क्षीन कषायं उत्तं, क्षीनं घाय कम्म मल मुक्कं ।(४१) क्षीयंति क्षीन मोहो, न्यान सहावेन संजुत्त तवयरनं ।।६९९ ।।
अन्वयार्थ – (क्षीन कषायं उत्तं) अब क्षीण कषाय के बारहवें गुणस्थान को कहते हैं जहाँ (क्षीन मोहो क्षीयंति) सूक्ष्म मोह भी नष्ट हो गया है (न्यान सहावेन तवयरनं संजुत्त) जो ज्ञान स्वभाव में तिष्ठकर शुद्ध आत्मतपनरूप तपश्चरण करते हैं (क्षीनं घाय कम्म मल मुक्कं) तथा जो अनंत क्षीणता को प्राप्त घातिया कर्मों के मल को छुड़ा रहे हैं; वे क्षीणमोह गुणस्थानधारी हैं।
भावार्थ - क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाला साधु दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म लोभ का भी क्षय करके सर्व मोहनीय कर्म की वर्गणाओं से रहित होकर के इस गुणस्थान में आकर पूर्ण वीतराग हो जाता है और दूसरे शुक्लध्यान को ध्याता हुआ एकत्ववितर्क अविचार परिणति से ध्यानमग्न हो जाता है । इस शुक्लध्यान के अन्तर्मुहूर्त चलने से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों का बल क्षीण होता चला जाता है।
जब तीन घातिकर्मों का बिल्कुल क्षय हो जाता है तब तेरहवाँ गुणस्थान प्रारंभ हो जाता है । क्षय करने की क्रिया इसी गुणस्थान में होती है।
मन पर्जय उववन्नं, धम्म सुक्कं च निम्मलं रूवं।(४२) रूवातीत सहावं, न्यान सहावेन अप्प परमप्पं ।।७०० ।।
अन्वयार्थ – (मन पर्जय उववन्न) कोई-कोई साधु मनःपर्ययज्ञान के धारी होते हैं (धम्म सुक्कं च निम्मलं रूवं) वे पहले निर्मल आत्म स्वरूप धर्मध्यान को सातवें गुणस्थान तक फिर आठवें से शुक्लध्यान को ध्याते हुए इस गुणस्थान में आते हैं (रूवातीत सहावं) यहाँ अमूर्तिक आत्मा के स्वभाव में लीन हैं (न्यान सहावेन अप्प परमप्पं) ज्ञान स्वभाव में तिष्ठकर आत्मा को परमात्मरूप ध्याते हैं।
भावार्थ - किन्हीं साधुओं को मतिश्रुत दो ही ज्ञान होते हैं और बारहवें में चढ़ जाते हैं। कोई मतिश्रुतअवधि तीन ज्ञानधारी, कोई मनःपर्ययज्ञान सहित चार ज्ञानधारी होकर यहाँ आते हैं।
पहले निर्मल धर्मध्यान किया था उसी के बल से यहाँ निर्मल शुक्लध्यान को ध्या रहे हैं। दूसरा शुक्लध्यान अति निश्चल है, जिसके प्रताप से बिलकुल थिर आत्मा में लीन हैं। श्री गोम्मटसार में कहा है -
“सर्व मोह के क्षय हो जाने से जिस साधु के परिणाम स्फटिक के निर्मल बर्तन में रखे हुए जल की तरह अति निर्मल हैं, उसी निग्रंथ साधु को क्षीणकषाय, वीतराग देवों ने कहा है।"