।। छहढाला ।।

छहढाला - छठवीं ढाल

छठवीं ढाल ( प्रश्नोत्तर सहित )

(हरिगीता छंद)

अहिंसा, सत्य, अचौर्य तथा ब्रह्मचर्य महाव्रतों का लक्षण

षट्काय जीव न हननतैं, सब विधि दरब-हिंसा टरी।
रागादि भाव निवारतैं, हिंसा न भावित अवतरी।।
जिनके न लेश मृषा न जल, मृण हू बिना दीयौ गहैं।
अठदशसहस विधि शील धर, चिद्ब्रह्म में नित रमि रहैं।।१।।

अर्थ - छहकाय के जीवों का घात करना ‘द्रव्यहिंसा’ और राग-द्वेष-काम-क्रोध-मान इत्यादि भावों की उत्पत्ति ‘भावहिंसा’ कहलाती है। मुनिराज इन दोनों प्रकार की हिंसाओं को नहीं करते, इसलिए उनके ‘अिंहसा महाव्रत’ होता है। स्थूल अथवा सूक्ष्म दोनों प्रकार का झूठ भी मुनिराज कभी नहीं बोलते, इसलिए उनके ‘सत्य महाव्रत’ होता है। अन्य वस्तुओं का तो पूछना ही क्या, जिस मिट्टी और जल को सर्वसाधारण जीव बिना किसी रोक-टोक (निषेध) के प्रयोग में लेते हैं, मुनि उनको भी किसी के द्वारा दिए बिना ग्रहण नहीं करते इसलिए उनके ‘अचौर्य महाव्रत’ होता है। शील के १८००० भेदों का सदैव पालन करते मुनि चैतन्यरूपी आत्मस्वरूप में लीन रहते हैं, इसलिए उनके ‘ब्रह्मचर्य महाव्रत’ होता है। विशेषार्थ-पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पाँच स्थावर और त्रसकाय, ये षट्काय जीव कहलाते हैं । इसप्रकार (मन, वचन, काय कृत, कारित, अनुमोदनारूप ९) नवकोटि से हिंसादि पाँचों पापों का सर्वथा त्याग करना महाव्रत है ।

परिग्रह त्याग महाव्रत, ईर्या और भाषा समिति स्वरूप

अन्तर चतुर्दश भेद बाहर, संग दशधा तैं टलैं।
परमाद तजि चउकर मही लखि, समिति ईर्या तै चलैं।।
जग सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब संशय हरैं।
भ्रमरोग-हर जिनके वचन, मुख-चन्द्रतैं अमृत झरैं।।२।।

अर्थ - मुनिराज १४ प्रकार के अन्तरंग एवं १० प्रकार के बहिरंग परिग्रहों से सदा दूर रहते हैं, इसलिए उनके ‘परिग्रह त्याग महाव्रत’ होता है। सूर्योदय होने के बाद दिन में एकाग्रचित्त से चार हाथ आगे की भूमि देखकर जीव-जन्तुओं की हिंसा से बचते हुए मुनिराज मार्ग में चलते हैं अत: उनके ‘ईर्या समिति’ होती है।

विशेषार्थ - परिग्रह के मुख्यत: दो भेद हैं-अभ्यन्तर और बाह्य। अभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार का है-मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। बाह्य परिग्रह दश प्रकार का है-क्षेत्र (खेत), वास्तु (मकान), हिरण्य, स्वर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, वस्त्र और बर्तन।

एषणा, आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापना समिति

छ्यालीस दोष बिना सुकुल, श्रावक तनैं घर अशन को।
लैं तप बढ़ावन हेतु नहिं तन, पोषते तजि रसन को।।
शुचि ज्ञान संजम उपकरण, लखिवैं गहैं लखिवैं धरैं।
निर्जन्तु थान विलोक तन, मल मूत्र श्लेषम परिहरैं।।३।।

अर्थ - छ्यालीस दोषों से रहित एवं बत्तीस अन्तरायों को टालकर और रसना इन्द्रिय की लोलुपता छोड़कर (रसों का आंशिक या पूरा त्यागकर) शरीर को पुष्ट करने का अभिप्राय न रखते हुए केवल तप बढ़ाने के लिए, मुनिराज उत्तम कुल वाले श्रावक के यहाँ अनुद्दिष्ट प्रासुक भोजन (आहार) को दिन में एक बार ग्रहण करते हैं, इसलिए उनके ‘एषणा समिति’ होती है। शुद्धि-पवित्रता के साधन कमण्डलु, ज्ञान के साधन शास्त्र एवं संयम के साधन पिच्छिका को जीवों की विराधना (हिंसा) बचाने के लिए मुनिराज देखभाल कर रखते और उठाते हैं, इसलिए उनके ‘आदान-निक्षेपण समिति’ होती है। मल-मूत्र-कफ आदि शरीर के मैलों को मुनिराज जीव रहित स्थान देख कर त्यागते (छोड़ते) हैं, अत: उनके ‘व्युत्सर्ग या प्रतिष्ठापन समिति’ होती है।

