।। छहढाला ।।

छहढाला - प्रथम ढाल

प्रथम ढाल ( प्रश्नोत्तर सहित )

मंगलाचरण

-सोरठा-
तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता।
शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिवैं।।


अर्थ- त्रिभुवन अर्थात् तीन लोकों में सर्वोत्तम वस्तु है, वीतराग विज्ञानता अर्थात् रागद्वेष रहित केवलज्ञान। यही केवलज्ञान आनन्दस्वरूप है और मोक्ष देने वाला है अत: मैं मन-वचन-काय को संभालकर केवलज्ञान को नमस्कार करता हूँ।
विशेषार्थ - अनन्तानन्त आकाश द्रव्य के बहुमध्य भाग के जितने प्रदेशों में छह द्रव्यों का आवास है, उसे लोक कहते हैं। ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक के भेद से यह तीन प्रकार का है और तीन वातवलयों के आधार पर अवस्थित है। रागयुक्त जीवद्रव्य की शुद्धावस्था अर्थात् अठारह दोषों से रहित अवस्था होना वीतरागता है और विशिष्टज्ञान अर्थात् केवलज्ञान का नाम विज्ञानता है।

(चौपाई छन्द) ग्रन्थ रचना का उद्देश्य व जीव की चाह
जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दु:खतैं भयवन्त।
तातैं दु:खहारी सुखकारि, कहैं सीख गुरु करुणा धारि।।१।।


अर्थ - तीनों लोकों में जो अनन्त जीव हैं, वे सभी सुख चाहते हैं और दु:ख से डरते हैंं इसलिए आचार्य कृपा करके उन जीवों को दु:ख हरने वाली और सुख को देने वाली शिक्षा प्रदान करते हैं।
विशेषार्थ - ज्ञान, दर्शन अर्थात् जानने-देखने की शक्ति से युक्त द्रव्य को जीव कहते हैं। जो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मन:पर्ययज्ञान का विषय न हो, मात्र केवलज्ञान का विषय हो, उसे अनन्त कहते हैं अथवा जिसमें घंटे की ध्वनि सदृश व्यय निरन्तर होता रहे, आय कभी न हो, फिर भी राशि समाप्त न हो, उसे अनन्त कहते हैं। ‘‘संसार के सभी प्राणी सुखी रहें’’ आत्मा के इस सुकोमल भाव का नाम करुणा है। सम्यग्दृष्टि जीव का यह सुकोमल परिणाम शुभ राग है किन्तु मोह का कार्य कदापि नहीं है।

संसार भ्रमण का कारण
ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान।
मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि।।२।।


अर्थ - हे भव्यजीवों! यदि तुम अपनी भलाई या सुख चाहते हो तो उस कल्याणकारी उपदेश को स्थिर मन से सुनो। यह जीव अनादिकाल से मोहरूपी मदिरा-शराब पीकर अपने स्वरूप को भूलकर व्यर्थ में चारों गतियों में भ्रमण कर रहा है।
विशेषार्थ - रत्नत्रय की प्राप्ति की योग्यता युक्त जीव को भव्य कहते हैं। परपदार्थों में अपनत्व बुद्धि होना, मोह कहलाता है। जिसकी आदि अर्थात् प्रारंभ न हो, उसे अनादि कहते हैं।

कृति की प्रामाणिकता और निगोद के दु:ख
तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा।
काल अनन्त निगोद मँझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार।।३।।


अर्थ - इस जीव के संसार-भ्रमण की बहुत लम्बी कहानी है, किन्तु कुछ थोड़ी-सी, जैसी श्रीगुरु-पूर्वाचार्यों ने वर्णन की है, वैसी ही यहाँ मैं भी कह रहा हूँ। इस जीव ने निगोद में एक इन्द्रिय जीव का शरीर धारण कर अनन्त काल बिताया है।
विशेषार्थ - जिस काल को सर्वावधि ज्ञान भी नहीं जान सकता, मात्र केवलज्ञान ही जान पाता है, उस अपरिमित काल को अनन्त काल कहते हैं। साधारण नामकर्म के उदय से एक शरीर के आश्रित अनन्तानन्त जीवों का समान रूप से रहना निगोद कहलाता है अथवा जीव की एक पर्यायविशेष, जिसमें एक श्वाँस के समय का अठारहवाँ भाग पूरा होते ही मरण हो जाता है। निगोद के दो भेद हैं-नित्य निगोद, इतर निगोद।

