तिविहेण जो विवज्जइ चेयण मियरंच. सव्वहा संग । लायविवहारविरहो णिग्गययत्तं हवे तस्स ॥ ९॥
अर्थात्- जो चेतन अचेतन दोनों प्रकारके परिग्रहोंको मन बचन काय, कृत कारित अनुमोदना करके सर्वथा छोड़ देता है तथा जो लोकव्यवहार तकसे विरक्त होता है, वही उत्तम आकिंचन्य धर्मका घारी निग्रंथ साधु होता है । आगे इसीको और भी कहते हैं ॥९॥
(स्वा० का० अ०)
"न किञ्चनः इति आकिञ्चनः, तस्य भावःआकिञ्चन्यः"
अर्थत् किञ्चित् भी परिग्रहका न होना सा आकिंचन्य है। उत्तम. विशेषण है, जिससे बोध होता है, कि परिग्रह केवल दिखाने मात्रको. अलग नहीं किया है, किन्तु अन्तरंगमें भी उसकी चाह नहीं रही है। इस प्रकार उसके गुरुत्वको प्रकाशित करनेवाला है। यह आकिञ्चन्य धर्म आत्माका ही स्वभाव है कारण कि आत्मा शुद्ध चैतन्य अमूर्तीक पदार्थ है और परिग्रह पुद्गलमयी रूपी पदार्थ है, जो आत्मासे सर्वथा भिन्न स्वरूप है । इसके संयोगसे आत्मा ममत्वरूप परिणमता है और इसके ममत्व छूटते ही स्वभावको प्राप्त होजाता है। तात्पर्य-परिग्रहकी मूर्छातक भी न होना सो आकिंचन्य धर्म है और इसीलिये इसे आत्माका स्वभाव कहा जाता है।
परिग्रहका लक्षण आचार्योंने इस प्रकार कहा है-
" मूर्छा परिग्रहः " अर्थात् ममत्व भाव ही परिग्रह है।
क्योंकि यदि बाह्य वस्तुओंका महीना ही अपरियन्त्र मान लिया जाय. तो बालक, पशु, पक्षी आदि तमा गरीव निधन, जंगली मनुष्य मीलादिक जो प्रायः नग्न ही रहने हैं. मी अपरिग्रही सम्झो जायेंगे, परन्तु ऐसा नहीं तो माना है । गोंकि उनको लाभानगय कर्मके तीब उदयसे यद्यपि में पदार्थ प्राप्त नहीं हुआ है. तो भी उनको उन वस्तुओं के प्राप्त करनको इच्छा अवश्य है । इसलिये व बाहरसे अपरिग्रही होते हुए भी धातुपरिग्रही है । क्योंकि वे निरन्तर चाहकी दाहमें दहा करते हैं। सनिये उन बेनाको सुख शांति कहाँ ? इसीसे आचार्योने और गी पग्निटके याभ्यंतर और बाहा दो भेद कहकर खुलासा कर दिया है।
मन लामाक चौदह प्रकारक विभावभाव सो ही अन्तरंग परिग्रह हैं। जैसे-क्रोध, माने, माया, लोभ, मिथ्यात्व, गर्ग, द्वणं, हार्य, गो, भये. रति, अनि, जुगुप्सी, वेद इत्यादि ।
और बाहिरके भागोरगोग सम्बन्धी दश जातिक चेतन अचेतन समस्त पदार्थ, बाग परिग्रह हैं । जैसे धने-गाय, महिपी. घोड़ा, हाथी आदि जानयर और सवारी आदि, धान्य-अन्नादिक भोज्य पदार्थ, क्षेत्र-संतादि जमीन, जागीर आदि, वास्तु-रहनेके मकान आदि, हिरण्य-रुपया. पैसा, मुहर आदि मुद्रित सिके, सुवर्ण-आभूषणादि यमादिक, दासी, दास, कुप्य-वखार, बंडा, खौड़ियादि, भान्डं-थाली, लोटा आदि खानेपीने व रांधनेके बर्तन आदि ।
अन्तरंग परिग्रहका त्याग किये बिना बाह्य परिग्रहका त्याग निरर्थक है। इतना अवश्य है कि बाह्य परिग्रह अन्तरंग भावोंकी मलीनताका कारण है, इसलिये जो अंतरंग परिग्रह त्याग करना चाहते हैं उन्हें बाह्य परिग्रह तिल तुषमात्र भी नहीं रखना चाहिये और जिनके अन्तरंग परिग्रह नहीं है उनके बाह्य परिग्रह तो होता ही नहीं है क्योंकि बिना रागादि भावोंके परिग्रहकी रक्षा व सम्हाल ही नहीं सकती, और यदि एक लँगोटी मात्र भी परिग्रह पास रहेगा, तो वह भी सदैव परिणामोंमें मलीनता उत्पन्न करता रहेगा, तब आत्मध्यानमें बाधा पड़ेगी।
जैसे कि लंगोटी खोजाने, फट जाने, मलीन होजाने, उसे स्वच्छ करने, संशोधन करने, नवीन प्राप्त करने इत्यादिकी चिन्ता होवेगी ही अथवा न मिलनेसे रागद्वेष भी होजायगा । इत्यादि कारणोंसे बाह्य परिग्रहका सर्वथा त्याग होना अन्तरंग विशुद्धताका कारण है और इसलिये दिगम्बर साधु बिलकुल तुरंतके जन्मे हुए बच्चेके समान निर्विकार नग्न रहते हैं।
