अब अन्त में दशलक्षण धर्म के फल को दर्शाते हुए जयमाल कहते हैं-
दश लक्षण वन्दूँ सदा, भाव सहित सिर लाँय । कहूं आरती भारती, हम पर होहु सहाय ॥ उत्तम क्षमा जहां मन होई । अन्तर बाहर शत्रु न कोई ॥१॥ उत्तम मार्दव विनय प्रकाशे । नाना भेद ज्ञान सब भाषे ॥२॥ उत्तम आर्जव कपट मिटावे । दुर्गति त्याग सुगति उपजावे॥३॥ उत्तम सत्य वचन मुख बोले । सो प्राणी संसार न डोले ॥४॥ उत्तम शौच लोभ परिहारी। सन्तोषी गुण रत्न भण्डारी ॥५॥ उत्तम संयम पाले ज्ञाता । नरभव सफल करे लहि साता ॥६॥ उत्तम तप निवांछित पाले । सो नर कर्म-शत्रुको टाले ॥७॥ उत्तम त्याग करे जो कोई । भोगभूमि सुर-शिव-सुख होई ॥८॥ उत्तम आकिंचन व्रत धारे । परम समाधि दशा विस्तारे ॥९॥ उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे। नर सुर सहित मुकति फल पावे ॥१०॥
को कर्मकी निर्जग, भव पीजग विनाश । अजर अमर पदको लहे, ‘यानत' सुखकी राश ॥
दशों दिवसोंके दश जाप्यमंत्र।
ॐ हीं अर्हन्मुखकमलसमुद्भुताय उत्तमक्षमाधौगाय नमः ।।१।। ॐ हीं " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " मादेव" " " ॥२॥ ॐ हीं " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " आजेन" " " ॥३॥ ॐ हीं" " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " सत्य " " " ॥४॥ ॐ हीं " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " "शौच " " " ॥५॥ ॐ हींग" " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " संयम" " " ॥६॥ ॐ ह्रीं " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " तप " " " ॥७॥ ॐ हीं " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " त्याग" " " ॥८॥ ॐ हीं " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " आकिंचन्य" " " ॥ ॥९॥ ॐ हीं " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " " ब्रह्मचर्य " " " ॥१०॥
इस प्रकार उत्तम क्षमा, मार्दव आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दश धर्मोका संक्षिप्त वर्णन किया।
कह्यौ भाव दश धर्मको, 'दीप' बुद्धि अनुसार । भूल चूक कछु होय तो, बुध जन लेहु सुधार ।।
श्री दशलक्षण धर्म के सवैये।
पंच जिनेन्द्र धरूं मनमें जिस नाम लिये सब पातक भाले । शारद मात प्रणाम करूँ जिस हस्त कमण्डलु पोथी विगजें ॥ गौतम पाय नमूं मन शुद्ध सु अंग उपांग वखाणहि गाजे । सद्गुरुको उपदेश सुनो हम धर्म सदा दशलक्षण छाजे ॥१॥
(१) क्षमा।
केवल एक क्षमा बिन ही तप संयम शील अकारथ जानो। पाक सुपाक बनो सुधरों जैसें नौंन विहीन अनाजको खानो॥ देव जिनेन्द्र कहे जगमें, जन तारणको यह वाहन जानो । 'ज्ञान' कहे नर अन्तर सूझत सार क्षमा दश लक्षण रानो ॥१॥
(२) मार्दव।