विशेषार्थ - दाता के आश्रित सोलह उद्गम दोष, पात्र के आश्रित सोलह उत्पादन दोष तथा आहारसंबंधी दस और भोजनक्रियासंबंधी चार-ऐसे कुल छियालीस दोष हैं।

तीन गुप्तियाँ और पंचेन्द्रिय विजय

सम्यक् प्रकार निरोध मन वच, काय आतम ध्यावते।
तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण, उपल खाज खुजावते।।
रस रूप गंध तथा फरस अरु, शब्द शुभ असुहावने।
तिनमें न राग विरोध पंचेन्द्रिय, जयन पद पावने।।४।।

अर्थ - मुनिराज जब भली प्रकार से मन, वचन और काय की क्रिया (प्रवृत्ति) को रोककर अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, तब उनकी शांत एवं अचल आकृति को देखकर उसे पत्थर समझकर उससे हिरण या अन्य चौपाये अपनी खुजली मिटाने (रगड़ कर खुजाने) लगते हैं इसलिए उनके तीनों गुप्तियाँ (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति) होती हैं। वे अपने लिए पाँचों इन्द्रियों के २७ विषयों-५ रस, ५ वर्ण, २ गंध,८ स्पर्श, ७ शब्द-मे न तो प्रिय (शुभ) होने पर राग करते हैं और न ही अप्रिय (अशुभ) होने पर द्वेष करते हैं इसलिए पंचेन्द्रियों को वश में करने (विरक्त रहने) से वे जितेन्द्रिय कहलाते हैं।

विशेषार्थ - यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति का नाम समिति है और मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति की निवृत्ति का नाम गुप्ति है। पाँच इन्द्रियों और मन के उâपर विजय प्राप्त करना अर्थात् उन्हें वश में रखना इन्द्रियविजय कहलाता है।

छह आवश्यक और सात शेष गुण

समता सम्हारैं, थुति उचारैं, वन्दना जिनदेव को।
नित करैं श्रुतिरति, धरैं प्रतिक्रम, तजैं तन अहमेव को।।
(प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान करते)
जिनके न न्हौन, न दन्त-धोवन, लेश अम्बर आवरन।
भूमाहिं पिछली रयनि में कछु, शयन एकासन करन।।५।।
(भूमाहिं विचली)

अर्थ - दिगम्बर जैन मुनि सदा

  1. सामायिक करते हैं
  2. स्तुति करते हैं
  3. श्री जिनेन्द्र भगवान की वंदना करते हैं
  4. स्वाध्याय मनोयोग से करते हैं
  5. प्रतिक्रमण करते हैं
  6. देह से ममत्व त्याग करके कायोत्सर्ग करते हैं

इसलिए उनके ६ आवश्यक होते हैं। शरीर का शृँगार त्याग के कारण वे मुनिराज (१) स्नान नहीं करते (२) दातौन नहीं करते (३) रंचमात्र भी कपड़ा शरीर ढाँकने में काम नहीं लेते (४) रात के अंतिम भाग में जमीन पर एक ही करवट लेटकर थोड़ी सी नींद लेते हैं।

विशेषार्थ - जो किसी के वश में नहीं होते, उन्हें अवश कहते हैं, अर्थात् आधि (मानसिक पीड़ा) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) आदि से ग्रस्त हो जाने पर भी, उनके एवं इन्द्रियों के वशीभूत न होकर, जो दिन और रात्रि के आवश्यक कार्य साधुओं को करने ही चाहिए, उन्हीं कार्यों को आवश्यक कहते हैं।

पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने इस पद्य को संशोधित करके मुनियों के आचार ग्रंथ के अनुसार स्पष्टीकरण किया है, जो कि दृष्टव्य है- पण्डित दौलतराम जी और कवि बुधजन जी ने समता, स्तुति, वन्दना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग ये छ: आवश्यक (मुनियों के) कहे हैं किन्तु मूलाचार, अनगार धर्मामृत एवं अन्य सभी आचार्यप्रणीत आचारग्रंथों में सामायिक (समता), चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक कहे हैं। मूलाचार, आचारसार आदि ग्रंथों में साधुओं के २८ मूलगुणों के अन्तर्गत छह आवश्यक क्रियाओं में प्रतिक्रमण के बाद ‘प्रत्याख्यान’ क्रिया है न कि स्वाध्याय। प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग। यावज्जीवन किसी वस्तु का त्याग अथवा प्रतिदिन आहार के बाद गुरु के पास अगले दिन आहार लेने तक आहार-भोजन का त्याग आदि प्रत्याख्यान है। इसी प्रकार- अनगार धर्मामृत आदि ग्रंथों में मुनियों के लिए पिछली रात्रि में ‘वैरात्रिक’ स्वाध्याय का विधान है और रात्रि के अर्ध रात्रि में सोने का-निद्रा लेने का विधान है, अत: यह संशोधित पाठ आगमसम्मत है।

