।। सरस्वती पूजा ।।

सरस्वती पूजा

[शारदा व्रत ,श्रुतस्कंध व्रत,श्रुतज्ञान व्रत,ज्ञान पचीसी व्रत में]

जिनदेव के मुख से खिरी, दिव्यध्वनी अनअक्षरी।
गणधर ग्रहण कर द्वादशांगी, ग्रंथमय रचना करी।।
इन अंग पूरब शास्त्र के ही, अंश ये सब शास्त्र हैं।
उस जैनवाणी को जजूँ, जो ज्ञान अमृतसार है।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देवि! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देवि!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देवि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

अथ अष्टक-चामर छन्द

जैन साधु चित्त सम, पवित्र नीर ले लिया।
स्वर्ण भृंग में भरा, पवित्र भाव मैं किया।।
द्वादशांग जैनवाणी, पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो, उदीत ज्ञानज्योति हो।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देव्यै जलं निर्वपामीति स्वाहा।

केशरादि को घिसाय, स्वर्ण पात्र में भरी।
ताप पाप शांति हेतु, पूजहूँं इसी घरी।।
द्वादशांग जैनवाणी, पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो, उदीत ज्ञानज्योति हो।।२।।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देव्यै चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

चन्द्ररश्मि के समान, धौत स्वच्छ शालि हैं।
पुुंज को चढ़ावते, मिले गुणों कि माल है।।
द्वादशांग जैनवाणी, पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो, उदीत ज्ञानज्योति हो।।३।।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देव्यै अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

मोगरा गुलाब चंप, केतकी चुनायके।
स्वात्म सौख्य प्राप्त होय, पुष्प को चढ़ावते।।
द्वादशांग जैनवाणी, पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो, उदीत ज्ञानज्योति हो।।४।।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देव्यै पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

लड्डुकादि व्यंजनों से, थाल को भराय के।
ज्ञानदेवता समीप, भक्ति से चढ़ाय के।।
द्वादशांग जैनवाणी, पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो, उदीत ज्ञानज्योति हो।।५।।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देव्यै नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

दीप में कपूर ज्वाल, आरती उतारहूँ।
ज्ञानपूर जैन भारती, हृदय में धारहूँ।।
द्वादशांग जैनवाणी, पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो, उदीत ज्ञानज्योति हो।।६।।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देव्यै दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

धूप ले दशांग, अग्निपात्र में हि खेवते।
कर्म भस्म हो उड़े, सुगंधि को बिखेरते।।
द्वादशांग जैनवाणी, पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो, उदीत ज्ञानज्योति हो।।७।।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देव्यै धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

सेब संतरा अनार, द्राक्ष थाल में भरें।
मोक्ष सौख्य हेतु शास्त्र, के समीप ले धरें।।
द्वादशांग जैनवाणी, पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो, उदीत ज्ञानज्योति हो।।८।।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देव्यै फलं निर्वपामीति स्वाहा।

वारि गंध शालि पुष्प, चरु सुदीप धूप ले।
सत्फलों समेत अघ्र्य, से जजें सुयश मिले।।
द्वादशांग जैनवाणी, पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो, उदीत ज्ञानज्योति हो।।९।।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देव्यै अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

स्वर्ण भृंग नाल से, सुशांतिधार देय के।
विश्वशांति हो तुरंत, इष्ट सौख्य देय के।।
द्वादशांग जैनवाणी, पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो, उदीत ज्ञानज्योति हो।।१०।।

शांतये शांतिधारा।

गंध से समस्तदिक् , सुगंध कर रहे सदा।
पुष्प को समर्पिते, न दुःख व्याधि हो कदा।।
द्वादशांग जैनवाणी, पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो, उदीत ज्ञानज्योति हो।।११।।

दिव्य पुष्पांजलि:।

जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगाय नमः।

जयमाला

-दोहा-

द्वादशांग हे वाड्.मय ! श्रुतज्ञानामृतसिंधु।
गाऊँ तुम जयमालिका, तरूँ शीघ्र भवसिंधु।।१।।

-शंभु छन्द-

जय जय जिनवर की दिव्यध्वनी, जो अनक्षरी ही खिरती है।
जय जय जिनवाणी श्रोताओं को, सब भाषा में मिलती है।
जय जय अठरह महाभाषाएँ, लघु सात शतक भाषाएँ हैं।
फिर भी संख्यातों भाषा में, सब समझे जिनमहिमा ये हैं।।२।।

