» दाता का सप्त व्यसन का त्याग होना चाहिए।
» नशे का त्याग। (शराब, तम्बाकू, गांजा, भांगबीड़ी, सिगरेट आदि)
» रात्रि भोजन का त्याग (कम से कम अन्न का)
» जिनेन्द्र देव का दर्शन।
» शुद्ध धोती व दुपट्टा सिर ढककर पहनना।
» चैके मे बार -बार दाताओ का परिवर्तन न करे। एक व्यक्ति के खडे होने के लिए या बैठने की जगह चैके मे खाली रखे जहा से आधे आहार के बाद अन्य दाता आहार दे सके।
» मुख्य दाता-जिनहे सामग्री व साधु के आहार क्रम का ज्ञान है। वे वहीं ध्रुव रूपसे, मुनि, के लिए होतो खड़े रहे, आर्यिकादि के लिए हो तो वहीं बैठे रहें।
» चैका लगाने वाले एवं आहार देने वाले दाताओ को अपना मन शांत और भाव शुद्ध एवं दयालुता रखना चाहिए।
» उठते बैठते समय सावधानी पूर्वक देखभाल कर उठे बैठे।
» किसी वस्तु या पटादि को घसीटे नहीं धीरे से उठाकर रखे तथा योग्य पटाचैकी रखे हिलती डुलती न हो।
» दाता भीस्वयं खिसक कर उठे बैठे नही उठते बैठते समय जमीन आदि देख कर उठे बैठें।
» अनावश्यक न बोले जिससे थूक व अपशब्द निकले। क्योंकि थूक से भोजन अपवित्र हो जाता है। अपशब्दो को सुनने से ग्लानि व अंतराय हो जाते है।
» फलों व नमक को प्रासुक करके रखे। कच्चे फलो को खूब पक जाने दे - जिससे अपक्वका दोष न रहें।
» जल्दबाजी मे कोई कार्य न करे-अक्सर जल्दबाजी मे अंतराय हो जाते हैं।
» आहार का शोधन-विवेकशील श्रावकों द्वारा होना चाहिए।
» आहार सामग्री के ऊपर दूसरी कटोरी आदि न रखे ं जिससे कि कटोरी आदि के तले मे लगे रेत व अशुद्ध पदार्थ भोजन मे मिलकर स्वच्छता व शुद्धता को कम करके स्वास्थ्य के लिए हानि कारक हो जायें।
» वस्त्र, भूमि, बाल व अंगो मे हाथ लग जाने पर धोयें।
» जल को तीन बर्तनो मे , तीन तरह का रखना जिसकी गर्माहट मे थोड़ा-थोड़ा अंतर हो जिससे श्रावक, साधु को उनकी अनुकूलता के अनुसार दे सकें।
» चार वस्त्र स्वयं के हाथ पोंछने व साधु के अंगपोछने हेतु व सामग्री ढकने के लिए अवश्य रखें। वे शुद्ध साफहो किन्तु फटे न हों।
» प्रकाश की तरफ आहार रखने के लिए चैकी, पाटालगाये जिससे दाताओं के बैठने से आहार लेने, देने वाले को अंधेरा न पड़े।
» पड़गाहन के पूर्व पुनः चैका का निरीक्षण कर ले कही कोई अपवित्र बाल, वस्तु, जीव, मृत जीव न पड़े हो।
» शुद्धि बोलते समय बर्तनो से दूर मुख हो व हाथ मे कोई भी आहार सामग्री न हो ध्यान रखें।
» आहार मे प्रयुक्त होने वाले मसालो को (जीरे, सोंठ, अजवाइन, मैथी, सौंफ, लौंग, डोंड़ा, इलायची इत्यादि) प्रासुक जल से धो कर पीस कर व संस्कारित करके रखें व पात्र के स्वास्थ्य के हिसाब से तत्काल देवें।
» यदि साधु संकेत करे तो- शुद्धि बोलना, त्याग व विवेक की ओर प्रेरित कर रहे है ऐसा ध्यान दें।
» साधु कब किसी वस्तु का त्याग कर सकते है व ग्रहण कर सकते है। अतः अपनी तरफ से बीच मे टोंक कर बाधा न पहुंचाये। उनके संकेत समझ मे न आये तो चुपचाप रहे । कभी कभी लेने योग्य वस्तु को हटा देते है तथा यह त्याग है ऐसा कहकर पथ्य व हितकारी वस्तुओ का भी वर्जन जाता है।
» माताजी के मुंह व हाथ पोंछते समय ध्यान रखे कि उनहे जोर से धक्का आदि न लगे आराम से व धीरे- धीरे अपना कार्य करें।
» आहार देते समय पात्र के साथ से ग्रास नही उठाना चाहिए क्योंकि इससे पिण्ड हरण नाम का उन्तराय होता है।
» आहार देते समय पात्र के हाथ मे एक बार मे एक ग्रास नही देना चाहिए, कम से कम दो ग्रास देना चाहिए क्योंकि अगर आपने एक ग्रासदिया और उसके शोधन के समय यदि वह ग्रास हाथ से छूटकर गिर जाये तो पिण्डपतन नामका अन्तराय होता है।
» नाखून बड़े नही होना चाहिए और नाखून नेलपालिश से रंगे नही होना चाहिए। तथा हाथ और नाखून साफ स्वच्द होने चाहिए
» चैके के बाहर एक पाटा कमंडल के लिए रख देना चाहिए।
» चैके मे कुंये के प्रासुक पानी का ही प्रयोग करें।
» अक्सर देखा जाता है कि श्रावक जो शुद्धि के लिए जल लेकर आते है। वह बहुत कम मर्यादा वाला है (प्रासुक मात्र होता है) तथा शुद्धि से बचे शेष कमंडलु- जल को लेकर साधु चैके मे आहार लेते जाते है अब यहां श्रावक को देखना है कि हमने या किसी ने किस मर्यादा का जल दिया है अतः उस जल पूर्ण सुखाकर दूसरा जल देना चाहिए।
» कमण्डलु मे तीन उबालो से युक्त (24 घंटे) की मर्यादा वाला जल डालना चाहिये यदि ऐसा न होतो शाम को पुनः कमंडलु सुखाकर प्रासुक जल डालना चाहिये।
» साधु को आहार मे जो नमक देते है उसको अत्याधिक (बांटकर) प्रासुक करके देना चाहिए।