आचार्य स्थूलभद्र
आचार्य स्थूलभद्र श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार तीर्थंकर महावीर के आठवें पट्टधर थे। इनको अंतिम श्रुतकेवली कहा गया है। जैन परम्परा के मंगल श्लोक में वीरप्रभु और इन्द्रभूति गौतम के बाद आचार्य स्थूलभद्र के नाम का स्मरण किया जाता है। आचार्य स्थलूभद्र श्रुतधर आचार्य संभूत विजय द्वारा दीक्षित थे और जैन संघ के संचालन का दायित्व उन्हें आचार्य भद्रबाहु के द्वारा प्राप्त हुआ था। इनका जन्म ब्राह्मण परिवार में वीर निर्वाण संम्वत 116 में मगध की राजधानी पाटलीपुत्र में हुआ था। स्थूलभद्र के पिता का नाम शकडाल और माता का नाम लक्ष्मी था। शकडाल नन्द्र साम्राज्य में महामंत्री के पद पर नियुक्त थे।
अतः स्थूलभद्र को राजसम्मान भी प्राप्त था। मंत्री शकडाल ने स्थूलभद्र को विभिन्न कलाओं की शिक्षा प्राप्त करने के लिए गणिका कोषा के पास भेजा था। इसके कारण एक बार शकडाल को अपने परिवार को बचाने के लिए स्वयं राजदरबार में अपने जीवन की बलि देनी पड़ी ।तब उनके रिक्त स्थान पर छोटे भाई श्रीयक के निवेदन पर स्थूलभद्र को राजा का महामंत्री पद स्वीकार करने के लिए निवेदन किया गया। इस घटना ने विवेक सम्पन्न स्थूलभद्र की आंखे खोल दी। राजनीति के कुचक्र को समझकर स्थूलभद्र ने वैराग्य धारणकर साधु की मुदा्र में राजदरबार में प्रवेश किया। यह देखकर सभी लोग चकित रह गयें राजा को मजबूरन स्थूलभद्र के छोटे भाई श्रीयक को मंत्री बनान पड़ा और स्थूलभद्र संसार से विरक्त होकर अपनी साधना में लीन हो गये।
स्थूलभद्रने वीर निर्वाण संवत् 146 में आचार्य संभूत विजय से दीक्षा ग्रहण की थी और उनसे आगम साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया था। मुनि स्थूलभद्र ने गुरू की आज्ञा लेकर प्रथम चर्तुमास पर्वू परिचिता कोषा गणिका के भव में जाकर व्यतीत किया। कोषा गणिका उन्हें सभीप्रकार से संसार के भोगों में वापिस लाने के प्रयत्न में हार गयी। तब स्थूलभद्र मुनि ने कोषा को उपदेश दिया और उसे श्राविका के व्रत प्रदान किये। स्थूलभद्र की इस संयम-विजय ने उनहें जैन संघ में अत्यंत दया का पात्र बना दिया। वे वापिस जब आचार्य संभूत विजय के पास लौटे तो उन्हें बहुत आदर प्रदान किया गया। उस समय पाटलिपुत्र में महाश्रमण सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें 11 अंगों की वाचना की गयी। किंतु दृष्टिवाद आगम अन्य किसी श्रमण को याद नहीं था। इसके लिए मुनि स्थूलभद्र नेपाल में आचार्य भद्रबाहु के पास भी जाकर रहे। किंतु वे दृष्टिवाद की पूरी वाचना नहीं ले पाये। आचार्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को वीर निर्वाण संवत 170 में आचार्य पद प्रदान किया था। आचार्य स्थूलभद्र जीवन भर जैन संघ्ज्ञ की सेवा करते रहे अैर जैन संघ के तेजस्वी साधक के रूप में उनका स्मरण किया जाता है। वीर निर्वाण संवत् 215 में इनका स्वर्गवास हो गया।
क्रांतिकारी आचार्य कालक (द्वितीय)
श्वेताम्बर परम्परा के प्रमुख प्राचीन आचार्यों में आचार्य कालक द्वितीय का स्मरण किया जाता हैं इनका चरित्र पादलिप्त प्रबंध में मिलता है। इनकी जन्मभूमि धारानगरी थी। आचार्य कालक ने इस देश के बाहर ईरान, जावा अैर सुमात्रा तक की लम्बी पदयात्राएं की थीं। इनकी बहिन का नाम सरस्वती था। आचार्य कालक एक बार उज्जैनी नगरी में संघ सहित आये तब वहां पर राजा गर्दभिल्ल का शासन था, उसने साध्वी सरस्वती के सौन्दर्य पर मोहित होकर उसका उपहरण कर लिया। तब आचार्य कालक ने राजा के समक्ष उपस्थित होकर उसे समझाया किंतु जब उसने साध्वी सरस्वती को वापिस नहीं किया तब आचायर्य कालक ने उनसे बदला लने की प्रतिज्ञा की। गर्दभिल्ल शक्तिशाली शासक था अतः उससे शत्रुता लेने को कोई तैयार नहीं था। तब आचार्य कालक ने ईराक के राजाओं से मित्रता की और उन शक राजाओं को भारत लाकर उनको गर्दभिल्ल से बदला लेने के लिए तैयार किया। अंततः विदेशी सत्ता के हाथों गर्दभिल्ल पराजित हुआ अैर आचार्य कालक ने बहिन सरस्वती को उससे मुक्त कराया तथा प्रायश्चित देकर उसे पुनः दीक्षा दी। निशीथचूर्णि आदि में आचार्य कालक की कथा विस्तार से प्राप्त होती है। ऐसी मान्यता है कि आचार्य कालक के नेतृत्व में सर्वप्रथम चतुर्थी के दिन संवत्सरी का पर्व मनाया गया। नरेश विक्रमादित्य और आचार्य कालक के सम्बंधों पर जैन साहित्य में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध होती हैं उनका जीवन कई आश्चर्यजनक प्रसंगों से भरा हुआ हैं।