जिनदिव्यध्वनी को सुनकर के, गणधर गूँथें द्वादश अंग में।
बारहवें अंग के पाँच भेद, चौथे में चौदह पूर्व भणें।।
पद इक सौ बारह कोटि तिरासी, लाख अठावन सहस पाँच।
मैं इनका वंदन करता हूँ, मेरा श्रुत में हो पूरणांक।।३।।

इक पद सोलह सौ चौांqतस कोटी, और तिरासी लाख तथा।
है सात हजार आठ सौ अट्ठासी, अक्षर जिन शास्त्र कथा।।
इतने अक्षर का इक पद तब, सब अक्षर के जितने पद हैं।
उनमें से शेष बचें अक्षर, वह अंगबाह्य श्रुत नाम लहे।।४।।

जो आठ कोटि इक लाख आठ, हज्जार एक सौ पचहत्तर।
चौदह प्रकीर्णमय अंगबाह्य के, इतने ही माने अक्षर।।
यह शब्दरूप अरु ग्रन्थरूप, सब द्रव्यश्रुत कहलाता है।
जो ज्ञानरूप है आत्मा में, वह कहा भावश्रुत जाता है। ।।५।।

जिनको केवलज्ञानी जानें, पर वच से नहिं कह सकते हैं।
ऐसे पदार्थ सु अनंतानंत, जो तीन भुवन में रहते हैं।।
उनसे भी अनंतवें भाग प्रमित, वचनों से वर्णित हो पदार्थ।
उन प्रज्ञापनीय से भी अनन्तवें, भाग कथित श्रुत में पदार्थ।।६।।

फिर भी यह श्रुत सब द्वादशांग, सरसों सम इसका आज अंश।
उनमें से भी लवमात्र ज्ञान, हो जावे तो भी जन्म धन्य।।
यह जिन आगम की भक्ती ही, निज पर का भान कराती है।
यह भक्ती ही श्रुतज्ञान पूर्णकर, श्रुतकेवली बनाती है।।७।।

श्रुतज्ञान व केवलज्ञान उभय, ज्ञानापेक्षा हैं सदृश कहे।
श्रुतज्ञान परोक्ष लखे सब कुछ, बस केवलज्ञान प्रत्यक्ष लहे।।
अंतर इतना ही तुम जानो, इसलिए जिनागम आराधो।
स्वाध्याय मनन चिंतन करके, निज आत्म सुधारस को चाखो।।८।।

इस ढाईद्वीप में कर्मभूमि, इक सौ सत्तर जिनवर होते।
उन सबकी ध्वनि जिन आगम है, इससे जन अघमल को धोते।।
जिनवचपूजा जिनपूजा सम, यह केवलज्ञान प्रदाता है।
नित पूजूँ ध्याऊँ गुण गाऊँ, यह भव्यों को सुखदाता है।।९।।

है नाम भारती सरस्वती, शारदा हंसवाहिनी तथा।
विदुषी वागीश्वाqर और कुमारी, ब्रह्मचारिणी सर्वमता।।
विद्वान् जगन्माता कहते, ब्राह्मणी व ब्रह्माणी वरदा।
वाणी भाषा श्रुतदेवी गौ, ये सोलह नाम सर्व सुखदा।।१०।।

हे सरस्वती ! अमृतझरिणी, मेरा मन निर्मल शांत करो।
स्याद्वाद सुधारस वर्षाकर, सब दाह हरो मन तृप्त करो।।
हे जिनवाणी माता मुझ, अज्ञानी की नित रक्षा करिये।
दे केवल ‘‘ज्ञानमती’’ मुझको, फिर भले उपेक्षा ही करिये।।११।।

-दोहा-

भूत भविष्यत् संप्रति, त्रैकालिक जिनशास्त्र।
त्रिकरण शुद्धी मैं नमूँ, मिले सिद्धि सर्वार्थ।।१२।।

ऊँ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देव्यै जयमालापूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।

शांतये शांतिधारा।
दिव्य पुष्पांजलिः।

-दोहा-

सब भाषामय सरस्वती, जिनकन्या जिनवाणि।
ज्ञानज्योति प्रगटित करो, माता जगकल्याणि।।१।।

Vandana

।।इत्याशीर्वाद:।।