शेष सात गुण एवं समता

इक बार दिन में लैं अहार, खड़े अलप निज पान में।
कचलोंच करत न डरत परिषह, सों लगे निज ध्यान में।।
अरि मित्र महल मसान कंचन, काँच निंदन थुति करन।
अर्घावतारन असि-प्रहारन, में सदा समता धरन।।६।।

अर्थ - मुनि दिन में एक बार ही अपने हाथ में लेकर खड़े-खड़े थोड़ा सा आहार लेते हैं। वे अपरिग्रही अपने केशों का अपने हाथों से लोंच करते हैं। वे परिषह (दु:ख) से नहीं डरते हैं और अपनी आत्मा में लीन रहते हैं। इस प्रकार ये २८ मूलगुण साधु पालते हैं-५. महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियजय, ६ आवश्यक·२१ मूलगुण, फिर १. न नहाना २. दाँत न धोना ३. जमीन पर सोना ४. नग्न रहना ५. एक बार भोजन करना ६. खड़े-खड़े करपात्र में आहार लेना ७. अपने बालों का लोंच करना - २१ + ७ = २८ मूलगुण हैं। आत्मा के अतिरिक्त अन्य समस्त भौतिक पदार्थों से उदासीन रहने के कारण उनके लिए समस्त ऐश्वर्य तुच्छ हैं-साधु के लिए शत्रु और मित्र, महल और श्मशान, कंचन और काँच, निंदा और स्तुति, पूजन करना या तलवार से मारना-ये सब समान हैं अर्थात् मुनि हर एक अवस्था में शांत-चित्त रहा करते हैं। वे राग-द्वेष से ऊपर उठ जाते हैं अर्थात् वे सम-भाव धारण कर लेते हैं और आने वाली समस्त आपत्तियों और कष्टों को साम्य परिणामों से सहन कर लेते हैं।

विशेषार्थ - क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डाँस-मच्छर, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, नग्नता, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार-पुरस्कार, अलाभ, अदर्शन, प्रज्ञा और अज्ञान यह बाईस प्रकार के परिषह हैं तथा रागद्वेष के अभावरूप प्रवृत्ति को समता कहते हैं।

मुनियों का तप, धर्म, विहार तथा स्वरूपाचरण चारित्र

तप तपैं द्वादश धरैं वृष दश, रतनत्रय सेवैं सदा।
मुनि साथ में वा एक विचरैं, चहैं नहिं भव सुख कदा।।
यों है सकल संयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब।
जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै पर की प्रवृत्ति सब।।७।।

अर्थ - मुनि बारह प्रकार के तप तपते हैं, दश प्रकार के धर्म को धारण करते हैं, सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी तीन गुण रत्नों की रक्षा करते हैं, मुनियों के साथ या एकाकी विचरण करते हैं और सांसारिक सुखों की इच्छा भी नहीं करते, इस प्रकार मुनि के सकल-चारित्र का वर्णन हुआ। अब स्वरूपाचरण या निश्चयचारित्र को कहते हैं, जिसके उदय से अपनी आत्मा की ज्ञानादि सम्पत्ति प्रकट होती है और पर-पदार्थों की ओर झुकाव सब प्रकार से मिटता है।

विशेषार्थ - प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, ये छह अंतरंग तप और अनशन, ऊनोदर, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छ: बाह्यतप होते हैं।

स्वरूपाचरण चारित्र (शुद्धोपयोग) का वर्णन

जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया।
वरणादि अरु रागादि तैं, निज भाव को न्यारा किया।।
निजमाहिं निज के हेतु निजकर, आपको आपै गह्यौ।
गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय, मँझार कछु भेद न रह्यौ।।८।।

अर्थ - - जिस प्रकार कोई व्यक्ति तीक्ष्ण छेनी से पाषाण को भेद देता (तराशता) है, ठीक उसी प्रकार जब वीतरागी मुनिराज अपने अन्तरंग में भेदविज्ञानरूपी छेनी को डालकर सम्यक्ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और उससे आत्मा के स्वरूप को रूप-रस-गंध और स्पर्शरूप द्रव्यकर्म से तथा राग-द्वेष आदिरूप भावकर्म से अलग कर अपनी आत्मा में, आत्मा के लिए, आत्मा के द्वारा, आत्मा को अपने-आप (स्वत:) जान लेते हैं-तब उनके लिए गुण, गुणी, ज्ञाता और ज्ञेय इनमें कुछ भी भेद (अंतर) नहीं रह जाता है। इस प्रकार अभेदपने का अलौकिक साम्राज्य उपस्थित हो जाता है और यही ‘स्वरूपाचरण चारित्र’ है।

