कोहेण जो ण तप्पदि सुरणर तिरिएहिं कीरमाणेवि । उपसग्गे वि रउद्दे तस्स खिमा णिम्मला होदि ॥
अर्थात्- जो देव, मनुष्य तथा तिचों द्वारा घोरान्धोर उपसर्ग होनेपर भी क्रोधसे संतप्त नहीं होते हैं उनके निर्मल अर्थात् उत्तम क्षमा होती है।
(स्वा० का० अ०)
भावार्थ - किसी भी प्रकारके देव, मनुष्य तथा तिर्यचोंकृत उपसर्गाद्वारा होनेवाले दुःखको; विना संक्लेश. भावोंके सह लेनेकी शक्तिको उत्तम क्षमा कहते हैं । अर्थात् जिस शक्तिके कारण जीव किसी भी प्रकारके उपसर्ग व कप्ट (दुःख) आनेपर भी घबराते नहीं, अर्थात् व्याकुल न होवे, किन्तु उस दुःख व क्लेशको अपना ही पूर्वोपार्जित कर्मका फल जानकर समभावोंसे सहन करे, सो क्षमानाम आत्माका गुण है । प्रायः समस्त संसारी प्राणी अपने इस उत्तमक्षमा गुणको भूले हुए इसके विपरीत-इंद्रियोंके इष्ट विषयों वा विषयोंकी योग्य सहायक सामग्रीमें और विषयानुरागी स्वमनोनुकूल चलनेवाले मित्रोंमें राग (रति) करते हैं । और इनसे उलटे इन्द्रियोंको अनिष्टसूचक पदार्थ व इच्छाविरुद्ध पुरुषोंसे द्वेष अर्थात् अरति (अप्रीति) करते हैं । ऐसी अवस्थामें इष्टानिष्ट (रति-अरति) सूचक जो कुछ भाव होते हैं वे ही आत्माके परसंयोगसे उत्पन्न हुए वैभाविक भाव हैं।
तात्पर्य- जब किसी जीवको इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है तब वह प्रफुल्लित चित्त हुआ अपने आपको परम सुखी मानता है। और समझता है कि इस इष्ट वस्तुका वियोग मुझसे कदाचित् भी कभी नहीं होगा और इसीलिये वह उसमें तल्लीन हो जाता है। परन्तु जब कोई भी चेतन अर्थात् देव मनुष्य या पशु या अचेतन पदार्थ उसकी उस इष्ट वस्तुके वियोगका कारण बन जाता है, तब वह विषधर (सर्प) के समान क्रोधित होकर उसका सर्वस्व नाश करनेका उद्यम करता है । इसीको क्रोधभाव-कषाय कहते हैं।
क्षमा गुण इसी क्रोधभावका उल्टा आत्माका स्वभाव है। '
जब यह जीव निज भावरूप परिणमन करता है, तब ही इसको उतने ही समय तक, जब तक वह स्वभावोंमें स्थिर रहता है, सुखी कह सकते हैं क्योंकि यथार्थमें सुख अपने आत्मस्वभावको प्राप्त होनेको कहते हैं, और ज्योंही यह स्वभावसे च्युत होकर परभाव अर्थत् विभाव भावोंको प्राप्त होता है कि यह तुरन्त दुःखी हो जाता है । तात्पर्य उपर्युक्त कथनसे यह निश्चित हो चुका कि क्रोधभाव आत्माका स्वभाव नहीं, किन्तु वह पर पदार्थोके संयोगसे उत्पन्न हुवा विभाव भाव है, इसलिये ये भाव जीवको केवल दुःखके देनेवाले हैं।
सुख प्राप्त करना जीवमात्रको अभीष्ट है। इसीलिये प्राणीमात्रको चाहिये कि विपधरके समान भयंकर और प्राणघातक जानकर इस क्रोधको छोड़देवें और उत्तम क्षमाको धारण करके सुखी होवें।
यदि यहां यह शंका उपस्थित हो कि क्षमासे पारलौकिक(मुक्ति) सुख मिल सकता है, किन्तु संसारी सुख तो नहीं मिलता ?