नित्य निगोद - जहाँ के जीवों ने अनादिकाल से आज तक त्रस की पर्याय प्राप्त नहीं की, वह नित्य निगोद कहलाता है।
इतर निगोद - निगोद से निकलकर दूसरी पर्याएँ पाकर पुन: निगोद में उत्पन्न होना इतर निगोद कहलाता है।

निगोद के दु:ख व निगोद से निकलकर प्राप्त पर्यायें
एक स्वाँस में अठ-दस बार, जन्म्यो मरयो भरयो दु:ख भार।
निकसि भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो।।४।।


अर्थ - इस जीव ने निगोद में एक श्वास मात्र काल में अठारह बार जन्म लिया और मरण को प्राप्त किया। इस प्रकार अनेक दु:खों का भार उसने सहा है। निगोद से निकलकर यह जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव हुआ।
विशेषार्थ - निरोग मनुष्य की नाड़ी की एक फड़कन एक श्वाँस कहलाती है। जिस वनस्पति में एक शरीर के अनेक जीव स्वामी होते हैं, वह साधारण वनस्पति है तथा जिस वनस्पति में एक शरीर का एक ही जीव स्वामी होता है, उसे प्रत्येक वनस्पति कहते हैं।

त्रस पर्याय की दुर्लभता और तिर्यंचगति के दु:ख
दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणी, त्यों पर्याय लही त्रसतणी।
लट पिपील अलि आदि शरीर, धर-धर मर्यो सही बहुपीर।।५।।


अर्थ - जैसे चिन्तामणि-रत्न बड़ी कठिनता से प्राप्त होता है, उसी प्रकार स्थावर से त्रस की पर्याय पाना अति दुर्लभ है। त्रस-पर्याय पाकर भी जब जीव ने लट, चींटी, भौंरा आदि विकलत्रय शरीर को बारम्बार धारण किया और मरण को प्राप्त हुआ, तो उसे वहाँ भी बहुत अधिक दु:ख ही सहना पड़ा।
विशेषार्थ - इच्छित पदार्थ देने वाले रत्नविशेष को चिन्तामणि रत्न कहते हैं। त्रस नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई जीव की अवस्थाविशेष को त्रस कहते हैं।

तिर्यंच गति में असैनी और सैनी के दु:ख
कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो।
सिंहादिक सैनी ह्वै व्रूर, निबल पशू हति खाये भूर।।६।।


अर्थ - तिर्यंचगति में विकलत्रय से निकलकर कभी भाग्यवश यह जीव पंचेन्द्रिय ‘असैनी’ पशु हुआ तो मन के न होने से वह बिल्कुल अज्ञानी रहा और इसी तरह दु:खी रहा। जब ‘सैनी’ हुआ तो यदि सिंह आदि कुरुर पशु हो गया, तो उसने बहुत से निर्बल पशुओं को मार-मार कर खाया, अत: वहाँ भी घोर पाप का बंध किया।
विशेषार्थ - शिक्षा एवं उपदेश ग्रहण करने की शक्ति से युक्त अर्थात् मन सहित प्राणी सैनी कहलाते हैं तथा शिक्षा और उपदेश ग्रहण करने की शक्ति से रहित अर्थात् मन रहित प्राणी को असैनी कहते हैं।

पंचेन्द्रिय पशुओं के निर्बलता आदि अन्य दु:ख
कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन।
छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास।।७।।


अर्थ - कभी यह जीव निर्बल पशु हुआ तो बलवान हिंसक पशुओं द्वारा खाया गया, इससे बहुत दु:खी हुआ। यदि खाया न गया और बचा रहा तो छेदा जाना, भेदा जाना, भूख-प्यास सहना, भारी बोझ ढोना, सदी, गर्मी सहना आदि अनेक प्रकार के दु:ख उठाता रहा।
विशेषार्थ - मायाचारी अर्थात् मन, वचन एवं काय की कुटिलता से, मिथ्या उपदेश देने से, परिग्रह में अधिक ममत्व रखने से, शीलव्रत भंग करने से नील एवं कापोत लेश्या युक्त परिणामों से, मरणकाल में आत्र्तध्यान करने से, जाति एवं कुल में दूषण लगने से तथा स्वर्ण, घी, तेल आदि में मिलावट करके बेचने से तिर्यंचगति में जन्म लेना पड़ता है।

