जो चयदि मिट्ठभोज़ उवयरण रायदोससंजणय। वसदि ममत्तहेतुं चायगुणो हवे तस्स ॥ ८ ॥
अर्थात्- जो विषयोत्पत्ति व वृद्धिका कारण मिष्ट पुष्ट गरिष्ट भोजन न करे, रागादि भावों की उत्पत्तिका कारण उपकरणादिको छोड़े, और ममत्वका कारण वस्तिका तकका त्याग करे, उसके उत्तम त्याग धर्म होता है । इसीको आगे और भी कहते हैं ।
(स्वा० का० अ०)
"त्यजतीति त्यागः" अर्थात् त्यजना, छोड़ना व देना इसे त्याग कहते हैं। उत्तम विशेषण इसकी निर्मलताका सूचक है। अर्थत् जिस दानमें किसी प्रकार मान बड़ाई या छल कपट आशा व बदला पानेकी इच्छा या ख्याति लाभादि कषायोंकी पुष्टि न की गई हो, उसे ही उत्तम दान कहते हैं ।
तात्पर्य- दान उसे कहते हैं, जिससे स्वररका उपकार हो । जैसा कहा है-'अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् अर्थत् अनुग्रहके लिये अपने द्रव्यसे ममत्वका त्याग करना सो दान है । वास्वमें दान देनेसे, उस वस्तुसे जो दानमें दी जाती है, अपना ममत्व छूटता है और वह जिसे दीजाती है, उसकी अभीष्ट सिद्धि होनेसे उसके आर्त परिणामोंकी न्यूनता होती है इसीलिये स्वपरोपकरार्थ कहा गया है।
जिस दानसे दाताके मानादि कषायें बढ़े व पात्रके विषयोंकी वृद्धि हो, अथवा एकके दानसे बहुतोंका घात होता हो, वह दान नहीं कहा जाता है; क्योंकि उसमें स्वपरका अपकार होता है।
दान दो प्रकारका है-अंतरंग अर्थत् स्वदान और बाह्य अर्थात् 'परदान।
अंतरंग दान ( स्वदान ) उसे कहते हैं, जिसमें अपने आत्माको अनादि कालके लगे हुए मोह, राग, द्वेष, ममत्वादि भावोंसे जिनके कारण वह सदा भयभीत और दुःखी रहता है, छुड़ाकर निर्भय कर देना।
बाह्य दान ( पग्दान ) वह है, जिसमें दूसरे जीवोंके उपकारार्थ उनकी आवश्यकतानुसार आहार, औषधि, शास्त्र और अभय आदि दान दिया जाय।
दान कई प्रकारसे दिया जाता है। जैसे भक्तिदान, करुणादान, कीर्तिदान, समदान इत्यादि । इनमें अंतके समदान और कीर्तिदान ये दो दान केवल लौकिक व्यवहारार्थ हैं । इनसे परमार्थ कुछ भी नहीं होता है किन्तु पहिले दो-भक्तिदान और करुणादान ये दान श्रेष्ठ हैं।
भक्तिदान साधु, मुनि आदि गुरुजनोंको, तथा 'साधर्मी व्रती श्रावकों और सम्यग्दृष्टि जीवोंको, उनके दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी वृद्धिके अर्थ हर्पयुक्त होकर दिया जाता है।
करुणादान दुःखित, भूखे, अंगहीन, अपाहिज, निःसहाय, चालक, वृद्ध, स्त्री, दीन जीवोंको, उनके दुख दूर करनेको करुणाभावोंसे दिया जाता है।
सुदान और कुदान इस प्रकार से भी दान दो प्रकार का है।
सुदान वह है, जो भक्तिसे संयमी मुनि, व्रती, श्रावक, अवती सम्यग्दृष्टि आदि सुपात्रोंको तथा करुणाभावसे दुःखी, दीन, निःसहाय जीवोंका दिया जाय।