तो उत्तर यह है कि यह क्षमाभाव मुक्ति सुखका तो हेतु है ही किन्तु सांसारिक सुखका भी एक प्रधान हेतु है। देखो, लोकमें कहावत है कि बनिया सबसे मोटा होता है, क्योंकि वह गम् खाताक्षमा रखता है और क्षत्रिय दुबला होता है, क्योंकि वह सदा बात बातमें क्रोधित हो जाता है। कहा भी है –
कोपः करोति पितृमातृसुहजनाना मप्यप्रियत्त्रमुपकारिजनापकारम् । देहक्षयं प्रकृतकार्यविनाशनं च, मत्वेति कोपवशिनो न भवन्ति भव्याः ॥
-सुभाषितरत्नसन्दोह।
अर्थ- क्रोधसे मातापितादि स्नेही पुरुषोंका अप्रिय, उपका रियोंका अपकारी हो जाता है, शरीर क्षीण होता है और सांसारिक कार्य भी बिगड़ जाते हैं, ऐसा समझकर भव्य (उत्तम) पुरुष कदापि क्रोधके वश नहीं होते हैं।
क्रोधसे जीवोंको कैसे कैसे दुःख भोगने पड़ते हैं इसीके उदाहरण स्वरूप श्रेणिकपुराणकी एक कथा कहते हैं कि-एक नगस्में किसी ब्राह्मणकी इकलौती सुन्दर कन्या थी और वह ब्राह्मण राजपुरोहित था। इसलिये वह छोटी कन्या पिताके साथ कभी कभी राजमहलमें आया जाया करती थी। राजा भी उस कन्यापर रूपवती हानेके कारण बहुत प्रेम करते थे। यद्यपि वह कन्या रूपवती तथा विद्यावती थी, तथापि उसमें क्रोध भी असीम था, इसलिये यदि कोई कभी उसे तू करके बोल देता, तो वह मारे क्रोधके लाल हो जाती थी । प्राणियोंकी रुचि विचित्र है। लोगोंने उसे तू शब्दसे चिढ़ती हुई जानकर और भी चिबाना आरम्भ किया । यहांतक कि उसका नाम ही 'तूकारी' पड़ गया। तूकारी लोगोंके केवल तू शब्दपर ही अनेक गालियां देती, मारने दौड़ती और किसी किसीको मार भी बैठती थी तो भी राजके भयसे उससे कोई कुछ भी नहीं कह सकता था।
जब वह कन्या तरुण हुई, तो उसके क्रोधी स्वभावके कारण कोई उसे नहीं व्याहता था। निदान कोई एक जुआरी-बूतव्यसनी ब्राह्मणने (जो कि जुआमें उधार द्रव्य लेकर हार गया था और जिसे अन्य जुआरी अपना उधार दिया हुआ द्रव्य न पानेके कारण नाकमें · कौड़ी पहिनाकर और उल्टा झाड़से टांगकर मार रहे थे, छुटकारा पानेकी इच्छासे ) व्याहना स्वीकार कर लिया। सो देखो, वह तूकारी क्रोधित होनेके कारण एक रंक, गुणहीन, कुरूप, व्यसनी पुरुषसे व्याही गई । पश्चात् किसी एक दिन उसका पति राजसभासे कुछ देरीसे आया कि इसीपरसे क्रोधित होकर वह (तूकारी ) घरसे निकल गई। और चोरोंके हाथ पड़ी और जब उन्होंने उसका शीलभंग करना चाहा, तब उसके शीलके माहात्म्यसे वहां वनदेवीने आकर उसकी रक्षा की। फिर जब वह चोरोंसे छूटी तो वणजारोंके हाथ पड़ी । उन्होंने भी उसी प्रकार उसपर कुदृष्टि की है, तब फिर भी उसने वनदेवीकी सहायतासे रक्षा पाई, तब बणजारोंने क्षोभित होकर उसे एक छीपे-(कपड़े छापनेवाले) को बेच दी। वह छीपा उसका मस्तक आठवें पन्द्रहवें दिन चीरकर लोहू निकालता और उससे कपड़े रंगता । फिर जड़ीबूटियों (लक्षमूल) के तेलसे उसका घाव अच्छा कर देता था। इस प्रकार कई महीनों तक कितने ही वार उसका मस्तक चीरा गया कि जिससे उसे घोर वेदना भोगनी पड़ी। एक दिन भाग्यवश कहीं उसका चाचा वहां पहुँच गया और छीपाको कुछ द्रव्य देकर ज्यों त्यों उसे छुड़ा लाया। तबसे तूकारीने क्रोध करना सर्वथा छोड़ दिया।