तिर्यंचगति में दु:खों की अधिकता और नरकगति की प्राप्ति का कारण
वध-बन्धन आदि दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने।
अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो।।८।।


अर्थ - तिर्यंचगति में इस जीव को मारे जाने, बाँधे जाने आदि के अनेक दु:ख सहन करने पड़े जिनका वर्णन करोड़ों जिह्वा से भी नहीं किया जा सकता है। इस दु:खमय दशा में वह जीव बहुत ही संक्लेश परिणामों से मृत्यु को प्राप्त हुआ, उसके फलस्वरूप भयानक नरकगतिरूप समुद्र में जा गिरा।
विशेषार्थ - श्वभ्र नाम नरक का है, वहाँ जन्म लेते ही अनिर्वचनीय दु:ख भोगने पड़ते हैं तथा वहाँ अकाल मरण नहीं होता।

नरक की भूमि स्पर्श और नदीजन्य दु:ख
तहाँ भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहस डसें नहिं तिसो।
तहाँ राध-शोणित-वाहिनी, कृमि-कुल-कलित-देह दाहिनी।।९।।


अर्थ - उस नरक की भूमि के स्पर्श करने मात्र से ही इतना कष्ट होता है कि जितना हजारों बिच्छुओं के एक साथ शरीर में काटने पर भी नहीं होता है। नरक में पीव और रक्त की वैतरणी नदी बहती है, जो कीड़ों के समूहों से भरी हुई है और यदि कोई भूमि के स्पर्श से उस नदी में शांति की आशा से घुस जाए, तो उसका वह खून भरा पानी शरीर को दग्ध करने वाला-जलाने वाला ही होता है।
विशेषार्थ - वहाँ खून-पीव आदि सप्त धातुएँ एवं विकलत्रय जीव नहीं होते किन्तु नारकी जीव विक्रिया से स्वयं उस रूप बन जाते हैं।

नरक में सेमर वृक्ष, सर्दी और गर्मी के दु:ख
सेमर-तरु-जुत दल-असिपत्र-असि ज्यों देह विदारैं तत्र।
मेरु समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय।।१०।।


अर्थ - नरक की भूमि में ऐसे सेमर वृक्ष हैं, जिनमें तलवार के समान तीक्ष्ण पत्ते लगे हैं, जो अपनी तीक्ष्ण धार से नारकी के शरीर को वहीं पर विदीर्ण कर देते हैं-टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। वहाँ इतनी भीषण ठण्ड अथवा गर्मी होती है कि सुमेरु पर्वत के समान विराट लोहे का गोला भी गल जाता है।
विशेषार्थ - मेरुपर्वत जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में अवस्थित है। इसकी नींव एक हजार योजन, जमीन से ऊँचाई ९९ हजार योजन, मोटाई दश हजार योजन और चूलिका की ऊँचाई चालीस योजन प्रमाण है। छंद में जो ‘गलि’ शब्द आया है, उसके दो अर्थ हैं ‘गलना’ और ‘पिघलना’। जिस प्रकार गर्मी में मोम पिघल जाता है, उसी प्रकार सुमेरु पर्वत के बराबर लोहे का गोला गर्म बिल में फैका जाए, तो वह बीच में ही पिघलने लगता है तथा जिस प्रकार ठण्ड और बरसात में नमक गल जाता है, उसी प्रकार सुमेरु के बराबर लोहे का गोला ठण्डे बिल में पेंâका जाए, तो बीच में ही गलने लगता है। पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे तथा पाँचवें नरक के दूसरे-तीसरे भाग में गर्मी है और पाँचवें नरक के प्रथम-द्वितीय-तृतीय भाग में सर्दी है एवं छठवें तथा सातवें नरक में भयंकर सर्दी है।

नरक में अन्य नारकियों व असुरकुमारों द्वारा उदीरित और प्यास के दु:ख
तिल-तिल करैं देह के खण्ड, असुर भिड़ावैं दुष्ट प्रचण्ड।
सिन्धु-नीरतैं प्यास न जाय, तो पण एक न बूंद लहाय।।११।।


