जिणवयणमेव भासदितं पालेदुं असक माणो वि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो ॥
अर्थात्- जो सदैव जिन सूत्रानुसार ही वचन बोलते हैं और यदि वे तीव्र कर्मके उदयसे कदाचित् उनके अनुसार चल भी नहीं सकते, तो भी कमी असत्य भाषण नहीं करते, न कभी व्यवहारमें ( अथवा हास्य कौतुक छलकर भी ) झूठ बोलते हैं वे सत्यवादी कहे जाते हैं। ऐसे पुरुषों के वचन सदैव स्वपर कल्याणके करनेवाले होते हैं।
(स्वा० का० अ०)
कहा भी है कि- सते हितं यत् कथ्यते तत् सत्यम्
अर्थात् - भलाईके लिये जो बोला जाय उसे ही सत्य कहते हैं और भलाई तब ही हो सकती है जब कि वस्तुका स्वरूप जैसा है वैसा ही-न्यूनाधिकता रहित कहा जाय, इसलिये यथार्थ बोलना ही सत्य बोलना हो सकता है। उत्तम शब्द गुणवाचक है। यह बताता है कि जिस कथनमें अपनी ओरसे कुछ भी न मिलाया जाय अर्थात् . जैसाका तैसा ही कहा जाय वह •सत्य है। अपनी ओरसे न्यूनाधिक तत्र ही किया जाता है, जब कि कुछ रागद्वेष हो, या विषय कषाय पुष्ट करना हो क्योंकि अपेक्षा -रहित पुरुष किसलिये अपने निर्मल आत्माको बात बनानेकी व्यर्थकी उलझनमें डालकर दुःखी करेगा ? अर्थात् नहीं करेगा।
तात्पर्य- यह है कि विषय, कषाय, रागद्वेषादि भाव आत्माके निजस्वभाव नहीं हैं, और झूठ बिना विषय तथा कषायभावोंके बोला नहीं जाता, इससे यह निश्चित हुआ कि झूठ परभाव है। अर्थात् आत्माका स्वभाव नहीं है और जो आत्माका स्वभाव नहीं है वह धर्म भी नहीं होसकता । इसलिये जब आत्मासे रागद्वेषादि भाव अलग होते हैं-अर्थात् जैसा जैसा इनका क्षय, क्षयोपशम व उपशम होता है, वैसा वैसा ही आत्माका स्वभाव प्रगट होता है। स्वभावके प्रगट होनेपर ही जो वस्तु जैसी है, वैसी कही जा सकती है और उसीको सत्य कहते हैं।
इसलिये जीवमात्रका कर्तव्य है कि वे सत्य बोलें। क्योंकि व्यवहार कार्य भी सत्यके विना नहीं चल सकता । लोकमें भी जिसके वचनकी प्रतीति नहीं होती है, वह निंद्य समझा जाता है । लोग उससे घृणा करते हैं, उसका कभी कोई विश्वास नहीं करता जिससे उसका सब व्यवहार अटक जाता है, आजीविका नष्ट होजाती है। और कोई भी उसकी विपत्तिमें सहायक नहीं होता है। कहा है-
"मिथ्याभापी सांच हूं, कहे न माने कोय। भांड पुकारे पीर वश, मिस समझे सब कोय ॥"
झूठ बोलनेके कई कारण हैं । कोई भयसे बोलता है तो कोई लोभसे बोलता है, कोई.मोहसे बोलता है, तो कोई वैरवशं बोलता है.। कोई आशावश तो कोई क्रोधवश । कोई मानवश, कोई लज्जावश । कोई कौतुकसे, कोई केवल मनोरंजनके ही लिये बोलता है। इत्यादि ऐसे ही अनेक कारणोंसे लोकमें प्रायः झूठका ही व्यवहार होता है।
यद्यपि वोलते समय बोलनेवालेको थोड़ा आनंदसा प्रतीत होता है अथवा झूठ प्रगट : होनेतक लोगोंमें उसकी सत्येवन्तवत् प्रतीति हानेसे कथंचित् उसके विषय और कपायोंकी पुष्टि भी होजाती है, तौभी प्रगट होने अर्थात् भेद खुल जानेपर सब पोल खुल जाती है और फिर उसकी एकवार भी झूठ पकड़ जानेपर सदाके लिये उससे विश्वास उठ जाता है।