तात्पर्य- क्रोधके कारण ही तूकारीको इतने दुःख भोगने पड़े इसलिये क्रोध पिशाचको दूरसे ही छोड़ देना चाहिये, और भी कहा है कि-
"क्षमा हने औरको, अरु क्रोध हने आपको।" ।
देखो, जो शत्रु बड़े बड़े शब्धारी क्षत्रियोंसे भी अनेक चेष्टाएं • करनेपर भी वश नहीं होते हैं या जो सिंह व्याघ्रादि घातक जीव संसारके प्राणियोंको सर्वदा भयभीत करते रहते हैं, वे सब अनायास ही क्षमावान् महात्मा पुरुषोंके वशमें होजाते हैं।
क्षमावान् पुरुषका कभी कोई भी शत्रु नहीं होता है। देखो, जब कोई पुरुष किसी अन्य पुरुषपर कुछ क्रोध करता है और वह अन्य पुरुष यदि उसे शान्ति भावसे सहन कर लेता है, तो क्रोध करनेवाला पुरुष स्वयं ही लज्जित हो पश्चात्ताप करने लगना है।
और भी क्रोधसे क्या २ हानि होती है सो सुनिये-क्रोधी पुरुष मणिवाले सर्पवत् गुणयुक्त होनेपर भी प्रशंसा नहीं पाता, क्रोधी पुरुषके व्रत, जप, तप, नियम, उपवास, संयम, दान, पूजा, जप, स्वाध्याय, विद्या आदि समस्त गुण पुण्यसहितके भी क्षणभरमें भस्म होजाते हैं। क्रोधसे धैर्य छूट जाता है, बुद्धि नष्ट होजाती है रोग घेर लेते हैं, हठ बढ़ जाता है, शरीर शिथिल होजाता है, धर्म अलग होजाता है, वचन अन्यथा प्रवृत्त होने लगते हैं, मुख व नेत्र लाल होजाते हैं, शरीर कांपने लगता है, रोमांच खड़े होजाते हैं, विचारशक्ति नहीं रहती है, दया चली जाती है, मित्रताके बदले शत्रुता बढ़ जाती है, अपयश फैल जाता है, दरिद्रता घेर लेती है, इत्यादि और भी अनेक प्रकारसे हानि होती है और इसके विपरीत क्षमासे सर्व गुण प्रगट होते हैं, इसीलिये सुखाभिलाषी सत्पुरुष सदैव क्षमाभाव धारण करते हैं ।
जब कोई उन्हें दुर्वचन कहता है, अर्थात् उनपर क्रोध करता है, तो वे सोचते हैं कि अमुक पुरुषके क्रोधका कारण क्या है ? यदि मैंने उसका कुछ भी अपराध किया है, तब तो मुझपर उसका क्रोध कर दुर्वचन कहना ठीक ही है । मैंने क्यों ऐसा अनर्थ किया, जिससे परके परिणामोंमें क्रोधभाव उत्पन्न होगया। अब जैसे बने उसे क्षमा ग्रहण कराना उचित है और इसलिये वे अपने दोषोंकी आलोचना करके स्वनिन्दा करते हुए उस पुरुषसे नम्र शब्दोंमें क्षमा मांगकर शान्त कर देते हैं। और अपने आपको किंचित् भी क्रोध नहीं आने देते हैं।