अर्थ - नारकी एक-दूसरे के शरीर के तिल के बराबर छोटे-छोटे टुकड़े कर देते हैं। दुष्ट प्रकृति के असुरकुमार जाति के देव वहाँ जाकर उन नारकियों को आपस में लड़ा देते हैं, जिससे वहाँ आपस में हमेशा कलह और द्वेष का वातावरण बना रहता है। नरक में नारकी को इतने जोर की प्यास लगती है कि वह यदि सारे समुद्र का पानी भी पी जावे, तो भी प्यास नहीं बुझ सकती, फिर भी उन्हें पानी की एक बूँद तक पीने को नहीं मिलती है।
विशेषार्थ - भवनवासी देवों के एक कुल का नाम असुर है, इन असुर कुमार देवों में अम्बाबरीष नामक देव तीसरे नरकपर्यन्त जाकर नारकियों को स्वयं भी दु:ख देते हैं तथा आपस में लड़ाते हैं और उनका दु:ख देखकर प्रसन्न होते हैं।

नरक की भूख, आयु और मनुष्यगति प्राप्ति का वर्णन
तीन लोक को नाज जु खाय, मिटै न भूख कणा न लहाय।
ये दु:ख बहु सागर लौं सहै, करम जोग तैं नरगति लहै।।१२।।


अर्थ - नरक में भूख इतने जोर की लगती है कि तीनों लोकों का सम्पूर्ण अनाज खा लेने पर भी वह मिट नहीं सकती, लेकिन वहाँ तो अनाज का एक दाना भी प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार नरक के तीव्र दु:ख इस जीव ने बहुत सागर (सुदीर्घकाल) तक सहे, फिर कहीं शुभकर्म का संयोग मिलता है, तो वह मनुष्यगति में जन्म लेता है।
विशेषार्थ - उन नरकों में यह जीव ऐसे अपार दु:ख कम से कम दश हजार वर्ष और अधिक से अधिक तेंतीस सागरपर्यन्त भोगता है।

मनुष्यगति में गर्भवास और प्रसवजन्य दु:ख
जननी-उदर बस्यो नव मास, अंग-सकुचतैं पाई त्रास।
निकसत जे दु:ख पाये घोर, तिनको कहत न आवै ओर।।१३।।


अर्थ - यह जीव मनुष्यगति में माता के गर्भ में नौ मास तक रहा, जहाँ शरीर के सिकुड़े रहने से कष्ट पाया। माता के गर्भ से बाहर निकलते समय जो भयानक कष्ट इस जीव ने पाया है, वह वर्णनातीत है।
विशेषार्थ - माता के रज और पिता के वीर्य के आधार से शरीर की रचना करने वाला यह जीव दशरात्रि तक कललरूप पर्याय में, दशरात्रि तक कलुषीकृत पर्याय में और दशरात्रि तक स्थिरीभूत पर्याय में रहता है। दूसरे मास में बुदबुद, तीसरे मास में घनभूत, चौथे में मांसपेशी, पाँचवें में पाँचपुलक, छठे में आँगोपांग और चर्म तथा सातवें में रोम एवं नखों की उत्पत्ति होती है। आठवें मास में स्पन्दन क्रिया और नौवें या दसवें मास में निर्गमन होता है।

मनुष्यगति में बाल्यावस्था, जवानी व वृद्धावस्था के दु:ख
बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणी-रत रह्यो।
अर्धमृतक सम बूढ़ापनो, कैसे रूप लखै आपनो।।१४।।


अर्थ - बालपन-लड़कपन में इस जीव को ज्ञान न मिला (अज्ञानी रहा)। जवानी में यह स्त्री में तल्लीन रहा और बुढ़ापा तो आधे मरे हुए के समान है ही। ऐसी दशा में यह जीव भला अपना आत्म-स्वरूप कैसे जान सकता है?
विशेषार्थ - मेरी आत्मा चैतन्यमयी, अखण्ड, अमूर्तिक एवं ज्ञान-दर्शन का पिण्ड है। इस प्रकार के स्वभाव की श्रद्धा आज तक नहीं हुई यही ‘‘कैसे रूप लखै आपनो’’ इस पंक्ति का विशेष भाव है।

