मिस्र मिश्र सहावं, षट दर्सन सुभाव संजुत्तो।(११) अप्पा परु जानंतो, जिनोक्त दंसन न्यान चरन बूझंतो॥६६८।।
अन्वयार्थ – (मिस्रं मिश्र सहावं) मिश्र गुणस्थान का सम्यक्त्वमिथ्यात्व का मिला हुआ स्वभाव है (षट् दर्सन सुभाव संजुत्तो) ऐसा मिश्र गुणस्थानधारी छहों दर्शनों के स्वभावों को जानता है (जिनोक्त दंसन न्यान चरन बूझंतो) तथा जैन शास्त्र में कहे हुए जैन दर्शन के ज्ञान को भी रखता है (अप्पा परु जानंतो) आत्मा और पर को भी जानता है, परन्तु उसका श्रद्धान मिला हुआ होता है।
न्याइक बौध संजुत्तो, चारवाक सिव भट्ट पिच्छंतो।(१२) षट दर्सन मिसंतो, दव्व काय तत्त जानंतो।।६६९ ।।
अन्वयार्थ – (न्याइक बौध संजुत्तो) मिश्र गुणस्थानधारी जैन दर्शन के साथ-साथ नैयायिक, बौद्ध दर्शन को जानता है या (चारवाक सिव भट्ट पिच्छंतो) चार्वाक दर्शन, शिवमत या सांख्य दर्शन तथा भट्ट के मीमांसक मत को जानता है (षट दर्सन मिस्रंतो) छहों दर्शनों में से छहों के या किसी दो, तीन, चार, पाँच के मिश्र भाव को रखता हुआ (दव्व काय तत्त जानंतो) तप, व्रत पालता है व पंचास्तिकाय व सात तत्त्व जानता है या छह कायों के जीवों को पहचानता है।
व्रत क्रिया संजुत्तो, तव संजम मिच्छ भाव पिच्छंतो।(१३) कुऔधि कुरिधि संजुत्तो, दधि गुड मिस्र भाव मिसंतो॥६७० ।।
अन्वयार्थ - (व्रत क्रिया संजुत्तो) व्रत व चारित्र पालता है (तव संजम) तप व संयम धारण किए हुए हैं तथापि (मिच्छ भाव पिच्छंतो) मिथ्यात्व के भाव सहित हैं (कुऔधि कुरिधि संजुत्तो) उसे कुअवधिज्ञान व कुऋद्धियाँ भी होती है (दधि गुड मिस्र भाव मिस्रंतो) दही गुड़ के मिश्र स्वाद के अनुसार उसका भाव सम्यक्त्व व मिथ्यात्व से मिला हुआ होता है।
रागमय मोह सहिओ, मिच्छा कुत्र्यान सयल संजुत्तो।(१४) पुन्य सहावे उत्तो, रागमय मिस्र गुनस्थान संजुत्तो॥६७१ ।।
अन्वयार्थ - (रागमय मोह सहिओ) वह राग और मोह सहित होता है (मिच्छा कुन्यान सयल संजुत्तो) मिथ्यादर्शन व मिथ्याज्ञान सहित होता है (पुन्य सहावे उत्तो) पुण्यमयी शुभ कार्यों में लीन होता है (रागमय मिस्र गुनस्थान संजुत्तो) रागमयी होता है, ऐसा मिश्र गुणस्थानधारी होता है।
अन्वयार्थ - यहाँ चार गाथाओं में मिश्र गुणस्थान का स्वभाव बताया है। वर्तमान काल के मानवों की अपेक्षा मिश्र भाव को दिखलाते हुए तारणस्वामी ने कहा है कि जो कोई जैन दर्शन के साथ-साथ बौद्ध, नैयायिक, चार्वाक, सांख्य तथा पूर्व या उत्तर मीमांसा का भी श्रद्धान रखता है - जैन के साथ अन्य पाँच का या चार का या तीन का या दो का या किसी एक का श्रद्धान हो, वह मिश्र गुणस्थान है।
जैन शास्त्रानुसार व्रत, तप, क्रिया पालते हुए पर्यायबुद्धि रूपी मिथ्यात्व भाव भी सम्यक्त्व के साथ ही है, वह मिश्र गुणस्थान है।
अवधिज्ञानी व ऋद्धिधारी कोई साधु चौथे या छठे या पाँचवें गुणस्थान से गिरकर मिश्र में आ जाता है। तब उसका अवधिज्ञान व ऋद्धि लाभ भी मिश्र श्रद्धान सहित हो जाता है। सुअवधि व सुऋद्धि लाभ नहीं रहता है।
जैसे दही व गुड़ का स्वाद मिला हुआ रहता है, वैसे सम्यक्त्व मिथ्यात्व का मिला हुआ कोई अनुभवगम्य श्रद्धान होता है। कोई जैन धर्मानुसार शुभ कार्य करता हो, परन्तु संसार का राग या मोह भाव वैराग्य के साथ में आ जावे व सच्चे ज्ञान के साथ मिथ्याज्ञान हो, वह सब मिश्र गुणस्थान का स्वरूप जानना चाहिये । इस गुणस्थान में मिश्र दर्शनमोह का उदय होता है। अनन्तानुबन्धी कषाय तथा मिथ्यात्व का उदय नहीं रहता है। श्री गोम्मटसार में इसका स्वरूप बताया है -
“जैसे दही और गुड़ को मिलाने पर मिला हुआ स्वाद आता है, अलग-अलग दोनों का स्वाद नहीं आ सकता है, उसी तरह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिला हुआ भाव मिश्रभाव है।