कुदान वह है जो कीर्तिके लिये पात्र अपात्रको ने देखकर केवल विषयकषायोंको बढ़ानेवाली वस्तुएं जैसे, गज, 'अश्व, गाय, 'महिषी, गाड़ी, रुपया, पैसा, स्त्री, मकान आदि देना।
ऊपर चार प्रकारका दान तो सामान्य प्रकारसे बताया गया है, . "किन्तु द्रव्य, क्षेत्र, कॉल, और भावकी अपेक्षासे दानके प्रकारों में भी विशेषता पड़ जाती है और सदा काल किसी एक ही दानकी मुन्यता नहीं रहती है । आवश्यकतानुसार दानोंमें मुख्यता और गौणता हुआ करती है। जैसे भूखेको भोजन देनहीकी मुख्यता है, रोगीको औषधि देनेकी, भयातुरको अभयदान देनेकी और मूर्खको ज्ञान दान ही देनको मुख्यता है । जब कोई भूखसे पीड़ित हो तब उसे औषधि, रुपया, पैसा, शास्त्रादि देना निष्प्रयोजनीय है, उसे तो पेटभर भोजन ही देना उचित है-जैसे एक मुर्गा जो भूखसे व्याकुल हो, भक्ष्यकी खोजमें फिर रहा था, उसे मोती दृष्टि पड़ा तब उससे अति घृणासे कहा-" रे मोती ! यद्यपि तू जौहरीके निकट जो कि तुझे चाहता है, भले ही बहुमूल्य है, किन्तु इस समय मेरी दृष्टिमें तो तू एक दाने अनाजसे भी कम दामका है।" इसी प्रकार जब जहां मरी, प्लेग, विशूचिका आदि बीमारियां फैल रही हों, तब वहां कोई शास्त्र बांटने लगे, तो व्यर्थ ही होगा । इसलिये दान करनेके पहिले दानका द्रव्य, दानका पात्र, दानकी विधि, क्षेत्र व कालकी आवश्यकता और अपनी शक्ति देख लेना आवश्यक है, तभी वह दान सार्थक होता है।
औषधि, शास्त्र, अभय और आहार इन चार दानोंके सिवाय यदि आवश्यक है तो मकान, रुपया, वस्त्र, वाहनादि भी दिये जा सकते हैं, कुछ इनका सर्वथा निषेध नहीं है। जैसे वस्तिका, प्रोषधशाला, धर्मशाला, पाठशाला, चैत्यालय, आदि सर्वसाधारणके उपकारार्थ बनवा देना. मकान या स्थान दान है । रुपयोंसे अनाथाश्रम, छात्राश्रम, श्राविकाश्रम, विद्यालय, औषधालय, पुस्तकालय खोल देना हिरण्य दान है । सर्वसाधारणके उपकारार्थ सत् शास्त्रों को प्रकाशित करके विनामूल्य व अल्पमूल्यमें वितरण करना, शीत ऋतुमें दीन पीड़ितोंको वस्त्र देना, विद्यार्थियोंको वस्त्र बनवा देना, 'सत्पात्र साधर्मी भाइयोंको जिनके पास तीर्थ यात्रादिका साधन न हो, उन्हें उसका साधन वाहन आदिका बन्दोवस्त कर देना, इत्यादि।
दानमें दानकी विधि, दानका द्रव्य, दानका पात्र और दातारके भावोंकी अपेक्षासे अर्थात् विशेषतासे विशेषता होती है। इनमें दातारके भाव मुख्य हैं । शुभ भावोंसे सुपात्रको उसकी योग्यतानुसार दिया हुआ दान अतुल फलदाता होता है। जैसे तीर्थङ्करको दिया हुआ दान दाताको तद्भव मोक्ष पहुंचा देता है और कुपात्रको दिया हुआ दान हीनऋद्धि, कुभोगभूमि या तिर्यचगतिका कारण होता है। कहावत है-
"मान बढ़ाई कारणे, जे धन खर्चे मूढ़ । मरकर हाथी होयँगे, धरनी लटके झूढ़॥"
और अपात्रको दिया हुआ दान तो नरक निगोदादि गतिको ही ले जानेवाला होता है।