देवगति में भवनत्रिक के दु:ख
कभी अकाम निर्जरा करै, भवनत्रिक में सुर-तन धरै।
विषय-चाह-दावानल दह्यौ, मरत विलाप करत दु:ख सह्यो।।१५।।


अर्थ - कभी इस जीव ने अकाम निर्जरा की, तो मंद कषाय के परिणाम स्वरूप मरकर भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों में से किसी एक का शरीर धारण किया परन्तु वहाँ भी हर समय इन्द्रियों के विषयों की चाहरूपी भयानक अग्नि में जलता रहा और मरते समय रो-रोकर दारुण दु:ख सहन किया।
विशेषार्थ - अनायास (बिना इच्छा के) भूख, प्यास, वेदना, रोग एवं आपत्ति-विपत्ति आ जाने पर समता परिणामों से सहन कर लेना अर्थात् मन्दकषाय द्वारा फल देकर कर्मों का स्वयं झड़ जाना अकाम निर्जरा कहलाती है। भवनवासी, व्यन्तरवासी और ज्योतिषी देवों को भवनत्रिक कहते हैं।

देवगति में वैमानिक देवों के दु:ख
जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दु:ख पाय।
तहँ ते चय थावर-तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै।।१६।।


अर्थ - कभी यह जीव स्वर्ग में विमानवासी देव भी हुआ, तो भी उसने वहाँ सम्यग्दर्शन के अभाव में दु:ख ही पाया। आयु पूर्ण होने पर देवगति से चयकर वह तिर्यंचगति में स्थावर के शरीर को धारण करने के दु:खरूप कुगतिभ्रमण करता है। इस प्रकार यह जीव संसार में पंचपरिवर्तनों को पूरा करता है।
विशेषार्थ - विमानों में रहने वाले अथवा स्वर्ग एवं ग्रैवेयक आदि में रहने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं। स्थावर नामकर्म के उदय से युक्त जीव स्थावर कहलाते हैं। चय शब्द का अर्थ मरण ही है, किन्तु सौधर्मादि विमानवासियों की गति उत्तम है अतएव वहाँ से निकलने को ‘चय या च्युत’ होना, इस शब्द का प्रयोग होता है। नरकगति एवं भवनत्रिक ये गतियाँ हीन हैं, अतएव इनसे निकलने को ‘उद्वर्तन’ (उद्धार) तथा तिर्यंच और मनुष्य गति सामान्य है अत: उनसे निकलने को ‘काल करना’ इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप संसार चक्र में परिभ्रमण करना परिवर्तन कहलाता है।

काव्य प्रश्नोत्तरी
-दोहा-
प्रश्न १ - एक प्रश्न पूछू सहज, बोलो सोच विचार।
तीन भुवन में कौन सी, वस्तु सार में सार ?।१।।

उत्तर - वीतराग विज्ञानता तीनों लोकों में सारभूत वस्तु है।

प्रश्न २ - लोक में कितने जीव हैं, क्या है उनकी चाह ?
गुरु क्यों उनको बोधते, क्या है उनकी चाह ?

उत्तर - लोक में अनन्त जीव हैं, वे सुख चाहते और दु:ख से डरते हैं तथा गुरुजन करुणा की भावना से उनके दु:खों को नष्ट करने एवं सुख प्राप्त कराने हेतु उन्हें सम्बोधन प्रदान करते हैं।
प्रश्न ३ - किस कारण इस जगत में, भूला आतम राम ?
कैसे रुक सकता भ्रमण, कैसे हो कल्याण ?।३।।

उत्तर - मोहरूपी मदिरा को पीकर यह प्राणी अपनी आत्मा को भूल गया है और गुरु की शिक्षा को स्थिरतापूर्वक सुनने से भव भ्रमण समाप्त होकर जीव का कल्याण हो सकता है।
प्रश्न ४ - भ्रमण कथा इस जीव की, कब से है प्रारंभ ?
कितने कालों तक रहा, तन निगोद संबंध ?।४।।

उत्तर - इस जीव की संसार में भ्रमण की कथा अनादिकालीन-बहुत लम्बी है। अपना अनन्तकाल उसने एकेन्द्रिय निगोदपर्याय में बिताया है।

प्रश्न ५ - उस निगोदिया जीव के, कौन सी इन्द्रिय होय ?
उनका कहाँ निवास है, उनकी गति क्या होय ?।५।।