विशेषार्थ - सकल संयम की साधना की चरमावस्था के पश्चात् आत्मा की जो वीतराग परिणति प्रगट होती है वह स्वरूपाचरण चारित्र है। इसी का अपर नाम निश्चयचारित्र, यथाख्यातचारित्र अथवा वीतरागचारित्र है। जैसा कि परमात्मप्रकाश में कहा गया है कि राग-द्वेषाभाव-लक्षणं परमं यथाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं निश्चय-चारित्रं भवति........। रागद्वेष के अभावरूप उत्कृष्ट यथाख्यातस्वरूप स्वरूपाचरण ही निश्चयचारित्र है। आगे भी स्वरूपाचरणचारित्र को ही वीतरागचारित्र कहा है। यथा......स्वरूपे चरणं चारित्रमिति वीतरागचारित्रं तस्यैव भवति। अर्थात् स्वरूप के आचरण रूप वीतरागचारित्र भी उसी समभावधारी के ही होता है। इसी प्रकार वृहद् द्रव्य-संग्रह एवं प्रवचनसार आदि ग्रंथों में भी कहा गया है।

स्वरूपाचरण चारित्र (निश्चयचारित्र) का वर्णन

जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को, न विकल्प वच भेद न जहाँ।
चिद्भाव कर्म चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ।।
तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोग की निश्चल दशा।
प्रगटे जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत ये, तीनधा एवै लसा।।९।।

अर्थ - वीतराग मुनिराज स्वरूपाचरण चारित्र के समय जब आत्मध्यान में मग्न हो जाते हैं, तब ध्यान (चिंतवन), ध्याता (ध्यान करने वाला) और ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ) में कुछ भी अन्तर नहीं रहता, वचन का विकल्प भी नहीं होता। वहाँ आत्मा ही कर्म (कत्र्ता के द्वारा खास इच्छित), आत्मा ही कत्र्ता (कार्य करने वाला) और आत्मा का भाव ही क्रिया (किया जाना) होता है, अर्थात् कत्र्ता-कर्म-क्रिया ये तीनों बिल्कुल अभिन्न (एक) तथा परस्पर अविरोधी हो जाते हैं, तब सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र भी एक साथ एकरूप होकर प्रकाशमान हो जाते हैं, शुद्धोपयोग की अटल अवस्था प्रकट हो जाती है अर्थात् अभेद रत्नत्रय की उपलब्धि होती है। भावार्थ-शुभाशुभ राग-द्वेषादि से रहित आत्मा की चारित्र-परिणति को शुद्धोपयोग कहते हैं।

स्वरूपाचरण चारित्र का लक्षण और निर्विकल्प ध्यान

परमाण नय निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखै।
दृग-ज्ञान सुख-बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विखै।।
मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं।
चितपिण्ड चण्ड अखण्ड सुगुण, करण्ड च्युत पुनि कलनितैं।।१०।।

अर्थ - उस स्वरूपाचरण चारित्र के समय मुनियों के आत्मानुभव में प्रमाण, नय और निक्षेप का प्रकाश (उदय) नहीं होता अर्थात् वे जुदा-जुदा प्रतीत नहीं होते वरन् ऐसा विचार (महसूस) होता है कि वे (मुनि) अनन्त- दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप (अनन्त चतुष्टय के धारी) हैं, उनमें अन्य कोई राग-द्वेषादि भाव नहीं हैं। वे स्वयं ही साध्य हैं, स्वयं ही साधक हैं-कर्म तथा उसके फल (संसार परिभ्रमण) से मुक्त (बाधा रहित) हैं। वे स्वयं को चैतन्यपिण्ड, तेजस्वी, अखण्ड तथा उत्तमोत्तम गुणों का भण्डारस्वरूप अनुभव करते हैं, जो पाप तथा कर्म से रहित है। इस प्रकार सब प्रकार के विकल्पों से रहित आत्मा में स्थिरता (निर्विकल्पता) को स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं। विशेषार्थ-वस्तु के सर्वांशों को जानने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। वस्तु के एकदेश को जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। नय ज्ञान द्वारा बाधा रहित जाने हुए पदार्थों में प्रसंगवशात् नामादि की स्थापना करना निक्षेप है।

अलौकिक आनंद एवं अरिहंत अवस्था

यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यो।
सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो।।
तब ही शुकलध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि कानन दह्यो।
सब लख्यो केवलज्ञान करि, भविलोक को शिवमग कह्यो।।११।।

अर्थ - इस स्वरूपाचरण चारित्र के समय मुनिराज पूर्वोक्त विचार कर जब आत्म-चिन्तवन में लीन हो जाते हैं, तब उन्हें जो वचनातीत आनन्द प्राप्त होता है, वह (आनन्द) इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती और अहमिन्द्र को भी नहीं मिलता। उस स्वरूपाचरण चारित्र के प्रकट होने पर उसके प्रभाव से शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा चार घातिया कर्म (ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय, अन्तराय) रूपी जंगल को जलाकर मुनिराज नष्ट कर देते हैं जिससे उन्हें ‘केवलज्ञान’ की प्राप्ति हो जाती है। फलस्वरूप वे तीनों लोकों एवं तीनों कालों की सब बातों (अनन्तानन्त पदार्थों के गुण-पर्यायों) को जानकर संसार के भव्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं, यही ‘अरिहन्त’ अवस्था है।