बहुतसे लोग नग्न दिगम्बरत्वको देखकर अपने परिणामोंमें विकार भाव उत्पन्न होजानेकी शंका करते हैं और इसलिये वै साधुओंको नग्न देखकर निन्दा करते हैं, जैनियोंकी नग्न दिगम्बर मूर्तिपर आक्षेत्र करते हैं, परन्तु यह उनकी भूल है। नग्न पुरुषको देखकर विकार भाव उत्पन्न हो जाते हैं, यह असंगत है । यदि उन्होंने कुछ भी विचारबुद्धिसे कार्य लिया होता, तो ऐसा कभी भी नहीं कहते क्योंकि प्रत्येक पुरुष अपने घरमें या बाहर छोटे.२ बालक बालिकाओंको प्रायः नान देखते हैं तब क्या उन्हें विकार भाव होजाता है ? माता अपने पुत्रको स्नान कराती है, उसके मलमूत्रके अंगोंको धोती है। इसीप्रकार पिता व भाई अपनी पुत्रियों, व छोटी बहिनों, बच्चियोंको नहलाते, धुलाते, खिलाते हैं, तब क्या विकार भाव होजाता है ? अथवा क्या वे वालक जन्मसे ही वस्त्र पहिने रहते हैं ? कभी नहीं, क्योंकि भारतीय बालिका कमसे कम चार पाँच वर्ष तक और चालक आठ दश वर्ष तक तो प्रायः नग्न ही फिरा करते हैं।
और मातापितादि गुरुजन जब कोई असाध्य व्याधिसे पीड़ित होजाते हैं, वस्त्रों में मल मूत्र कर देते हैं, स्वयं स्वच्छ नहीं कर सकते हैं, तब उनके तरुण पुत्रपुत्रियां, पुत्रवधुएँ, बहिने आदि उनके शरीरको 'धोकर साफ कर देती हैं, तब वे तो विकारको नहीं प्राप्त होते हैं । बालक माताके स्तनको मसलता है, चूसता है. तब न मा और न 'वेटा कोई भी विकारको प्राप्त नहीं होते हैं।
डाक्टर लोग स्त्रियोंके पेटमेंसे बालक निकालते हैं, प्रसूति कराते हैं, नथा और भी स्त्री पुरुषोंके गुप्त अंगोंकी परीक्षा व चिकित्सा करते हैं, तब उन्हें तो विकार नहीं होजाता है, न वै स्त्री पुरुष, जिनकी चिकित्सा होती है विकारको प्राप्त होते हैं। पशु निरंतर नग्न ही रहते हैं. तो भी निरंतर नर पशु मादीको देखकर व मादी नरको देखकर विकारको नहीं प्राप्त होजाते हैं।
इससे जानना चाहिये कि मात्र नग्नत्र ही विकारको उत्पन्न करनेका कारण नहीं है किन्तु अन्तरंगका भेदभाव ही विकारका कारण है और कदाचित् किसीको कारणवश विकार हो भी जाय, तो क्या उत्तम पुरुष इन लोगोंके भयसे छोड़ देंगे? मानों कि गंधा मिश्री खानेसे मर जाता है तो गधा भले ही मिश्री न खाये परन्तु और पुरुष तो मिश्री खाना न छोड़ेंगे। इससे निश्चय हुआ कि नग्नत्व विकार उत्पन्न होनेका कारण नहीं है।
किन्तु जो पुरुष बाहरसे तो नग्न हो और अन्तरंगमें मलीन हो, तो उससे अवश्य ही विकारोत्पन्न होनेकी संभावना है, किन्तु निर्विकारको नग्न देखकर नहीं, जैसे बालकादिका दृष्टान्त।
दूसरे, यह भी तो कहावत है कि " जाके मनहिं भावना जैसी,. प्रभु तिन भूरति देखी तैसी " इत्यादि । इसलिये ऐसे नीच विषयी पुरुषों के कारण क्या मोक्षाभिलापी जन अपने कर्तव्यको छोड़ देते हैं ? क्या उल्लूको सूर्य अपनी प्रभासे अन्ध हुआ जानकर वह अपनी प्रभाको रोक लेता है ? अर्थात् क्या वह फिर उदित नहीं होता ? क्या चोरोंको इष्ट न होनेके कारण चन्द्रमा अपनी चांदनीको संकोच लेता है ? नहीं नहीं, कभी नहीं।
इसी प्रकार कदाचित् कोई तीव्र मोही रागी पुरुष परम दिगम्बर शांतिमुद्रायुक्त साधुओंको देखकर भी विकारको प्राप्त . होजाय तो यह दोष साधुका नहीं, किन्तु यह उसीके दुष्कर्मोका दोष है, जो कि अपना तीव्र कर्म बांधकर कुगतिको जानेका सामान तैयार कर रहा है।
इसलिये अपने अन्तरंग भावोंको निर्मल रखने के लिये बाहरके भी सब प्रकारके परिग्रहको सर्वथा त्यागना चाहिये । क्योंकि भावोंकी निर्मलताके विना निर्विकल्प आत्मध्यान नहीं होता और सच्चे आत्मध्यान बिना मोक्ष नहीं होती है। और जो कोई जीव परिग्रहको सर्वथा नहीं छोड़ सकते हैं, तो उहें उसका अपनी परिस्थितिके अनु सार यथाशक्ति प्रमाण अवश्य ही कर लेना चाहिये । सो ही कहा है-
परिग्रह चौवीस मेद, त्याग कियो मुनिराजने। तृप्णा भाव उछेद, घटती जान घटाइये ॥ उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह चिंताही दुख मानो। फांस तनकसी तनमें साले, चाह लंगोटीकी दुख भाले॥ भाले न समता सुख कभी नर, विना मुनिमुद्रा धरे । धन नगन तन पर नगन ठाड़े, सुर असुर पायन परे ।। घरमांहि तृष्णा जो घटावे, रुचि नहीं संसारसे। बहु धन बुराहू भला कहिये, लीन पर उपकारसे ॥९॥