सम संतोष जलेण य जो धोवदि तिण्ह लोहमलघु। भोयणगिद्धिविहिणो तस्सु सुचित्तं हवे विमलं ॥
अर्थात्- जो समता अर्थात् संतोषरूपी जलसे तृप्णा (लोभ) रूपी महा मलको धोते हैं, यहांतक कि भोजनमें भी जिनको गृद्धता अर्थात् तीन लालसा (चाहना) नहीं होती, उसीके उत्तम शौच धर्म कहा जाता है। (स्वा० का० अ०) और भी कहते हैं-
शुर्भावः इति शौचः- अर्थात् भावोंकी शुद्धिका होना सो ही शुद्धता अर्थात् शौच है। उत्तम विशेषण है, जो कि किंचिन्मान भी मलीनताके अभावका सूचक है । वास्तवमें यह शौचधर्म आत्माका ही स्वभाव है कारण कि शौच धर्म अन्ताङ्ग आत्मासे लोभादि कषायोंके अलग हो जानेपर ही प्रगट होता है । लोभादि कषायें पर पदार्थोकी चाह रूप प्राप्तिकी इच्छासे उत्पन्न होती हैं, इसलिये ये परभाव हैं। सो इन परभावोंके अभाव होनेपर जो आत्माका स्वभाव प्रगट होना सो निश्चय शौच धर्म है।
व्यवहार शौच, बाह्य शुद्धिको कहते हैं-अर्थत् देह, गेह, वसन, भूषण आदिकी शुद्धताको शौच कहते हैं, परन्तु अंतरंग शुद्धि विना यह बाह्य शुद्धि विशेष प्रयोजनीय नहीं होती। वह बाह्य शुद्धि तो केवल उस मद्यसे भरे हुए घड़ेके समान है कि जो बाहिरसे तो साफ सुथरा है परन्तु भीतर मद्यसे मलिन होरहा है । अर्थात् जिस घड़ेमें शराब भरी है, उस घड़ेको बाहिरसे खूब मलमलकर धोनेपर भी उसकी दुर्गधि कभी दूर नहीं हो सक्ती ।
इसी प्रकार यह शरीर जो रज ( माताके रुधिर) और वीर्य (पिताके शुक्र) का पिंडरूप मल, भूत्र, रुधिर, पीव, मांस, मज्जा आदिका घृणित थैला है सो नाना प्रकारके सुगन्धित पदार्थोसे धोनेपर भी कभी शुद्ध नही होता किंतु उस्टे इसके स्पर्शमात्रसे संपूर्ण शुद्ध व सुगन्धित पदार्थ भी दुर्गंधित व घृणित होजाते हैं । देखो, निरंतर इस शरीरसे आंख, नाक, कान, मुँह, गुदा, योनि, लिंग आदि द्वारों से दुर्गधित पदार्थ (मल) ही झड़ता रहता है । यह अपने संबंधसे केशर, कस्तूरी, कर्पूर आदि पदार्थोंको भी अल्पकालमें ही मलरूप कर डालता है। ऐसा दुर्गधित घृणित महा-अपवित्र शरीर जलादिकसे धोनेपर कैसे पवित्र हो सकता है ? कदापि नहीं, कदापि नहीं । यह सदा मैला है, क्योंकि यह स्वभावसे अपवित्र है। '
इसलिये ऐसे मैले अपवित्र शरीरको धो पोंछ करके शुद्ध मान लेना नितान्त भूल है । इसलिये साधुजन, जिन्होंने अपने अखण्डं सच्चिदानन्द स्वरूप परम शुद्धात्माको इस शरीरसे सर्वथा भिन्न जानकर इसे छोड़ रक्खा है, वे इसकी कुछ भी अपेक्षा न करके अपने अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुखमयी चैतन्य स्वरूप आत्मामें ही मग्न रहते हैं । वे इस घृणित शरीरके संस्कार करनेमें अपना समय व्यर्थ नहीं बिताते क्योंकि वे जानते हैं कि प्रथम तो यह शरीर अपवित्र है सो तो कदापि शुद्ध हो ही नहीं सकता जैसे कि कोयला दूधसे धोनेपर भी कभी सफेद नहीं होता । दूसरे यह आयु-कर्मके आधीन होनेसे अस्थिर है । तीसरे बुढ़ापा और रोगों से भरा हुवा तथा जड़ अर्थात् अचेतन है, अनेक प्रकारसे सुरक्षित रखनेपर भी सुरक्षित नहीं रह सकता और न कभी साथ ही देता है । किसी कविन कहा है-