विशेषार्थ - स्वरूपाचरणचारित्र श्रेणी की अवस्था में उत्पन्न होता है जिसके उत्पन्न होने के बाद अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, यही बात पण्डित जी ने लिखी है कि-

‘‘तब ही शुकलध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि-कानन दह्यो।।
सिद्ध स्वरूप का वर्णन
पुनि घाति शेष अघाति विधि, छिनमाँहिं अष्टम भू वसैं।
वसुकर्म विनसै सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं।।
संसार खार अपार पारावार, तरि तीरहिं गये।
अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये।।१२।।

अर्थ - अरिहन्त अवस्था या केवलज्ञान के उदय के पश्चात् वे भव्य जीव शेष ४ अघातिया कर्मों (वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र) की ८५ प्रकृतियों का नाशकर क्षण मात्र में अष्टम भू (मोक्ष) को पा लेते हैं। आठों कर्मों का नाश हो जाने पर उनमें सम्यक्त्वादि आठ गुण प्रकट हो जाते हैं। ऐसे भव्य जीव संसाररूपी दुखदायी एवं अथाह समुद्र से उत्तीर्ण (पार) हुए और होते हैं अर्थात् जन्म-मरण की बाधा से मुक्त हो अविनाशी ‘मोक्ष सुख’ को प्राप्त कर लेते हैं। ये ही निर्विकार, अशरीरी, अमूर्तिक, शुद्धचैतन्यस्वरूप तथा अविनाशी होकर ‘सिद्ध’ कहलाते हैं। विशेषार्थ-मोहनीय कर्म के नाश से सम्यक्त्व गुण प्रगट होता है। दर्शनावरणी के नाश से दर्शन गुण प्रकट होता है। ज्ञानावरणी के नाश से ज्ञान गुण प्रकट होता है। गोत्रकर्म के नाश से अगुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है। नामकर्म के नाश से सूक्ष्मत्व गुण प्रकट होता है। आयुकर्म के नाश से अवगाहनत्व गुण प्रकट होता है। वेदनीयकर्म के नाश से अव्याबाधत्व गुण प्रकट होता है तथा अंतरायकर्म के नाश से वीर्यत्व गुण प्रकट होता है।

मोक्ष पर्याय की महिमा, मनुष्य पर्याय की सार्थकता एवं शाश्वत सुख की प्राप्ति

निजमाँहि लोक अलोक गुण, परजाय प्रतिबिम्बित थये।
रहि हैं अनन्तानन्त काल, यथा तथा शिव परणये।।
धनि धन्य हैं जे जीव नरभव, पाय यह कारज किया।
तिनही अनादि भ्रमण पञ्च प्रकार, तजि वर सुख लिया।।१३।।

अर्थ - उन सिद्ध भगवान की आत्मा में लोक और अलोक (समस्त पदार्थ) अपने-अपने गुणों और पर्यायों सहित एक साथ दर्पण में प्रतिबिम्बित पदार्थ के समान झलकने लगते हैं। वे जैसे मोक्ष को गये हैं, वैसे ही वहाँ रहने वाले अन्य सिद्ध जीवों के समान अनन्तानन्त काल तक रहेंगे अर्थात् अपरिमित समय व्यतीत हो जाने पर भी उनकी अखण्ड शान्ति आदि में लेशमात्र भी बाधा न पड़ेगी। जिन प्राणियों ने मनुष्य की पर्याय प्राप्तकर यह शुद्ध चैतन्यरूप भी प्राप्त किया है, वह अत्यन्त धन्य (प्रशंसा के पात्र) हैं। उन्होंने ही अनादिकाल से चले आ रहे पंच परावर्तनरूप संसार के परिभ्रमण को त्यागकर उत्तम सुख (मोक्ष) पाया है।

विशेषार्थ - आत्म स्थित केवलज्ञान में स्वच्छ निर्मल दर्पण के सदृश सम्पूर्ण-द्रव्य अपने गुण एवं पर्यायों सहित प्रतिबिम्बित होते हैं अन्तर केवल इतना है कि केवलज्ञान में दर्पण की तरह छाया और आकृति नहीं पड़ती है।

रत्नत्रय का फल एवं शीघ्र आत्म हित की शिक्षा

मुख्योपचार दुभेद यों, बड़भागि रत्नत्रय धरैं।
अरु धरैंगे ते शिव लहैं तिन, सुयश-जल जगमल हरैं।।
इमि जानि आलस हानि साहस, ठानि यह सिख आदरो।
जबलौं न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निजहित करो।।१४।।