उत्तर - निगोदिया जीव के एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है, सातवें नरक के नीचे उनका निवास रहता है तथा उनकी तिर्यंचगति मानी जाती है।
प्रश्न ६ - क्या गिनती उस जीव के, जन्म मरण की ख्यात ? पुन: वहाँ से निकलकर, जीव कहाँ को जात ?।६।।

उत्तर - वह निगोदिया जीव एक श्वांस में अठारह बार जन्म-मरण करता है पुन: कभी पुण्य योगवश वहाँ से निकलकर वह पंचस्थावरों में जन्म ले लेता है।

प्रश्न ७ - त्रस पर्याय कही किसे, किस उपमा से ख्यात ?
क्यों दुर्लभ यह काय है, मुझे बताओ बात ?।७।।

उत्तर - दो इन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय तक के जीवों का शरीर त्रसकाय कहलाता है, उस त्रस पर्याय को चिन्तामणि रत्न की उपमा दी गई है और जैसे विशेष पुण्योदय से किसी मनुष्य विशेष को ही दुर्लभ चिन्तामणि रत्न प्राप्त होता है वैसे ही स्थावर अवस्था से विशेष पुण्य का उदय होने पर ही जीव को त्रस पर्याय मिलती है, इसलिए उसे दुर्लभ कहा है।
प्रश्न ८ - पञ्चेन्द्रिय पशु भी हुआ, तो भी हुआ न ज्ञान।
बतलाओ क्यों व्रूर पशु, हिंसा करता जान।।८।।

उत्तर - कदाचित् पञ्चेन्द्रिय पशु की पर्याय मे भी जीव ने जन्म ले लिया, तो भी वहाँ मन सहित न होने से अज्ञानी ही बना रहा और यदि व्रूâर पशु भी हो गया, तो अपने को बलवान् मानकर निर्बल पशुओं की हिंसा करके पाप का ही बंध करता रहा।
प्रश्न ९ - पशुगति के कुछ दुख सहज, दिखते सदा प्रत्यक्ष।
उनको बतलाओ मुझे, यदि तुम श्रोता दक्ष ?।९।।

उत्तर - छेदन, भेदन, भूख, प्यास, सर्दी, गरमी, बोझा ढोना, वध, बंधन आदि पशुगति के दु:ख प्रत्यक्ष में दिखते हैं।
प्रश्न १० - नरकभूमि के स्पर्श से, कैसा दुख हो प्राप्त ?
नदी कौन सी बह रही, क्या उसमें है पदार्थ ?।१०।।

उत्तर - नरकभूमि को छूने मात्र से हजारों बिच्छुओं के एक साथ काटने से भी अधिक दु:ख प्राप्त होता है। वहाँ बहने वाली नदी का नाम है वैतरणी, जिसमें खून-पीव एवं कीड़े भरे रहते हैं।
प्रश्न ११ - नरक धरा में कौन सा, कष्ट प्रदाता वृक्ष ?
कैसी शीत व उष्णता, बतलाओ हे भव्य!।११।।

उत्तर - नरक में सेमर नाम का वृक्ष अपने तलवार के समान पत्तों से नारकियों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके महान दु:ख देता है तथा वहाँ मेरुपर्वत के समान विशाल लोहे के गोले के भी गलने जैसी सर्दी-गर्मी पड़ती है।
प्रश्न १२ - कौन देव जाकर वहाँ, करवाते संघर्ष ?
कैसी प्यास की वेदना, होती बोलो शांत ?।१२।।

उत्तर - असुरकुमार नामक जाति के देव तृतीय नरक तक जाकर उन नारकियों को आपस में लड़ाते हैं। वहाँ प्यास की इतनी बाधा होती है कि समुद्र भर भी पानी पी जावे तो शांत नहीं होगी किन्तु एक बूंद पानी भी वहाँ नहीं मिलता है।
प्रश्न १३ - कैसी भूख की वेदना, कैसे हो वह शांत ?
नरक में कितने दिन सहा, यह दु:ख फिर कहाँ जन्म ?।१३।।

