देस बिति संजुत्तं, एको उद्देस वय गहई सुधं ।(२३) अविरय गुन संजुत्तं, स्रुत न्यानं च भाव उववंनं ।।६८० ।।
अन्वयार्थ - (देस व्रिति संजुत्तं) जो सम्यक्त्वी जीव अणुव्रतों को धारता है (एको उद्देस वय सुधं गहई) एकदेश शक्ति के अनुसार व्रतों को निर्दोष पालता है (अविरय गुन संजुत्तं) तथापि व्रत रहित भाव को भी साथ में लिये हुए हैं (स्रुत न्यानं च भाव उववंनं) परन्तु जो भाव श्रुतज्ञान विशेषपने प्राप्त किये हुए हैं। अर्थात् जिसका आत्मानुभव बढ़ गया है, वही पंचम गुणस्थानवर्ती देशव्रती श्रावक है।
भावार्थ - जब अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम हो जाता है, तब सम्यक्त्वी प्रतिज्ञावान होता है। वह अहिंसादि पाँचों व्रतों को पूर्ण न ग्रहण करके एकदेश पालने लगता है।
जितने अंश में पाँच पापों का त्यागी होता है, उतने अंश में व्रती है, जितने अंश का त्यागी नहीं होता है, उतने अंश का अव्रती हैं। कषायों की मलिनता विशेष दूर हो जाने से यह सम्यक्त्वी जीव चौथे दरजे की अपेक्षा अधिक शुद्धात्मा का अनुभव कर सकता है।
दंसन वय सामाई, पोसह सचित्त रायभत्तीए।(२४) बंभारंभ परिगह, अनुमनु उदिस्ट देस विरदो य॥६८१ ।।
अन्वयार्थ - (दंसन वय सामाई) ग्यारह प्रतिमाएँ या श्रेणियाँ इस पंचम गुणस्थान में होती हैं। १. दर्शन प्रतिमा, २. व्रत प्रतिमा, ३. सामायिक प्रतिमा, (पोसह सचित रायभत्तीए) ४. प्रोषधोपवास प्रतिमा, ५. सचित्तत्याग प्रतिमा, ६. रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा, (बंभारंभ परिग्गह), ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा, ८. आरम्भत्याग प्रतिमा, ९. परिग्रहत्याग प्रतिमा, (अनुमनु उद्दिस्ट-देस विरदो य) १०. अनुमतित्याग प्रतिमा, ११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा । ये सर्व देशव्रती हैं।
भावार्थ - दर्शन प्रतिमा से चारित्र का धारना प्रारंभ होता है। फिर प्रत्येक श्रेणी में चारित्र पहला बना रहता है और कुछ बढ़ जाता है। इस तरह बढ़ते-बढ़ते ग्यारहवीं प्रतिमा में वह साधु के निकट पहुँच जाता है।
ऐलक एक लंगोटी मात्र रखते हैं, उसके त्याग देने से निग्रंथ मुनि हो जाते हैं। इन प्रतिमाओं का विस्तारपूर्वक कथन गाथा ३०१ से ३३७ पर्यंत पहले किया जा चुका है।
पंच अनुव्वयाइं, व्रत तप क्रियं च सुध सभावं।(२५) न्यान सहावदि सुधं, सुधं च अप्प परम पदविंदं॥६८२ ।।
अन्वयार्थ - (पंच अनुव्वयाई) श्रावक पाँच अणुव्रतों का धारी होता है (व्रत तप क्रियं च सुध सभावं) शुद्ध भावों के साथ यह श्रावक व्रत, तप व क्रिया का आचरण पालता है (न्यान सहावदि सुधं) उसका ज्ञान स्वभाव व रत्नत्रयमयी भाव शुद्ध होता है (सुधं च अप्प परम पदविंद) वह शुद्ध आत्मा को व परम पद मोक्ष का अनुभव करता है।
भावार्थ - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग – इनका एकदेश पालना; अणुव्रत है। संकल्पी हिंसा त्यागना, स्थूल असत्य व चोरी त्यागना, स्व-स्त्री में संतोष रखना व सम्पत्ति का प्रमाण कर लेना; ऐसे पाँच अणुव्रतों को यह श्रावक शुद्ध सम्यक्त्व भाव से पालता है।