अर्थ - सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र (रत्नत्रय) के जो दो भेद-व्यवहार और निश्चय कहे गये हैं, उनको जो भाग्यशाली जीव धारण करते हैं और धारण करेंगे तो वे (अवश्य) मोक्ष प्राप्त करते हैं और करेंगे तथा उनका सुयशरूपी जल संसार के कर्मरूपी मैल को हरता है और हरेगा, ऐसा जानकर आलस्य को त्यागो और हिम्मत बाँधकर यह उपदेश ग्रहण करो कि जब तक रोग या बुढ़ापा इस शरीर को नहीं जकड़ता है, उसके पहले ही हम जल्दी से जल्दी आत्महित करने में लग जाएँ।

विशेषार्थ - बड़भागी का अर्थ भाग्यशाली अर्थात् पुण्यवान है। पुण्य हेय नहीं है, पुण्य की वांछा हेय है। रत्नत्रय धारण करने योग्य उत्तम शरीर आदि के साधन एवं परिणामों की निर्मलता का योग पुण्य से ही प्राप्त होता है अत: भाग्यशाली को ही मोक्ष का पात्र कहा है। सिद्ध परमात्मा का सुकीर्तिरूपी जल भव्यात्माओं के संसाररूपी मैल को हरण करने वाला है अत: जब तक श्रेणी आरोहण नहीं कर पाते, तब तक पंचपरमेष्ठियों का गुणगान निरन्तर करना चाहिए। ‘‘यह तो शुभ राग है’’ ऐसा भय नहीं करना चाहिए। इस प्रकार सात तत्त्वों के चिंतन द्वारा श्रद्धा निर्मल करके जिनेन्द्र की भक्ति द्वारा शक्ति (साहस) प्राप्त कर आलस्य और प्रमाद को छोड़कर शीघ्र ही चारित्र धारण करने का पुरुषार्थ करना चाहिए क्योंकि रोग एवं वृद्धावस्था आ जाने पर पीछे कुछ भी नहीं हो सकेगा।

अन्तिम उपदेश

यह राग आग दहै सदा, तातैं समामृत सेइये।
चिर भजे विषय कषाय अब तो, त्याग निजपद बेइये।।
कहा रच्यो पर पद में न तेरो, पद यहै क्यों दु:ख सहै।
अब दौल! होउ सुखी स्वपद रुचि, दाव मत चूकौ यहै।।१५।।

अर्थ - यह मोह (राग) रूपी अग्नि अनादिकाल से इस संसारी जीव को निरन्तर जला रही है, इसलिए उसे समतारूपी अमृत पीना चाहिए जिससे मोह का विनाश हो। विषय-कषायों का यह जीव अनन्तकाल से सेवन कर रहा है, अत: उनका त्याग कर आत्मपद (मोक्ष) प्राप्त करने का उद्योग करना चाहिए। प्राणी परायी वस्तुओं में क्यों अनुरक्त है ? जबकि वह उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है एवं फलस्वरूप चिरकाल से दु:ख सहता है। प्राणी का वास्तविक स्वरूप तो अनन्त दर्शन-ज्ञान-चारित्र (रत्नत्रय) रूप है, उसी में उसे होना चाहिए, तभी सच्चा सुख (मोक्ष) प्राप्त होगा। अत: इस ग्रंथ के रचयिता कवि दौलतराम स्वयं अपनी आत्मा को सम्बोधित करते हैं कि हे दौलत! तुझे अपने आत्म-स्वरूप को पहिचानना होगा। यह मनुष्य भव, उत्तम श्रावक कुल आदि का सुयोग बारम्बार नहीं मिलता, इसलिए इस सुअवसर को व्यर्थ ही नष्ट नहीं हो जाने देना है प्रत्युत् संसार के प्रति आसक्ति (मोह) का त्यागकर भव-भ्रमण से मुक्ति हेतु एकाग्रचित्त होकर प्रयत्न करना है, यही करना जीवात्मा का वास्तविक लक्ष्य भी है।

विशेषार्थ - जैसे राग की दाह प्राणियों को जलाती है अर्थात् दु:ख देती है वैसे ही मोह, राग एवं द्वेष संसारी जीवों को अनादिकाल से निरन्तर जला रहे हैं इसलिए ये आग से भी भयंकर हैं।

ग्रन्थ निर्माण का समय, आधार, लघुता एवं फल

इक नव वसु इक वर्ष की, तीज सुकल बैसाख।
कर्यो तत्त्व उपदेश यह, लखि ‘बुधजन’ की भाख।।१।।
लघु-धी तथा प्रमादतैं, शब्द अर्थ की भूल।
सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावौ भव-कूल।।२।।