कितनेक लोग कहते हैं कि झूठ विना व्यवहार नहीं चल सकता है, परन्तु यह कल्पना उनकी झूठी है। कारण, यदि झूठ विना व्यवहार न चलता, तो सत्यकी आवश्यकता ही संसारमें न रहती । यहांतक कि लोग सत्यका नाम भी भूल जाते, परन्तु देखा जाता है कि जो लोग झूठ बोलते हैं, या अपनी झूठी बातोंका प्रचार करना चाहते हैं, या झूठसे द्रव्योपार्जन करना चाहते हैं, या मानादि कषायोंको पुष्ट करना चाहते हैं या मनोरंजन व हास्यादिक करना चाहते हैं, वे भी तो लोगोंमें अपने झूठको सत्यरूपसे ही प्रगट करके लोगोंका विश्वास अपने ऊपर खींचते हैं और तब सत्यकी ओटमें होकर ही अपने इच्छित विषयकी पूर्ति करते हैं।
क्योंकि यदि पहिलेसे ही लोगोंको यह प्रगट होजाय कि यह पुरुष झूठ बोलता है, तो फिर भला उसके जालमें. फंसे ही कौन ? क्या कोई संसारमें ऐसा भी मनुष्य है कि जो आँखसे देखता हुआ और जानता हुआ भी अर्थात् अपने हाथमें दीपक लिये हुवे उसका प्रकाश रहते भी कुएमें गिर जाय ? और मान लो कि कदाचित् कोई भूलसे किसी प्रकार गिर भी जाय, तो क्या वह लोकमें चतुर कहा जा सकता है ? और क्या वह सुखी हो सकता है ? नहीं; कभी . नहीं ।
तात्पर्य- जो झुठ भी संसारमें चल जाता है और उससे जो कुछ कुछ भी लोगो लाभ या स्वार्थ स्पद्धां हो जाता है देखो. ठग लोग मी पहिले उत्तगसे उत्तम बस्तुका नमूना दिन और पीस कम दामकी मिनाकर माप तोल देते हैं। यदि शीददारको पहिलो हो य. विदित होजाय, नो वह ले ही नहीं और यदानित आवश्यतानुमार लेनको लाचार हो, तो उतने दाग न दे. और यदि दाम भी दे तो जितना देना नाहता था उससे कितने ही अंगाने का न्ने । तात्पर्य-भेद खुलने से फिर उसकी बिक्री ठोक २ नहीं होगी।
प्रायः देखा जाता है कि ऐसे धूर्त अधिकतर देशपर्यटन ही किया करने में, अथान चे स्थिर होकर कहीं एक जगह दुकान नहीं खोल सतं. क्योंकि EिAर कारखाने तो विश्वासपात्र पुरुषों के ही चल सकते है, धृतीक नहीं. इसीलिये वे हरजगहसे अपनी पोल खुलनके पहिले ही नौ दो ग्यारह होजाने हैं, अर्थात् अन्यत्र चल देते हैं, कारण कि प्रगट होनपर राजदंड मिलनेकी तो पूरी पूरी संभावना है। वे सदैव शक्ति रहते हैं कि कहीं कोई मेरी पोल न खोलदे । और जो शंकित रहे, वह मुखी कैसा !
तात्पर्य- झूठा सदा ही दुःखी रहता है, इसलिये सुखी होनेके लिये सदा सत्य बोलना चाहिये। संसारमें भी झूठ बोलनेवालेको जिहाछेदन, ताड़न, मारन, फांसी, देशनिकाला और कारागार आदि नाना प्रकारके दंड होते हैं। और इसके विपरीत सत्यवादीका ठौर २ आदर होता है।
तथा सब उसकी प्रतीति करते और चाहते हैं। देखो, महाराज रामचन्द्रजी और महाराज धर्मराजजी आदिके बचनोंका प्रभाव शत्रुपक्षपर भी पड़ता था। महाराज हरिश्चंद्र तथा राजा बलि आदिका नाम उनके सत्यवादी होने हीसे लोकमें अमर होगया। महाराज दशरथ, रतिपति वसुदेव अपने बचनों हीसे लोकमें चिरस्मरणीय हुए हैं। आजकल भी एक वचन हीकी प्रतीतिपर हुंडी पुरजादि द्वारा लाखों करोड़ों रुपयोंका व्यवहार चलता है । तात्पर्य-जहांतक लोकमें प्रतीति है वहांतक ही सब कुछ है और दिवाला निकलनेपर अर्थात् बात बिगड़ जानेपर मुँह काला होजाता है। राजा वसु झूठके कारण ही तीसरे नरकमें गया और कौरव, लोकमें निंद्य कहाये ।
