सूष्म भेय संजुत्तं, क्षिउ उवसम भाव संजदो सुधो।(३८) निम्मल सुध सहावं, अप्पा परमप्प निम्मलं सुधं ।।६९५ ।।
अन्वयार्थ – (सूष्म भेय संजुत्तं) सूक्ष्म लोभ भाव सहित साधु (क्षिउ उवसम भाव - संजदो सुधो) क्षपक श्रेणी पर या उपशम श्रेणी पर होने वाले भावों का धारी शुद्ध संयमी (निम्मल सुध सहावं) निर्दोष शुद्ध आत्मस्वभाव को ध्याता है (अप्पा परमप्प निम्मलं सुधं) आत्मा को परमात्मा रूप मल रहित व रागादि दोष रहित शुद्ध ध्याता है।
भावार्थ - जहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ का उदय इतना अल्प हो कि ध्याता को ध्यान में न झलक सके ऐसे ध्यानमयी साधु को दसवाँ सूक्ष्म लोभ नाम का गुणस्थान होता है।
यह प्रथम शुक्लध्यान में मग्न होता हुआ शुद्धात्मा का ही अनुभव करता है, अंतर्मुहूर्त में ही लोभ का उपशम या क्षय कर डालता है।
घाय चवक्कय विरयं, नंत चतुस्टय भावना सुधं । (३९) कम्ममल पयडि तिक्तं, न्यान सहावेन सूक्षमं परमं॥६९६ ।।
अन्वयार्थ - यह साधु (घाय चवक्क्य विरयं) चार घातिया कर्मों से विरक्त है (नंत चतुस्टय भावना सुधं) अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय की शुद्ध भावना में लीन है (कम्ममल पयडि तिक्तं) सर्व कर्म प्रकृतियों के उदय से ममता रहित है (न्यान सहावेन परमं सूष्म) आत्मज्ञान के स्वभाव में ठहरकर परम सूक्ष्म आत्मा का अनुभव करता है।
भावार्थ - दसवें गुणस्थानवर्ती साधु के अन्तरंग में पूर्व अभ्यास से यह भावना वर्त रही है कि किसी भी तरह घातिया कर्मों का नाश होकर आत्मा के स्वाभाविक अनन्त ज्ञानादि गुणों का विकास हो । वह सर्व कर्मों के उदय को नहीं चाहता है, केवल शुद्ध आत्मा का प्रेमी है। वह निश्चय ध्यान में तिष्ठकर अतीन्द्रिय आत्मा का स्वाद लेता है।
श्री गोम्मटसार में कहा है – “जैसे धुले हुए कौसुंभी वस्त्र के लालपना बहुत सूक्ष्म रह जाता है, वैसे जो साधु अत्यन्त सूक्ष्म राग सहित है; वह सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान वाला जानने योग्य है । यह साधु वीतराग चारित्र के अनुभव में किंचित् ही कम है।"