अर्थ - पं. दौलतराम जी ने अपने पूर्ववर्ती पं. बुधजन जी कृत ‘छहढाला’ के आधार पर यह तत्त्वोपदेश विक्रम संवत् १८९१ की मिती वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) को पूर्ण किया। पण्डित जी कहते हैं कि अल्पबुद्धि तथा प्रमाद के कारण कहीं शब्द या अर्थ की भूल रह गई हो, तो विद्वत्जन उसे सुधार करके पढ़ें, जिससे वे इस संसार से पार होने में समर्थ हो सवें।

विशेषार्थ - जिस प्रकार तीक्ष्ण शस्त्रों के प्रहार को रोकने वाली ढाल होती है, उसी प्रकार जीव को अहितकारी शत्रु-मिथ्यात्व, रागादि आस्रवों को तथा अज्ञानाधिकार को रोकने के लिए ढाल के समान इसमें छह प्रकरण हैं, जो छह प्रकार के छंदों में लिखे गये हैं इसलिए इस ग्रंथ का नाम छहढाला रखा गया है।

प्रश्नोत्तरी

प्रश्न १ - मुनियों के कितने मूलगुण होते हैं ?

उत्तर - मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण होते हैं-पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंचेन्द्रिय निरोध, छह आवश्यक और सात शेष गुण।

प्रश्न २ - महाव्रत किसे कहते हैं, उसके कितने भेद हैं ?

उत्तर - हिंसा आदि पाँचों पापों का पूर्णरूप से त्याग करना महाव्रत कहलाता है, उसके पाँच भेद हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।

प्रश्न ३ - अहिंसा और सत्य महाव्रत का स्वरूप बताइए ?

उत्तर - छह प्रकार के जीवों का घात नहीं करने रूप द्रव्यिंहसा एवं काम, क्रोधादिरूप भावहिंसा का पूर्ण त्याग होने को अिंहसा महाव्रत कहते हैं तथा विंâचित् मात्र भी झूठ नहीं बोलना सत्य महाव्रत है।

प्रश्न ४ - अचौर्य महाव्रत का क्या लक्षण है ?

उत्तर - पानी और मिट्टी के सिवाय किसी योग्य वस्तु को भी बिना दिए नहीं ग्रहण करना अचौर्य महाव्रत है।

प्रश्न ५ - ब्रह्मचर्य महाव्रत किसे कहते हैं ?

उत्तर - स्त्रीमात्र का त्याग करके अठारह हजार शील के भेदों को धारण कर हमेशा अपने चैतन्यस्वरूप आत्मा में लीन रहना ब्रह्मचर्य महाव्रत है।

प्रश्न ६ - अपरिग्रह महाव्रत का लक्षण बताइए ?

उत्तर - चौदह प्रकार के अंतरंग और दस प्रकार के बाह्य परिग्रह से सर्वथा विरक्त होना अपरिग्रह महाव्रत है।

प्रश्न ७ - चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह के नाम बताइए ?

उत्तर - १. मिथ्यात्व २. क्रोध ३. मान ४. माया ५. लोभ ६. हास्य ७. रति ८. अरति ९. शोक १०. भय ११. जुगुप्सा १२. स्त्रीवेद १३. पुरुषवेद १४. नपुंसकवेद।

प्रश्न ८ - दस प्रकार का बाह्य परिग्रह कौन-कौन सा है ?

उत्तर - १. क्षेत्र २. वास्तु (मकान) ३. हिरण्य (चाँदी) ४. स्वर्ण ५. धन (पशु) ६. धान्य ७. दासी ८. दास ९. कुप्य १०. भांड (बर्तन)

प्रश्न ९ - समिति किसे कहते हैं ?

उत्तर - यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने को समिति कहते हैं।

प्रश्न १० - समिति के कितने भेद हैं ?

उत्तर - पाँच भेद हैं-१. ईर्यासमिति २. भाषासमिति ३. एषणासमिति ४. आदाननिक्षेपण ५. व्युत्सर्गसमिति

प्रश्न ११ - ईर्यासमिति एवं भाषासमिति का स्वरूप बताइए ?

उत्तर - प्रमादरहित होकर चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना ईर्या समिति है तथा आगम के अनुसार हित-मित-प्रिय वचन बोलने को भाषा समिति कहते हैं।

प्रश्न १२ - एषणा समिति का लक्षण बताइए ?

उत्तर - छ्यालीस दोषों को एवं बत्तीस अन्तरायों को टालकर उत्तम श्रावक के घर पर तप की वृद्धि हेतु, शरीर की पुष्टि एवं जीभ के स्वाद की चाह से रहित होकर रसों का त्याग करके आहार लेना एषणासमिति है। (छ्यालीस दोष एवं बत्तीस अन्तराय के नाम मूलाचार ग्रंथ में देखें)।

प्रश्न १३ - आदाननिक्षेपण और व्युत्सर्ग समिति की परिभाषा बताइए ?

