प्राचीन आचार्यो मे महान दार्शनिक आत्र समन्तभद्र ने रत्न करण्डक श्रावकाचार मे दाता, विधि, पात्र और दान महत्वपूर्ण संक्षिप्त विवेचन करते हुए कहते हैं-
सप्त व्यसन के त्याग से शुद्धि श्रद्धा तुप्टि आदि सप्त गुणो से युक्त श्रावक के द्वारा प्रतिग्रहण उच्च स्थान आदि नवधा भक्ति पूर्वक चक्की चूल्हा आदि पांच सूनाओ से और कृषि आदि पट् आरंभो से रहित आर्यों का/ मुनि आर्यों का आदि सुपात्रो का यथा योग्य जो आहार दान औपध दान आदि के द्वारा आदर सत्कार किया जाता है वह दान है।
आहार दान के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कार्तिक भानु प्रेक्षा मे कहा है-
भोजन दान देने पर तीन दान दिये होते है क्यो कि प्राणियो को भूख व प्यास रूपी व्याधि प्रति दिन होती है।
भोजन के बल से ही साधु रात दिन शास्त्र का अध्ययन करते है और भोजन दान देने पर प्राणों की भी रक्षा होती है।
1 . आहार दान से -
विद्या, धर्म, तप, ज्ञान, मोक्ष सभी नियम से दिया हुआ जानो!
2 .
3 . यह शरीर आहार मय है, आहार न मिलने से नियम से नही टिक सकता अतः जिसने आहार दिया उसने शरीर ही दिया जानो।