मार्दव भाव न आवत ज्योलग त्योलग धर्म कहां उपजावें । भाव कठोर रहे घट भीतर नूतन पाप संयोग बढ़ावें ।। आरत रौद्र वसे उसके मन पापसे निश्चय दुर्गति पावें । 'ज्ञान' कहे. मृदुभावके धारक फेर कभी जगमाहिं न आवें ॥२॥
(३) आर्जव
आजब भाव धरे मनमें जिससे भव नाशक मोक्ष सिधारे । ड्नत जो भवसागरमें निस हाथ पकड़ भवपार उतारे । संपत देन उदार बड़ो, यह आर्जव कर्मको मान विदारे । 'ज्ञान' कहे वह मृढ़ बड़ा भव मानव पाय न आर्जव धारे ॥३॥
(४) सत्य ।
सत्य नहीं जिसके घट भीतर सो नर क्यों गिनतीमें गिनाये। राय वश जग देखत इन गयो गति नर्क महा दुख पाये ॥ झूठ बसे जिसके मुयमें जगमें नर ते नरके हि समाये । 'ज्ञान' कह भवतारनको नौका नहिं अन्य जु सत्य विना ये ॥४॥
(५) शौच।
शौच खगे जिय लोभ त्यजन मन शुद्ध रहे परमारथ केरो । इन्द्रिय पंच रहें अपने वश कर्म कपायको पाहत घेरो ॥ मंत्र स्नान करें मुनिपुंगव, पावत नाहि संसारको फेरो। 'ज्ञान' कहे जग शौच यही हग ज्ञान चरण परमारथ हेरो ॥५॥
(६) संयम।
संयम दोऊ कहे जिनराजने संयमसे शिव मारग लहिये। पाप लगे, सब संयमसे हर, कर्म कठोर कपाय दहीजे ॥ संयमसे भवपार तरे नर संयम मुक्ति-सखा जग कहिये। 'ज्ञान' कहे लहि मानवदेह विना शुभ संयम कैसेके रहिये ।।६।।
(७) तप ।
दुर्घर कर्म गिरींद्र गिरावन बज्र समान महातप ऐसो । वारह भेद भणंत जिनेश्वर पाप पखालन पानीय जैसो ॥ दुःख विहंडण सौख्य समप्पण पंच हि इन्द्रिय रक्षण तैसो । 'ज्ञान' कहे तपस्या विन जीव जो मोक्ष पदारथ पावत कैसो ॥७॥
(८) त्याग।
दान बड़ी जगमें नरको शुभ दानसे मान लहे जग मानव । भूप दयाल भये सबको अरि मित्र भये अरु सेवत दानव ।। दानसे कीर्ति बढ़े जग भीतर दान समान न और कहा नव । 'ज्ञान' कहं भवपार उतारण दान चतुर्विध सार कहो तब ॥८॥
(९) आकिंचन्य ।
आलस अंगसे दूर करी कर नाम अकिंचन अंग धरावो । आलजंजाल तजो घटसे मन शुद्ध करो समता घर आवो । जप तीर्थ करी फल इच्छित हो, तिस मूल भये फल किंचित पायो । 'ज्ञान' कहे नरको सुखदायक शुद्ध मने परमारथ ध्यावो ॥९॥
(१०) ब्रह्मचर्य।
शील सदा नरको सुखदायक शील समान बड़ो नहिं कोई । शील फले भई शीतल पावक, सीताको जग देखत होई ।। सेठ सुदर्शन शूली सिंहासन, शील भले भव साधत दोई । 'ज्ञान' कहे नर सोहि विचक्षण जो नर पालत शील समोई ॥१०॥
श्री दशलक्षण व्रत-कथा
प्रथम बंदि जिनराजको, शारद गणधर पाय । दशलक्षणव्रतकी कथा, कहूं सबहि सुखदाय ॥ १॥ विपुलाचल श्रीवीर कुँवार, आये भवभंजन भरतार । सुन भूपति तहं वंदन गयो, सकल लोक मिलि आनंद भयो ॥२॥ श्रीजिन पूजे मन धर चाव, स्तुति करी जोड़कर भाव । धर्मकथा तहं सुनी विचार, दान शील तप भेद अपार ॥ ३ ॥ भवदुख क्षायक दायक शर्म, भापो प्रभु दशलक्षण धर्म । ताको सुन श्रेणिक रुचि धरी, गुरु गौतमसे विनती करी ॥४॥ दशलक्षणव्रत कथा विशाल, मुझसे भापो दीनदयाल । बोले गुरु सुनि श्रेणिक चन्द्र, दिव्यध्वनि कही वीर जिनेन्द्र ।।५। खण्ड धातुकी पूरव भाग, मेरुथकी दक्षिण अनुराग । सीतोदा उपकंठी सही, नगरी विशालाक्ष शुभ कही ॥६॥ नाम प्रीतंकर भूपति बसे, प्रियंकरी रानी तसु लसे । मृगांकरेखा सुता सुजान, मतिशेखर नामा परधान ॥ ७॥ शशिप्रभा ताकी वरनार, सुता कामसेना सुखकार । राजसेठ गुणसागर जान, शीलसुभद्रा नारि वखान ॥ ८॥ सुता मदनरेखा तसु खरी, रूप कला लक्षण गुण भरी। लक्षभद्र नामा कुतवाल, शशिरेखा नारी गुणमाल ॥ ९॥ कन्या तास घरे रोहनी, ये चारों वरणी गुरु तनी । शास्त्र पढ़ें गुरु पास विचार, स्नेह परस्पर बढ़ो अपार ॥१०॥ मास वसन्त भयो निरधार, कन्या चारों वनहि मँझार। गई मुनीश्वर देखे तहाँ, तिनको वन्दन कीलो वहाँ ॥११॥ चारों कन्या मुनिसे कही, त्रिया-लिंग ज्यों छूटे सही। ऐसा व्रत उपदेशो अत्रै, यासे नर तन पा सबै ॥१२॥ बोले मुनि दशलक्षण सार, चारों करो होहु भवपार । कन्या बोलीं किम कीजिये, किस दिनसे व्रतको लीजिये ॥१३॥ तब गुरु बोले वचन रसाल, भादों मास कहो गुणमाल । अरु पुनि माघ चैत्र शुभ मान, तिनके अंतिम दिन दश जान॥१४॥ धवल पंचमी दिनसे सार, पूनम तक कीजे शुभ सार । पंचामृत अभिषेक उतार, जिन चौवीस तनी उर धार ॥१५॥ 'पूजार्चन कीजे गुणमाल, आरति कर नमिये निजभाव । उत्तम क्षमा आदि गुणसार, दशमो ब्रह्मचर्य उर धार ॥१६॥ पुष्पांजलि इस विधि दीजिये, तीनों काल भक्ति कीजिये । इस विधि दश वासर आचरो, नियमित व्रत शुभ कारज करो ॥१७॥ उत्तम दश अनशन कर योग, मध्यम व्रत कांजीका भोग । भूमि शयन कीजे दश राति, ब्रह्मचर्य पालो सुख पाति ॥१८॥ जपो दिवस दशकी दश जाप, जासों होंय नाश सब पाप । तीन काल सामायिक करो, जिन आगम गुरु श्रद्धा घरो ॥१९॥ इस विधि दशों वर्षे जब जाँय, तब तक व्रत कीजे धुर भीष फिर व्रत उद्यापन कीजिये, दान सुपात्रोंको दीर्जियः ।। औपधि, अभय, शास्त्र, आहार, पंचामृत अभिषेक हि सार। मंडल मांड पूजा कीजिये, छत्र चमर आदिक दीजिये ॥२१॥ उद्यापनकी शक्ति न होइ, तो दूनो व्रत कीजे लोइ । संचे पुग्यतनो भंडार, परभव पावे शिवपुर द्वार ॥२२॥ तब चारों कन्या व्रत लियो, मुनिवर भक्तिभाव लखि दियो। यथाशक्ति व्रत पूरण करो, उद्यापन विधिसे आचरो ॥२३॥ अन्तकाल वे कन्या चार, सुमरण करो पंच नवकार । चारों मग्ण समाधिसु कियो, दश स्वर्ग जन्म तिन लियो॥२४॥ पोड़श सागर आयु प्रमाण, धर्मध्यान सेवें तहां जान । सिद्धक्षेत्रमें करें विहार, क्षायक सम्यक् उदय अपार ॥२५॥ सुभग अवन्ती देश विशाल, उज्जयनी नगरी गुणमाल । स्थूलभद्र नामा नरपती, नारी चारु सो अतिगुणवती ॥२६॥ देव गर्भ में आये चार, ता रानीके उदर मंझार । प्रथम सुपुत्र देवप्रभु भयो, दूजो सुत गुणचन्द्र ही कहो ॥२७॥ पद्मप्रभ तीजो बलवीर, पद्मसारथी चौथो धीर । जन्म महोत्सव तिनको करो, अशुभ दोष गृहको सब हरो ॥