(प्रश्नोत्तर, चेतन और कायका ।)
चेतन- सोलह शृंगार विलेपन भूपणसे निशिवासर तोहि सम्हारे, पुष्टि करी बहु भोजनपान दे धर्म अरु कर्म सवै ही विसारे। सेये मिथ्यात्व अन्याय करे बहुते तुझ कारण जीव संहारे, भक्ष गिनोन अभक्ष गिनों अब तो चल संगतू काय हमारे॥१
काय- ये अनहोनी कहो क्या चेतन भांग खाय कै भये मतवारे, संग गई न चलूं अब हूँ लखि ये तो स्वभाव अनादि हमारे। इन्द्र नरेन्द्र धनेन्द्रनके नहिं संग गई तुम कौन विचारे, कोटि उपाय करोतुम चेतन तो हू चलू नहिं संग तुम्हारे ॥२॥
तात्पर्य- जड़ और चेतन ये दोनों परस्पर विरोधी हैं, तब अनमेलका मेल कैसा : ऐसा समझकर वे इसकी कुछ भी अपेक्षा न करके सोचते हैं-
यावन्न ग्रस्यते रोगैः यावन्नाभ्येति ते जरा। यांवन क्षीयते चायुस्तावत् कल्याणमाचर ॥
अर्थात्- जबतक रोगोंने नहीं घेरा है, बुढ़ापा नहीं आया है और आयु क्षीण नहीं हुई है, तबतक कल्याण कर लेना चाहिये। क्योंकि-
"सदा दौर दौरा जु रहता नहीं। गया वक्त फिर हाथ आता नहीं ॥"
यही कारण है कि साधु आदिका शरीर यद्यपि ऊपरसे मलीन दिखता है, परन्तु उनका अन्तरंग आत्मा तो सदा शुद्ध ही होता है।
परन्तृ सँसारी गृहस्थियोंका चरित्र इससे बिलकुल उल्टा हैअर्थात् वे केवल शारीरिक शुद्धिको ही शुद्धि मानते और गंगादि नदियोंमें नहाकर अपनेको कृत्यकृत्य मान बैठते हैं, परन्तु उनकी यह भूल है, यद्यपि शारीरिक अथवा बाह्य शुद्धि गृहस्थियोंको अत्यावश्यक है, सो वह तो उन्हें रखना ही चाहिये, क्योंकि देह, गेह, भोजनादि बाह्य शुद्धि विना प्रथम तो उनका व्यवहार मलीन होजाता है, उनके नाना प्रकारके रोम उत्पन्न होजाते हैं, चित्तकी प्रसन्नता नष्ट होजाती है, सदा आलस्य आया करता है और लोकनिंद्य भी होजाते हैं। इसके सिवाय बाह्य शुद्धि गृहस्थोंको अन्तरंग शुद्धिका भी कारण है, तो भी यह शुद्धि अन्तरंगकी शुद्धि विना विशेष लाभकारी नहीं होती । इसलिये बाह्य शुद्धिके साथ साथ अन्तरंग शुद्धिका होना आवश्यक है।
सबसे अधिक अन्तरंग मैलापन आत्मामें लोभसे होता है। देखो, यह (सूक्ष्म लोभ भी) उपशम श्रेणीवाले मुनियों तकको भी ग्यारहवें गुणस्थानसे गिराकर नीचे पटक देता है। कहा भी है कि " लोभ पापका बाप बखाना" अर्थात् लोभी पुरुष न करने योग्य भी सब कार्य करता है । वह हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि किसी पापसे भी नहीं डरता है तथा निरन्तर जिस तिस प्रकार तीन लोककी संपत्तिको अपनाना चाहता है, परन्तु विना पुण्यके क्या कुछ भी. कभी पा सकता है ? कभी नहीं। इसके सिवाय सोचो तो सही कि लोकमें तो संपत्ति जितनी है, उतनी ही है। और उतनी ही रहती रहेगी और प्रत्येक जीवको तृप्णा इतनी है कि कदाचित् उसे यह सब संपत्ति मिल जाय जैसा कि होना असंभव है तो भी उसकी तृष्णाके असंख्यातवें अंशकी पूर्ति न हो, और जीव संसारमें अनंतानंत हैं, तब कैसे कहा जाय कि वह कभी भी उसका स्वामी होकर तृप्त हो सकेगा अर्थात् उसकी इच्छाकी पूर्ति होकर वह सुखी हो सकेगा ? कभी नहीं, कभी नहीं।
