य से प्रतीत होता है कि ईसा की प्रथम शताब्दी शौरसेनी प्राकृत की समृद्धि का स्वर्णयुग था।

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