२८॥ निकलप्रभा राजाकी सुता, ते चारों परणी गुण युता।। प्रथम सुता सो ब्रह्मी नाम, दुतिय कुमारी सो गुणधाम ॥२९॥ रूपवती तीजी सुकुमाल, सुता तूर्य मृगाक्ष गुणमाल । 'कर व्याह घरको आइयो, सकल लोक घर आनंद लियो ॥३०॥ स्थूलभद्र राजा इक दिना, भोग विरक्त भयो भवतना । राज पुत्रको दीनो सार, वनमें जाय योग शुभ धार ॥३१॥ तप कर उपजो केवल-ज्ञान, वसु विधि हनि पायो निर्वाण । अब वे पुत्र राजको करें, पूर्व पुण्य फल सुख सब करें ॥३२॥ चारों बांधव चतुर सुजान, अहि निशि धरै धर्म शुभध्यान । एक समय विरक्त सो भये, आतम कार्य चितवत ठये ॥३३॥ चारों बांधव दीक्षा लई, बनमें जाय तपस्या ठई । निज मनमें चिद्रूपाराधि, शुक्लध्यानको पायो साधि ॥३४॥ सर्व विमल केवल ऊपनो, सुख अनन्त तव ही सो ठनो। करो महोत्सव देवकुमार, जय २ शब्दः भयो तिहिवार ॥३५॥ शेष कर्म निर्वल तिन करे, पहुँचे मुक्तिपुरीमें खरे। अगम अगोचर भवजल पार, दशलक्षण व्रतको फल सार ॥३६॥ चीर जिनेश्वर कही सुजान, शीतल जिनके बाड़े मान । गौतम गणधर भाषी सार, सुन श्रेणिक आये दरवार । ३७॥ जो यह व्रत नरनारी करे, ताके गृह सम्पति अनुसरे । भट्टारक. श्रीभूषणवीर, तिनके चेला गुणगम्भीर ॥३८॥ ब्रह्मज्ञानसागर सुविचार, कही कथा दशलक्षण सार । मन, वच, तन, व्रत पाले जोई, मुक्ति वरांगना भोगे सोई ॥३९॥
॥ इति श्रीदशलक्षणव्रतकथा सम्पूर्णम् ॥
प्रशस्ति
एक मध्य प्रांतक मध्य जान । नरसिंहपुर नग्र कहो बखान ।। तह. बने जनमंदिर विशाल । दर्शनसे मन होये खुशाल । नह चमें जैनधर्मी सुधीर । परवार वैश्य अति गुण गहीर ।। तिन मांहि गण्य दग्यावलाल । सुत जये कुज मन नाथूलाल । पनि नागमक मुत मु चार । वर दीपचन्द्र जेठे कुमार ।। अरु कान्लाम छोटे मु लाल । भूपेन्द्र कुंवर सब ही खुशाल ॥ निज मान मग्णलय दीपचन्द्र । हा विगति धरे बन श्री जिनेन्द्र ।। श्रावक प्रतिमा ममम सुजान । मुन किसनदासके तृतीय मान । श्री मूलचन्द्र इन कही जाय । लिग्वियं दशधर्म स्वरूप माय ।। प्रतधारी जे नग्नारि हाय । पदि हैं व्रत दिवसा जु साय ॥ यह सुन वर्णी वृप-बुद्धि धार । संक्षिप्त कथन कर श्रुनाधार ॥ यह लियो लेख निज धी प्रमान निहिं ग्न्यानि लाभकी चाह आन|| यह जैन धर्म आगम अपार । तामें दश लक्षण धर्म सार ।। मां अल्प बुद्धि यग्णा बनाय । बुधजन शुध कीजे भूल पाय | मंचन श्री वीरजिनेश मार । चौविस सी चालिस शुभ सुधार ॥ पपण व्रत दा धम सार । पूरन कीनो हित स्वपर धार ॥ जो भविजन पढ़ि हैं चिन लगाय। अरु करि हैं व्रत मन वचन काय॥ सो लाह हैं मुर नर मुःख सार । अनुक्रम पावेंगे मुक्ति द्वार ॥ तासे भी भविजन ! हृदय आन। व्रत पालो कथा पढ़ो सुजान ।। धारा धूप जिनवर कथित सार । ज्यों दीपचन्द्र भव लहो पार ।।
॥ इति ॥