दान आत्माका निजभाव है, इसीलिये इसे धर्म कहा गया है। कारण कि मोहादि भाव, जिनसे यह जीव परवस्तुओंको अपनाकर उनमें लवलीन हुआ “ मैं मैं और मेरा मेरा " कर रहा है और जिनके संयोग वियोगमें हर्ष-विपाद करता है, इसके स्वभाव नहीं हैं किंतु विभाव हैं। और यह जीव तो इनसे भिन्न स्वच्छन्द सम्पूर्ण पदार्थोंका ज्ञाता-दृष्टा मात्र है, कर्ता भोक्ता नहीं है, सबसे भिन्न स्वरूपमें रमण करनेवाला सचिदानन्द स्वरूप है । जब यह आत्मा स्वानुभव करता है तो तीन लोककी संपत्तिको तृणवत् देखता है। इन सब पदार्थोंको कर्मकृत उपाधि मानता है, तब इनसे विरक्त हो इन्हें जहांकी तहां छोड़कर स्वरूपमें लीन होजाता है । और यदि कोई प्रबल चारित्रमोहकर्म इन्हें सर्वथा छोड़नेमें बाधक होता है तो जलकमलवत् विरक्त भावोंसे लक्ष्मीका भोगोपभोग करता हुआ उससे भिन्न रहता है तथा यथासंभव समय २ उसे त्याग भी करता जाता है और सुअवसर पाकर इनको सर्वथा त्याग देता है।
थोड़ा २ त्याग करनेका प्रयोजन केवल विना संक्लेश भाव हुए ममत्व भाव घटाना तथा त्यागशक्तिका बढ़ाना है । जो निरंतर थोड़ा बहुत दान किया करते हैं, वे किसी समय सर्वथा त्याग करनेमें भी समर्थ होते हैं, परन्तु जिन्हें खर्च करनेका ( दान करनेका ) अभ्यास नहीं होता है, वे अवसर आनेपर भी छोड़ नहीं सकते और इस सम्पत्तिके इतने मोहमें पड़ जाते हैं कि मरते मरते भी उन्हें अपनी द्रव्यरक्षाकी चिन्ता बनी रहती है जिससे कितने तो मरकर अपने पूर्वजन्मके द्रव्य-कोष ( भण्डार) में सर्प होते हैं । और यह तो निश्चित सिद्धान्त है कि जिस पर वस्तुका संयोग होता है उसका नियमसे वियोग होता है। सो द्रव्य या तो अपने संचय करनेवालेको उसका पुण्य क्षीण होते ही उसी जन्ममें उसके ही सामने ही छोड़कर चला जाता अर्थात् पृथक् होजाता है। जैसे बहुतसे बड़े २ रईस, व्यापारी, जौहरी आदि देखते २ धनहीन हो, पर-आश्रित भोजन पानेको भी तरसते देखे जाते हैं । अर्थात् राजासे गरीब-निर्धन' (रक) हो जाते हैं .या संचयकर्ता स्वयं अपने द्रव्यंको छोड़कर चले जाते अर्थात् मर जाते हैं। ऐसी अवस्थामें जिनको द्रव्य उत्पन्न करके उसका दान करनेका अभ्यास होता है, उन्हें तो द्रव्यके वियोग होनेपर भी न कुछ कष्ट होता है और न उसके संयोगमें हर्ष होता है । क्योंकि वे तो उसके चंचल स्वभावसे परिचित हैं, इसीसे उसे दृढ़तासे नहीं पकड़ते और देते रहते हैं । 'परन्तु जिन्हें दान करनेका अभ्यास नहीं है, वे तो हाय २ करके मरकर पशु व नरकगतिमें घोर दुःख भोगते हैं।
जो लोग द्रव्य एकत्र ही करते हैं और खर्च नहीं करते हैं, ऐसे कंजूसके संसारमें अनेक लोग निष्कारण ही शत्रु बन जाते हैं और धनी कंजूस सदा चिंतावान् तथा भयवान् बना रहता है। जहां उनके पास कोई मिलनेको भी आया कि उन्हें यही शंका रहती है 'कि कहीं यह कुछ मांगेगा तो नहीं ?