किसी लौकिक फल की इच्छा नहीं रखता है। उसका सर्व व्रत, उपवास, खानपानादि आचरण शुद्ध भावों के साथ मायाशल्य से रहित होता है। रत्नत्रय धर्ममयी शुद्ध आत्मा का वह प्रेमी होता है और मोक्ष के हेतु से आत्मध्यान का अभ्यास बढ़ाता रहता है।
अप्पा अप्प सरुवं, विरइ मिच्छात दोस संकाई।(२६) अवयास सुध धरनं, मन रोहो निय अप्पानं ।।६८३ ।।
अन्वयार्थ - (अप्पा अप्प सरुवं) आत्मा को आत्मिक स्वरूपमय निश्चय करना (विरइ मिच्छात दोस संकाई) मिथ्यात्वादि दोष व शंका आदि से विरक्त रहना (अवयास सुध धरनं) अपने आत्मा के क्षेत्र को संकल्प-विकल्पों से रहित शुद्ध धारण करना (मनरोहो निय अप्पानं) मन को रोककर अपने आत्मा को अनुभवना यह देशव्रती का मुख्य कार्य है।
भावार्थ – देशव्रती श्रावक जब बाहर से बारह व्रतों का साधन करता है, तब अंतरंग में वह अपने भीतर से सर्व रागद्वेष को व सर्व शंकादि दोषों को दूर कर शुद्ध आत्मा का ध्यान करने का दृढ़ता से अभ्यास करता है।
मन वयन काय सुधं, उक्तंसभाव निस्च जिनवयनं।(२७) दत्तं पत्त विसेषं, एको उद्देस देशव्रत ग्रहनं ।।६८४ ।।
अन्वयार्थ – (मन वयन काय सुधं) मन, वचन, काय की शुद्धतापूर्वक (उक्तं सभाव निस्च जिनवयनं) जो जिन वचनों के कहे अनुसार आत्मा का स्वभाव निश्चय करके भावना करता है (दत्तं पत्त विसेषं) जो दातार भी है व पात्र भी है (एको उद्देस देसव्रत ग्रहनं) ऐसा श्रावक एकदेश व्रतों का धारी है।
भावार्थ - पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक जिन वचनों को भले प्रकार श्रद्धापूर्वक मानने वाला है अर्थात् जिनवाक्यानुसार स्वतत्त्व-परतत्त्व को जानकर निश्चय करने वाला है । पाँच अणुव्रत व सात शीलों को पालता है। ग्यारह प्रतिमा द्वारा चारित्र की उन्नति व आत्मानुभव की उन्नति करता है। यह श्रावक जहाँ तक परिग्रह का स्वामी है, आरंभ कार्य में लीन है, वहाँ तक पात्रों को दान भी देता है।
इसलिए दातार है तथा यह मध्यम पात्र है, दान लेने के योग्य है। पहली प्रतिमा से लेकर छठी प्रतिमा तक मध्यम पात्रों में जघन्य पात्र है। सातवीं, आठवीं, नौवीं प्रतिमाधारी मध्यम में मध्यम पात्र हैं। दसवीं, ग्यारहवी प्रतिमाधारी मध्यम में उत्तम पात्र है।
आरंभत्यागी श्रावक से क्षुल्लक ऐलक तक मुख्यता से ज्ञानदान व अभयदान करते हैं। शेष सर्व श्रावक चारों ही प्रकार का दान करते हैं। श्री गोम्मटसार में इस गुणस्थान का स्वरूप यह है –
“जो जिनेन्द्र देव में व उनके वाक्यों में अपूर्व श्रद्धा को रखने वाला है, त्रस की हिंसा से विरक्त है, उसी समय स्थावर की हिंसा से विरक्त नहीं है; इसलिए उसको विरताविरत कहते हैं। यह श्रावक संकल्पी हिंसा का त्यागी है। आरंभी हिंसा का त्यागी सातवीं तक नहीं है। आगे आरम्भी का भी त्यागी है। जहाँ तक वस्त्र का पूर्ण त्याग नहीं है, वहाँ तक पूर्ण आरम्भी हिंसा का त्याग नहीं है। इसीलिए इसको देशव्रती कहते हैं।"