उत्तर - तीन लोक का पूरा अन्न खा जावे ऐसी भूख नरक में लगती है किन्तु एक कण भी वहाँ नहीं मिलता है। दस हजार वर्ष से लेकर तैंतीस सागरों तक ये दु:ख नरक में सहन करने पड़ते हैं पुन: कर्मयोग से वहाँ से निकलकर मनुष्य गति में भी जन्म धारण कर लेते हैं।
प्रश्न १४ - मानुष तन अनमोल है, फिर भी वहाँ हैं दुक्ख।
जैसा ग्रन्थों में कहा, बतलाओ तुम भव्य!।१४।।

उत्तर - मनुष्यगति में नव मास तक माता के गर्भ में रहना पड़ता है, जहाँ अंगों के सिकुड़ने से अत्यन्त दु:ख होता है तथा जन्म लेते समय तीव्र वेदना होती है जो बाद में मनुष्य भूल जाता है और इस अनमोल मानव शरीर से भी अन्याययुक्त कार्य करने लगता है।
प्रश्न १५ - मानव की बालक तथा, तरुण वृद्ध पर्याय।
बोलो कैसे अन्त तक, व्यर्थ बीतती जाय ?।५।।

उत्तर - बाल्यावस्था अज्ञानता में, तरुण अवस्था विषय सेवन में और वृद्धावस्था अर्धमृतक के समान इस मानव ने अनादिकाल से व्यतीत की है, इसीलिए आत्मस्वरूप की पहचान नहीं हो पाई है।
प्रश्न १६ - देव के कितने भेद हैं, वहाँ तो सुख ही सुक्ख ?
लेकिन क्या कोई वहाँ, बतलाओ है दुक्ख ?।१६।।

उत्तर - देव चार प्रकार के माने गये हैं-१. भवनवासी २. व्यन्तरवासी ३. ज्योतिर्वासी ४. कल्पवासी। देवों को स्वर्ग में किसी प्रकार का शारीरिक दु:ख नहीं होता है लेकिन वहाँ विषय भोगों का तथा अपने से अधिक वैभव वाले देवों को देखकर मिथ्यादृष्टि देवों को मानसिक दु:ख उत्पन्न हो जाता है।
प्रश्न १७ - मिथ्यादृष्टी देवता, कहाँ तक मरकर जांय ?
प्रथम ढाल का सार क्या, बतलाओ यह चाह ?।१७।।

उत्तर - मिथ्यादृष्टि देव मरकर एकेन्द्रिय स्थावर जीवों तक की योनि में जन्म धारण कर लेते हैं। छहढाला की प्रथम ढाल का सार यह है कि चारों गतियों में सारभूत जो सम्यग्दर्शन है उसे प्राप्त कर अपने भव भ्रमण की सीमा निर्धारित कर लेना चाहिए।

प्रथम ढाल का सारांश

छहढाला की इस प्रथम ढाल में सर्वप्रथम मंगलाचरण में तीन लोक में सारभूत पदार्थ वीतरागता और विज्ञानता (केवलज्ञान) को नमस्कार किया गया है। इन्हें ही मोक्ष का कारण एवं मोक्ष स्वरूप बताया गया है। पश्चात् ग्रंथ उद्देश्य का निर्देश करते हुए कहा गया है कि तीनों लोकों में अनन्तानन्त जीव हैं, जो सुख चाहते हैं और दु:ख से डरते हैं। दु:ख को हरण करने वाली और सुखोत्पादक शिक्षा करुणावान् गुरु ने दी है।

मोह के वशीभूत हुए ये जीव अनन्तकालपर्यन्त निगोदपर्याय में अतीव दु:ख भोगते हैं। एकेन्द्रिय पर्याय में अनिर्वचनीय दु:ख सहन करते हुए बहुत काल व्यतीत होता है। त्रस पर्याय की प्राप्ति तो चिंतामणि रत्न की प्राप्ति सदृश अतीव दुर्लभ है। इस त्रस पर्याय में भी चारों गतियों संबंधी भयावह दु:ख भार सहन करना पड़ता है।

प्रथम ढाल में वर्णित नरक, तिर्यंच, गर्भवास आदि एवं भवनत्रिकादि के दु:खों का विवेचन करते समय विद्वानों को प्रथमानुयोग ग्रंथों के उदाहरण देकर विषय को खूब अच्छी तरह स्पष्ट कर देना चाहिए, ताकि सभी श्रोता दु:ख से भयभीत होकर पाप क्रियाओं का त्याग करें।