एक समय एक सेटके यहां कोई उपदेशक गया, तो मिलते ही सेठजीने जुहारुके बदले यही कहा " थे, कांई कुछ मांगेगा तो नई ? अठे लेवा देवारी बात करो मती" तात्पर्य यह कि कंजूस सदा शंकित रहता है। कभी२ वह अतिलोममें पड़कर धूनोंके हाथ उलटा पासका सब धन खो बैठता है । तथा ऐसे २ और भी बहुतसे अनर्थ करता है। निदान जब अन्त समय आता है तो और तो क्या, अपना चिरपोषित शरीर तक भी साथ नहीं जाता और सब ठाट यहीं पड़ा रह जाता है। केवल उतना ही साथ जाता है जो उत्तम भावपूर्वक भक्ति व दयादानमें दिया हो । सो यदि कुछ उन्होंने दिया होता तो. अवश्य वह उसको आगामी किसी समय मिल जाता । इसलिये जिन्हें 'अपने साथ ले जाना है। उन्हें चाहिये कि अपने सामने क्या, अपने ही हाथसे अपना द्रव्य सुपात्र दानमें लगाकर अपने साथ ले जाय । कहा है कि-
"घर गये सो खोगये; अरु देगये सो ले गये।" "यिता रत्नाकरो यस्य, लक्ष्मी यस्य सहोदरी। शंखो भिक्षाटनं कुर्यात, नादत्तमुप्रतिष्ठते ॥"
अर्थात्- समुद्र ( जिसमें रत्न उत्पन्न होते हैं ) जिसका पिता है और लक्ष्मी बहिन है, वही शंख घर घर भीख मांगता फिरता है। यह दान न देनेका ही फल है। प्रत्यक्षमें देखा जाता है कि एक पिताके ४ पुत्रोंमें ३ धनी और १ निर्धन होजाता है, यह सब दानका माहास्य है । इसलिये सदा दान करनेका अभ्यास रखना चाहिये । जिनको ममत्व कम होता है, वे ही दान करते हैं और जब सर्वथा ममत्व छूट जाता है, तब उसे सर्वथा छोड़कर उत्तम पुरुष स्वात्मसिद्धि में लग जाते ।
बहुत से लोग अपने जैसे श्रीमानोंको खिलाने या जीमनवार करनेको ही दान समझते हैं, पर यह उनकी भूल है, क्योंकि श्रीमानोंको देना निरर्थक है। कहा भी है-
"वृथा वृष्टिः समुद्रेषु, वृथा तृप्तेषु भोजनम् । वृथा दानं धनाढ्येषु, वृथा दीपो दिवापि च ॥"
अर्थात- समुद्रमें वृष्टि होना, खाये हुएको खिलाना, धनीको दान देना और सूर्यको दीपक बताना व्यर्थ है । बहुत लोग अपनी बहिन, बेटी; बेटा, स्त्री आदिको कुछ द्रव्यका विभाग करके अपनेको दानी मान लेते हैं, परन्तु यह भी दान नहीं है, क्योंकि वे लोग तो दयादार हैं । न दोगे, तो लड़ झगड़कर तुम्हारे आगे पीछे लेवेगे ही, तब उन्हें देकर तुमने क्या दान किया ? यदि किसी निरपेक्ष पुरुषको भक्ति व करुणासे दिया, तो निःसंदेह वह दान कहाता । कितने लोग विना सोचे समझे पुरानी रूढिको पकड़े हुए केवल एक ही कार्य मंदिर बनाने व स्थ प्रतिष्ठादिमें जो कि कुछ कालसे उस समयकी आवश्यकतानुसार किसी बुद्धिमान पुरुपका चलाया हुआ था, खर्चते चले जाते हैं, और यह नहीं देखते कि अब इसकी कहां कैसी आवश्यकता है या नहीं है ? विना आवश्यकताका दान द्रव्यका अपव्यय मात्र समझना चाहिये । इसलिये सदा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी योग्यताको समझकर ही दान देना चाहिये। जो दान नहीं देते हैं वे अपने ही आत्माको ठगते हैं-अर्थात् मोहसे तीन कर्म बन्ध कर संसारमें भटकते हैं, इसलिये दान करना मनुष्यका प्रधान कर्तव्य है । सो ही कहते हैं-
दान चार परकार, चार संघको दीजिये । धन बिजली उनहार, नरभव लाहो लीजिये। उत्तम त्याग कहांजग सारा,औषधि शास्त्र अभय आहारा। निश्चय रागद्वेष निरवारे, ज्ञाता दोनों दान सम्हारे ॥ दोनों सम्हारे कूप जल सम, द्रव्य घरमें परिणया । निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाया खोया वह गया। धन साधु शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोधको। विन दानश्रावक साधुदोनों; लहें नाहीं बोधको ॥ ८ ॥