अनिवरतं ससहावं, सुध सहावं च निम्मलं भावं।(३७) क्षिउ उवसम सदर्थं, न्यान सहावेन अनिवर्तयं सुधं ।।६९४ ।।
अन्वयार्थ – (अनिवरतं ससहावं) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में साधु आत्मस्वभाव में रहता है (सुध सहावं च निम्मलं भावं) शुद्ध स्वभाव में मग्न रहता है, निर्मल भावों का धारी होता है (क्षिउ उवसम सदर्थं) या तो क्षपक श्रेणी पर होता है या उपशम श्रेणी पर होता है, सत्य अस्तिरूप आत्म पदार्थ को (न्यान सहावेन) ज्ञान स्वभाव में ही तिष्ठकर ध्याता है (सुधं अनिवर्तयं) तब यह शुद्ध अनिवृत्तिकरण के परिणामों को पाता है।
भावार्थ - जहाँ शरीर, आयु इत्यादि में भेद होने पर भी एक समयवर्ती नाना जीवों के परिणामों में समान समय-समय विशुद्धता की उन्नति होती है - एक समयवर्ती जीवों के परिणाम समान रहे, सो अनिवृत्तिकरण लब्धिधारी नौवाँ गुणस्थान है।
यहाँ भी उपशम या क्षपक श्रेणी होती है। प्रथम शुक्ल-ध्यान से यह साधु आत्मध्यान की ऐसी अग्नि जलाता है, जिससे सिवाय सूक्ष्मलोभ के सर्व मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय कर डालता है। श्री गोम्मटसार में कहा है –
“जहाँ शरीर के आकार आदि के भेद होने पर भी एक समयवर्ती सर्व जीवों के विशुद्ध परिणामों में जहाँ कोई भेद न पाया जावे, वह अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है।"