अपूर्वकरण अपूर्वं, अवधिं संजुत्त निम्मलं सुधं ।(३६) न्यान सहावं नित्यं, अप्पा परमप्प भाव संजुत्तं।।६९३ ।।
अन्वयार्थ – (अपूर्वकरण) अपूर्वकरण गुणस्थानधारी साधु के (अपूर्व) पहले कभी नहीं हुए ऐसे अपूर्व उज्ज्वल भाव होते हैं (अवधिं संजुत्त निम्मलं सुधं) कोई-कोई अवधिज्ञान सहित निर्दोष शुद्ध भाव के धारी होते हैं (न्यान सहावं नित्यं) वे सदा ज्ञान स्वभाव में मग्न रहते हैं (अप्पा परमप्प भाव संजुत्तं) आत्मा को परमात्मारूप अनुभव करते हैं।
भावार्थ - चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों का उपशम करने वाला साधु उपशम श्रेणी व क्षय करने वाला साधु क्षपक श्रेणी चढ़ता है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वी अनन्तानुबन्धी कषाय को उपशम या उनको अप्रत्याख्यानावरण आदि में विसंयोजन (पलटन) करके उपशम श्रेणी चढ़ता है।
क्षायिक सम्यक्त्वी भी उपशम श्रेणी चढ़ सकता है। • क्षपक श्रेणी पर तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही चढ़ता है। • श्रेणी का पहला गुणस्थान अपूर्वकरण है। • यहाँ समय-समय अपूर्व अनन्तगुणी विशुद्धता बढ़ती जाती है। पृथक्त्ववितर्कविचार नाम का पहला शुक्लध्यान प्रारम्भ हो जाता है। इस ध्यान में साधु एकाग्र रहता है; तथापि अबुद्धिपूर्वक योग, शब्द व पदार्थ का पलटन हो जाता है। यहाँ शुद्धोपयोग उन्नतिरूप है। आत्मानुभव की छटा भी अपूर्व है। श्री गोम्मटसार में कहा है - • “इस गुणस्थान में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम अपूर्व होते हैं। भिन्न समयवर्ती ध्यानियों के परिणाम कभी नहीं मिलते। • एक ही समय में चढ़ने वाले जीवों के परिणाम सदृश व विसदृश दोनों प्रकार के होते हैं। • इस गुणस्थान में चढ़ने वाला सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में अधःकरण लब्धि द्वारा परिणामों को समय-समय अनन्तगुणा उज्ज्वल करता है। ये परिणाम इस जाति के होते हैं कि भिन्न समयवर्ती जीवों के मिल भी जावें व न भी मिलें। • दूसरी लब्धि शुरू करते ही अपूर्वकरण गुणस्थान होता है, तब भिन्न समयवर्ती के परिणाम कभी मिलते नहीं हैं।