ध्यान रहे कि थोड़ासा भी झूठ कभी २ प्राण तकका घात कर डालता है । एक कथा है कि किसी एक स्थानमें कोई सेठ था, उसने एक नौकर रक्खा । उस नौकरने सेठसे यह वचन लेलिया था कि सालभर आपका काम तनमनसे सच्चा करूंगा, परन्तु वर्षमें एक दिन केवल एक ही बार झूठ बोलँगा । सेठजीने यह स्वीकारकर लिया, यह सोचकर कि एकबार झूठ बोलनेमें क्या होगा ? सालभर तो अच्छा कार्य कर सकेगा। निदान नौकरने सालभरतक कठिन परिश्रमद्वारा सेठजीको बहुत प्रसन्न किया और सालके अन्तमें सेठसे बोला कि-"मैं कल झूठ बोलंगा ।" सेठने यह सुनकर भी इस बातको उपेक्षाभावसे भुला दिया ।
बस, नौकरने दूसरे दिन सवेरे सेठानीसे कह दिया कि “ सेठ व्यभिचारी हैं और वे नित्य अमुक वेश्याके यहां जाते हैं इसलिये आज रातको तुम स्तरासे सोते समय सेठजीकी एक ओरकी दाड़ी व मूछ मुण्ड देना । इससे जब वे वहां जायेंगे और जब वेश्या उन्हें पहिचानगी नहीं, तब पीछे आयगे और उनका सब भेद खुल जायगा, तव हंसीका अवसर होगा और सेठजी यह निंद्यकर्म छोड़ देंगे।"
सेठानीके सहमत होनेपर वह सेठजीके पास गया और बोला"स्वामिन् ! मैं आपका सेवक हूं, इसलिये सवप्रकार आपकी भलाई में रहना मेरा काव्य है । आपके प्राण अपने प्राणोंसे भी प्रिय जानता हूँ, इसलिये निवेदन करता हूं कि आज रात्रिको आप सचेत रहें, चयोंकि प्राणोंका भय है।"
सेठ ने पूछा-"तुझे कैसे मालूम हुआ ?" तब वह नौकर योला-" स्वामिन् ! सेठानीजी नित्यप्रति रात्रिको चुपकेसे किसी पुरुषको घर बुलाती हैं सो आजतक मैंने यह बात भय तथा लज्जावश आपसे छिपा रक्खी थी, परन्तु जब आज आपके प्राणोंपर ही चोट आन पहुंची तब कहना ही पड़ा कि आज सेठानी अपने प्रेमीके आदेशानुसार उस्तरेस सोते समय आपका गला काटनेवाली हैं और इसलिये वे पहिले परीक्षाके लिये आपकी दाढ़ी और मुंछे खूब पानीसे तर करेंगी । जब आपको अचेत सोया जानेंगी, झटसे. उस्तरा निकाल- . कर तमाम काम कर देंगी" इसलिये आप सावधान रहें।
सेठ तो नौकरके झूठ बोलनेकी बातको भूल ही चुके थे, इसलिये उसकी बात पर विश्वास करके सचिंत्य होगये और जब रात्रि हुई तो बगलमें नंगी, तलवार छुपाकर पलंगपर पड़ रहे। इधर सेठानी भी अपना उस्तरा और पानी रखपड़ रहीं। निदान मध्यरात्रिका समय हुआ तो सेठानीने सेठकी दाढ़ी भिजाकर ज्यों ही उनकी दाढ़ी मूछ मूंडनेको छुरा निकाला कि सेठजी झटसे तलवार लेकर उठ बैठे और चोटी पकड़कर सेठानीको मारना ही चाहते थे, कि सेठानी चिलाई और उसके चिल्लानेसे फेरीवाला (गम्तवाला सिपाही एकदम आगया और हल्ला मचा दिया । जब सर्वरा हुआ और इस विषयकी खोज की गई, तो नौकरने सच बात कहदी जिससे संठ सेठानी प्रांतिरहित हुए अन्यथा सेठानीकी हत्या और सेठको सूली तो होती ही जिससे एक गृहस्थका नाम निःशेष होजाता।
इस घटनाके कारण नौकर सदाके लिये नौकरीसे अलग किया गया, और भी दूसरे लोग उससे हिचकने लगे। उसका सब कठिन परिश्रम व्यर्थ गया और इनाम यह मिली कि आजीविका नष्ट होगई फिर उसे किसीने नहीं रक्खा, वेचारा भूख, प्यासले पीड़ित हो भिक्षा मांगते मांगते मर गया । तात्पर्य-एकवारके झूठसे जब यहांतक नौवक्त पहुंची तो जो निरंतर झूठ बोलें उसका कहना ही क्या है ?