आचार्य आर्य रक्षित
पूर्वधर आचार्यों में आचार्य आर्यरक्षित युग प्रधान आचार्य रहे हैं। दीक्षागुरू तोसलीपुत्र थे। इनका जन्म मालवा के मंदसौर के एक ब्राह्मण परिवार में वीर निर्वाण संवत् 522 में हुआ था। इसके पिता सोमदेव दसपुर के राजा उदायन के राज्य में राजपुरोहित थे। मां ने आर्यरक्षित को दृष्टिवाद नामक आगम पढने की प्रेरणा दी थी और उन्हें आर्य तोसलीपुत्र के पास भेजा था। तोसलीपुत्र ने मुनि दीक्षा देकर आगम के अध्ययन को और विस्तृत ज्ञान के लिए मुनि रक्षित को पूर्वधर आचार्य वज्रधर स्वामी के पास भेज दिया। दृष्टिवाद का अध्ययन करना अत्यंत कठिन कार्य था। अध्ययन की अवधि में कई बार मुनि रक्षित का धीरज डोल जाता था, तब उन्होेने इसका भाग अपने ज्येष्ठ भ्राता फलभूरक्षित को सौंपा। आर्यरक्षित के जीवन में अनेक घटनाएं घटित हुई हैं। उन्हें मोक्ष प्राप्ति के लिए पिता सोमदेव मुनि द्वारा दिगम्बर मुनि दीक्षा ग्रहण करने के लिए भी कहा गया किंतु आर्यरक्षित ने इसे स्वीकार नहीं किया। वे श्वेताम्बर परम्परा का पालन करते रहे। इनका विहार क्षेत्र अवन्ति, मथुरा और दसपुर रहा है। वीर निर्वाण सम्वत 597 में आर्यरक्षित स्वर्गवासी हुए।
आचार्य उमास्वाति
जैन संघ के प्रभावक आचार्यों में वाचक उमास्वाति का विशिष्ट स्थान हैं ये संस्कृत भाषा के उद्भट विद्वान थे। इनका सुप्रसिद्ध ग्रंथ तत्वार्थसूत्र जैन दर्शन का प्रतिनिधी ग्रंथ हैं उमास्वाति श्वेताम्बर अैर दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्रतिष्ठित विद्वान हैं। दिगम्बर परम्परा में इन्हें उमास्वामी के रूप में याद किया जाता है। पं. सुखलाल जी संघवी और पं. जुगल किशोर मुख्तार ने उमास्वाति/उमास्वामी के सम्बंध में विस्तार से विवेचन प्रस्तुत किया है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार उमास्वाति को आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में माना गया हैं श्वेताम्बर परम्परा में उमास्वाति की दीक्षा गुरू घोषनन्दि श्रमण थे। दिगम्बर परम्परा में गृद्धपृच्छ उमास्वामी को तत्वार्थसूत्र का कर्ता स्वीकार किया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में तत्वार्थअधिगमभाष्य उमास्वाति का स्वोपज्ञ ग्रन्थ माना जाता है। उमास्वाति का यह ग्रंथ जैन दर्शन के प्रायः सभी विषयों का संस्कृत सूत्रों में निरूपण करता है। उनके इस ग्रंथ पर परवर्ती काल में अनेक टीकाएं लिखी गयी हैं। तत्व-निरूपण की दृष्टि से जैन दर्शन का यह प्रतिनिध ग्रंथ है। दश लक्षण पर्व में दिगम्बर समाज में तत्वार्थसूत्र का प्रतिदिन वाचन किया जाता है। उमास्वाति को दिगम्बर विद्वान विक्रम शताब्दी का आचार्य मानते हैं। पं. सुखलाल जी संघवी ने विक्रम की प्रथम शताब्दी से तृतीय शताब्दी के बीच इनका समय माना है।
शौरसेनी प्राकृत की प्राचीन परम्परा को जो साहित्य आज उपलब्ध होता हैं वह भगवान महावीर के उपदेशों को उनके गणधरों द्वारा जो द्रव्यश्रुत रूप में सुरक्षित हुआ उस पर आधारित हैं प्राचीन शौरसेनी वाड्मय के अर्थकर्ता तो स्वयं भगवान महावीर हैं, किंतु ग्रन्थकर्ता गौतम गणधर आदि हैं। इन्हीं गणधरों की परम्परा में प्राकृत में ग्रन्थ लिखने का शुभारम्भ हुआ। अतः भावश्रुत एवं द्रव्यश्रुत का घनिष्ठ सम्बंध है। पूर्व परम्परा से ज्ञान को प्राप्त कर आचार्यों ने ग्रन्थ लिखे हैं। लिखने वाल ेरागद्वेष से रहित श्रमण है। अतः प्राकृत के आगम ग्रंथों की प्रामाणिकता असंदिग्ध है। शौरसेनी प्राकृत के प्राचीन ग्रन्थों को लिखने वाले आचार्यों की लम्बी परम्परा रही है। प्राचीन ग्रन्थों, पट्टावलियों एवं अभिलेखों में शौरसेनी प्राकृत के इन आचार्यों का वर्णन प्राप्त होता है। उनके सम्बंध में अधिक प्रकाश प्रत्येक ग्रन्थ के टीका-साहित्य से पड़ता हैं आधुनिक विद्वानों ने शौरसेनी प्राकृत के प्रमुख आचार्यों और उनके ग्रन्थों का विश्लेषण भी प्रस्तुत किया है।