किन्तु कदाचित् कोई निष्कारण ही क्रोध कर कुवचन बोले तो सोचते हैं कि इसमें मेरा तो कुछ भी दोष है ही नहीं, यह पुरुष 'व्यर्थ ही क्रोधसे अपने आत्माको मलिन कर कर्मबन्ध कर रहा है और व्यर्थ ही विना सोचे मुझको दुर्वचन कह रहा है। यह अज्ञानी है, पागल है। इसीसे यह विवेक विना व्यर्थ ही अपना समय नष्ट करता हुवा स्ववचन बिगाड़ रहा है सो पागल व अज्ञानीके कहनेका बुरा ही क्या मानना ? वह तो अभी केवल मुंहसे ही बकता है, मारता तो नहीं है क्योंकि पागल तो मारता है, बांधता है, काटता है, कपड़े फाड़ देता है, वस्तुओंको तोड़ मरोड़ कर फैक देता है, और अनेक नहीं करने योग्य कार्य भी करता है, सो अभी तो यह केवल मुंहसे ही दुर्वचन कह रहा है और कुछ तो नहीं करता है, सो ये दुर्वचन मेरे शरीरमें कहीं भी चिपट तो जाते नहीं हैं, इसलिये इनसे मेरी हानि ही क्या है ? कुछ नहीं।
अब यदि उन्हें कोई मारने भी लगे तो सोचते हैं कि वह मुझे केवल मारता ही तो है, कुछ प्राण रहित तो नहीं करता है।
और यदि कोई प्राण हरण भी करने लगे, तो सोचते हैं कि यह प्राण ही तो हरण करता है, कुछ मेरा धर्म जो क्षमा ( आत्माका स्वभाव ) है, उसे तो हरण नहीं करता है। अर्थत् यह रङ्क मेरे अविनाशी, सच्चिदानन्द अखण्ड स्वरूप चैतन्य आत्माको तो देख ही नहीं सकता, तत्र पीड़ा किसे देगा ? और जिसे यह मारता काटता बांधता व हरण कर रहा है, वह तो मेरा स्वरूप ही नहीं है । वह जड़ अत् अचेतन है, नाशवान् है। किसी न किसी दिन इसका वियोग तो होना ही है सो आज इसीके हाथसे सही। और यदि यह मेरे प्राण हरनेमें ही प्रसन्न है, तो अच्छा ही है। मेरा जो पूर्वस्त कर्मोंका इससे वैर था, सो यह अभी मेरी सावधान अवस्थामें लिये लेता है । यह इसका मुझपर बड़ा उपकार है । जो कदाचित् असावधान अवस्थामें प्राण हरण करता, तो संभवतः मेरा कुमरण होकर मैं दुर्गतिमें चला जाता।
इसलिये मेरा कर्तव्य है कि मैं इस पूर्वकर्मकृत आये हुए. उपसर्गको शांतिपूर्वक सहन कर समाधिमरण सहित प्राण त्याग करूँ। . इसीमें मेरा कल्याण है । इसलिये वे ऐसा विचार करके कि-
खम्मामि सब जीवानां सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्व भूदेसु वैरं मज्झं न केणवि ॥१॥
अर्थात्- मैं सब जीवोंको क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझपर' भी क्षमा करो, मेरे सबसे मित्रभाव है, मुझे किसीसे भी वैर-द्वेषभाक नहीं है, उत्तमक्षमा धारण करते हैं।
तात्पर्य - मित्र क्षमा सम जगतमें, नहीं जीवको कोय । अरु वैरी नहीं क्रोध सम, निश्चय जानो लोय ॥
सो ही पं० द्यानतरायजीने कहा है-
पोहे दुष्ट अनेक, बांध मार बहु विध करें।। धरिये क्षमा विवेक, कोप न कीजे प्रीतमा ॥१॥ उत्तम क्षमा गहोरे भाई, यह भव यश परभव सुखदाई । गाली सुन मन खेद न आनो, गुणको औगुण कहे अजानो।। कहे अजानो वस्तु छीने, बांध मार वहविधि करे । घरसे निकारे तन विदारे, वर तो न तहां धरे ॥ तू कर्म पूर्व किये खोटे, सह क्यों नहिं जीयरा। अति क्रोध अग्नि बुझाय प्राणी, साम्य जल ले सीयरा ॥१॥
इति उत्तमक्षमा धर्मागाय नमः ।