इसलिये झूठ उभयपक्षमें हानिकर समझकर छोड़ देना ही हितकारी है । और भी देखो, कि यदि घरका पुत्र, स्त्री, भाई, बहिन आदि कोई भी झूठा हो तो लोग उसका विश्वास न करके करोड़ोंकी सम्पत्ति गैरआदमी-(मुनीम, रोकड़िया, दिवान, भंडारी आदि) को सौंप देते हैं । यह सत्यहीका प्रभाव है। कहा भी है-
"सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हृदय सांच है, ताके हृदय आप ॥"
इसलिये कदाचित् सच बोलनेमें प्रगटरूपसे कुछ आपत्ति भी आवे, भय भी हो, तो भी अपने सत्यको नहीं छोड़ना चाहिये, क्योंकि यह आपत्ति भी परीक्षाके लिये आती है। कहा भी है-
"धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपत काल परखिये चारी ॥"
वास्तवमें आपत्ति एक कसौटी है, इससे ही पुरुषोंके धैर्यादि धर्माकी दृढ़ताकी परीक्षा होती है। सोना जितनी चार आंच देकर तपाया जाता है या कसोटीपर कसा जाता है, उतनी ही उसकी कीमत बढ़ती है। ठीक, इसी प्रकार सत्यनिष्ठ पुरुषोंका भी हाल होता है । वे परीक्षा होनेसे जगत्पूज्य होजाते हैं और परीक्षामें फैल हो नानेसे वे फिर घूरेका कुरा (कचरा) होजाते हैं, इसलिये सदा दृढ़ सत्यवती बनना चाहिये।
देखो, एकेन्द्री, द्वीन्द्री, त्रीन्द्री और चतुरिन्द्री तथा असैनी 'पंचेंद्री आदि जीवोंके तो भाषावर्गणा ( बोलनको शक्ति ) ही नहीं होती और सैनी पंचेंद्री पशुओंके यद्यपि बोलनेकी शक्ति होती है तो भी वे साक्षर वचन कोई भापात्मक शब्द नहीं बोल सकते और मनुर्योंमें भी बच्चे दो तीन वर्षतक तो गूंगे ही रहते हैं, और कई तो आजन्म तक भी गूंगे रहते हैं। इसलिये बड़ी कठिनतासे प्राप्त की हुई यह वाक्य-शक्ति मिथ्या भाषण करके ज्योंत्यों खो देना कितनी बड़ी भूल है ?
किसी भी बातको विपर्यय कहना मात्र ही झूठ नहीं है, किंतु जिस वचनसे अपने आप व परको पीड़ा उपजे, या स्वपरका घात हो नावे यह सब ही झूठ है । निंदा करना, हास्य करना, परस्पर कलह करना या करा देना, किसीकी गुप्त वार्ता प्रगट करना, खोटा लेखा लिखना, राजाज्ञा भंग करना, शब्दोंका अर्थ बदल देना, हठवाद करना, पापीजनोंका पक्ष लेना और धर्मात्माओंसे विरोध करना आपप्रणीत सत् शास्त्रोंको दूषित व स्वार्थीजनों द्वारा संपादित बताना, स्वप्रशंसा करना, झूठी साक्षी भरना, भण्ड वचन बोलना, गाली देना, विषय और कषायोंमें फँसानेवाला उपदेश देना, शृङ्गाररसके ग्रंथ बनाना, न्यायविरुद्ध वचने बोलना, इत्यादि और भी अनेक प्रकारका झूठ. होता है, जिससे मनुष्यमात्रको बचना चाहिये । सत् पुरुष योग्यायोग्य अवसर देखकर ही बहुत सोच समझकर वचन बोलते हैं अथवा झूठ बोलने के बदले मौन ही धारण कर लेते हैं। क्योंकि जहांपर सत्य बोलने अर्थात् जैसाका वैसा कहनेमें भी सत्यको झूठ समझे जानेकी संभावना हो, या उससे अपने आप व परको अन्यायपूर्वक पीड़ा होजानेकी संभावना हो, वहांपर मौन ही रखना श्रेष्ठ समझा जाता है। इसलिये द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका विचार करके तदनुसार न्यायपूर्वक हितमित वचन बोलना सो ही सत्य वचन है।
इसलिये इस लौकिक और पारलौकिक दुःखोंसे निवृत्त होने व सुखकी प्राप्तिके लिये सत्य वचन ही ग्रहण करना योग्य है । सो ही कहा है-
कठिन वचन मत बोल, परनिंदा अरु झूठ तज । सांच जवाहर खोल, सतवादी जगमें सुखी ॥ १ ॥ उत्तम सत्य वरत पालीजे, पर विश्वासघात ना कीजे । सांचे झूठे मानस देखे, आपन पूत स्वपास न पेखे ॥ २ ॥ पेखे तिहायत पुरुष, सांचेको दरब सब दीजिये। मुनिराज श्रावककी प्रतिष्ठा, सांच गुन लख लीजिये ॥ ३ ॥ ऊंचे सिंहासन बैठी वसु, नृप धर्मका भूपति भया । वसु झुठसेती नर्क पहुंचा, स्वर्गमें नारद गया ।। ४ ।।
" सत्यमेव सदा जयति”