दिगम्बर मान्यता के अनुसार जैन संघ के आचार्यों की परम्पर इस प्रकार है। महवीर स्वामी के पश्चात निम्नप्रकार केवली, श्रुतकेवली एव अंग धारी आचार्य होते रहे।
इन तीनो केवली-भगवंतों ने 62 वर्षो तक उत्कृष्ट साधना के द्वारा जगत् को महावीर के सदृश्य केवल ज्ञान प्राप्त कर उपदेशामृत का पान कराया और फिर निर्वाण प्रापत किया।
    ये पांच आचार्य केवल ज्ञान के स्थान पर पूर्ण श्रुत ज्ञान ही प्राप्त कर सके। इसलिए ये श्रुत केवली कहलाये। इसमे भद्रबाहुस्वामी अंतिम श्रुत केवली थे।
इस प्रकार 183 वर्षों में 11 आचार्य हुए, जो ग्यारह अंग और दस पूर्वधारी आगम वेतता थे। ये न तो केवली थे और न ही श्रुत केवली, फिर भी ये आगम शास्त्रों के अधिकांश भाग के ज्ञाता थे। इनके पश्चात ज्ञान का और ह्रास हो गया और 123 वर्षो मे पांच आचार्य केवल ग्यारहअंगों के ज्ञाता ही रह गये।
स्मृतिक्षीणता एवं एकाग्रता की उत्तरोत्तर कमी के कारण ज्ञान का बराबर हृास होता गया और फिर दशांग, नवांग एवं अष्टमअंग धारी होते रहे। ऐसे आचार्यो मे मात्र चार आचार्य हुए, जिनके नाम निम्न प्रकार है -
118 वर्षों मे पांच एकांग धारी आचार्य हुए, जिनके नाम निम्नप्रकार हैं-
इनमे अंतिम तीन आचार्यो मे आचार्य धरसेन ने अपने अवशिष्ट आगम ज्ञान को आचार्य भूंतबलि और पुष्पदन्त को दक्षिण से बुलाकर प्रदान किया और आगमज्ञान के एक अंगज्ञान को नष्ट होने से बचा लिया। इस प्रकर महावीर स्वामी के पश्चात 643 वर्षो तक आचार्य-परम्परा चलती रही। इस आचार्य-परम्परा ने जैन संघ को अपने पारलौकिक ज्ञान से आगे बढ़ाया।