इसलिये ऐसी लोभ तृष्णाको छोड़नेवाले परम वीतरागी पुरुष ही सुखी हुए वा हो सकते हैं और शेष संसारी जीव तो निरन्तर तृष्णाग्निमें जला ही करते हैं । इससे निश्चित है कि-जहांतक आशा तृष्णा वा चाह लगी रहती है, वहांतक जीव कभी सुखी नहीं हो सकता। एक संतोषी पुरुष ही सदा सुखी रहता है। संतोषी ही उच्च और लोभी पुरुष संसारमें नीच समझा जाता है। जैसा कि कहा है-
“देव कहे सो नीच है, नहीं कहे महा नीच । लेव कहे ऊँचा पुरुष, नहीं लेय महा ऊँ॥"
संसारमें मनुष्योंका तभीतक आदर रहता है, जबतक वे कुछ किसीसे मांगते नहीं हैं और ज्यों ही उन्होंने किसीसे कुछ मांगा कि उसी समय वे लोगोंकी दृष्टिसे उतर जाते हैं । लोभी पुरुष चाहे जहां नीच उच्च सबके साम्हने, दीन होता है । लज्जा तो उससे कोसों दूर चली जाती है । वह शीत, उप्ण, भूख, प्यास, सब कुछ सहता है, स्त्री पुत्रोंसे विलग होजाता है, सब लोगोंका निष्कारण वैरी बन जाता है, देश विदेशोंमें भटकता रहता है, भक्षाभक्ष खाता है। वह न कभी पेटभर अनाज खाता है और न तनभर कपड़े पहिनता है, किन्तु निरंतर सम्पत्ति जोड़ता जोड़ता मर जाता है। वह आप तो खर्चना जानता ही नहीं, परन्तु औरोंको भी खर्चते देखकर घबरा जाता है। जैसा कहा है-
" नारी पूछे सूमकी, काहे बदन मलीन ?। क्या तुम्हरो कुछ गिर गयो ? या काहूको दीन ? ॥१॥ सूम कहे नारी सूनो गिरो न मैं कुछ दीन । देतन देखो औरको, तासों वदन मलीन ॥२॥ इत्यादि ।
यद्यपि संसारके सभी प्राणी यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि जब मनुष्य उत्पन्न हुआ था तब नग्न ही था और जब मरता है, तब भी नग्न ही मरेगा और यह सब परिग्रह यहीं पड़ा रह जायगा, एक तागा भी साथ नहीं जायगा, जैसा कि कहा है-
"आये कुछ लाये नहीं; गये न कुछ लेजायँ । बिच पायो विच ही नश्यो, चिंता करे बलाय "
तात्पर्य- तृष्णा किस वस्तुकी ? यह सब तो कर्मकृत उपाधि है इसलिये ऐसे लोभ तथा तृष्णादिसे. अपने अन्तरंग आत्माको रहित करना और बाह्य शरीरादिकी शुद्धि करना यही उत्तम शौचधर्म सब जीवोंको उपादेय है । कहा है कि-
धार हृदय संतोप. करहि तपस्या देहसों । शौच सदा निर्दोष, सुख पावे प्राणी सदा ।। उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पापका बाप बखाना। आशा फांस महा दुखदानी, सुख पावे संतोपी प्राणी।। प्राणी सदाशुचिशील, जप, तप,ज्ञान, ध्यान, प्रभावतें। नित गंग, यमुन समुद्र हाये अशुचि दोष स्वभावतें ॥ ऊपर अमल मद भरो भीतर कौन विधि घट शुचि कहे। बहु देह मैली सुगुण थैली शौच गुण साधु लहे ॥५॥