उत्तर - शुद्धि, ज्ञान और संयम के उपकरण (कमण्डलु-शास्त्र और पिच्छी) को देखकर उठाना तथा देखकर रखना आदान-निक्षेपणसमिति है एवं जीव-जन्तु रहित स्थान को देखकर शरीर के मल-मूत्र आदि को छोड़ना व्युत्सर्ग समिति है।

प्रश्न १४ - गुप्ति किसे कहते हैं, उसके कितने भेद हैं ?

उत्तर - मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को भलीप्रकार रोकना गुप्ति है। गुप्ति के तीन भेद हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति।

प्रश्न १५ - तीनों गुप्तियों का पृथक्-पृथक् स्वरूप बताइए ?

उत्तर - मन को वश में करना मनोगुप्ति, वचन को वश में करना वचनगुप्ति तथा काय को वश में करना कायगुप्ति है।

प्रश्न १६ - मुनिराज की शांत मुद्रा को देखकर मृगगण क्या करते हैं ?

उत्तर - अपनी आत्मा का ध्यान करते हुए उन मुनियों की स्थिर मुद्रा को देखकर हिरणों का समूह उन्हें पत्थर समझकर उनके ऊपर अपने शरीर की खाज खुजाता रहता है।

प्रश्न १७ - आवश्यक किसे कहते हैं ?

उत्तर - अवश्य करने योग्य क्रिया को आवश्यक कहते हैं।

प्रश्न १८ - मुनियों के छह आवश्यक कौन-कौन से हैं ?

उत्तर - १. समता २. स्तव ३. वन्दना ४. प्रतिक्रमण ५. स्वाध्याय ६. कायोत्सर्ग। मूलाचार के अनुसार स्वाध्याय के स्थान पर प्रत्याख्यान नाम का आवश्यक है।

प्रश्न १९ - सामायिक किसे कहते हैं ?

उत्तर - प्रिय और अप्रिय वस्तु में राग और द्वेष को त्याग करके त्रिकाल में देववन्दना करने को सामायिक कहते हैं अर्थात् साम्यभाव का नाम ही सामायिक है।

प्रश्न २० - स्तव किसे कहते हैं ?

उत्तर - ऋषभ आदि २४ तीर्थंकरों का भक्तिपूर्वक स्तवन करना स्तव है।

प्रश्न २१ - वंदना का क्या लक्षण है ?

उत्तर - अर्हंतों को, सिद्धों को, उनकी प्रतिमाओं को, जिनवाणी को और गुरुओं को कृतिकर्मपूर्वक नमस्कार करना वंदना है।

प्रश्न २२ - प्रतिक्रमण का क्या स्वरूप है तथा उनके भेद कितने हैं ?

उत्तर - अहिंसादि व्रतों में जो अतीचार आदि दोष उत्पन्न होते हैं, उनको निंदा-गर्हापूर्वक शोधन करना-दूर करना प्रतिक्रमण है। इसके ऐर्यापथिक, दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और औत्तमार्थिक ये सात भेद हैं।

प्रश्न २३ - स्वाध्याय किसे कहते हैं ?

उत्तर - राग-द्वेष रहित दिगम्बर आचार्यों के द्वारा रचित अहिंसामय धर्म और मोक्षमार्ग के उपदेशक तथा राग-द्वेष, मोह, विषय-कषायों को दु:खदायक, छोड़ने योग्य बताने वाले शास्त्रों का अध्ययन करने को स्वाध्याय कहते हैं।

प्रश्न २४ - प्रत्याख्यान का क्या लक्षण है ?

उत्तर - मन, वचन, काय से भविष्य के दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आहार ग्रहण के अनंतर गुरु के पास अगले दिन आहार ग्रहण करने तक के लिए जो चतुराहार का त्याग किया जाता है, वह प्रत्याख्यान कहलाता है। ‘‘अतीतकाल के दोष का निराकरण करना प्रतिक्रमण है। अनागत और वर्तमान काल में द्रव्यादि दोष का परिहार करना प्रत्याख्यन है। यही इन दोनों में अंतर है। तप के लिए निर्दोष वस्तु का त्याग करना भी प्रत्याख्यान है। किन्तु प्रतिक्रमण दोषों के निराकरण हेतु ही है।’’

प्रश्न २५ - कायोत्सर्ग का स्वरूप बताइए ?

उत्तर - दैवसिक, रात्रिक आदि क्रियाओं में पच्चीस या सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण से तथा चौवन, एक सौ आठ आदि श्वासोच्छ्वासपूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण करना। काय-शरीर का उत्सर्ग-त्याग अर्थात् काय से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।

प्रश्न २६ - मुनियों के शेष सात गुण कौन-कौन से हैं ?

उत्तर - १. स्नान नहीं करना २. दातौन नहीं करना ३. नग्न रहना ४. भूमि पर शयन करना ५. दिन में ही एक बार आहार लेना ६. खड़े-खड़े हाथ में आहार लेना ७. केशलोंच करना।

प्रश्न २७ - परीषह किसे कहते हैं, इसके कितने भेद होते हैं ?

उत्तर - शारीरिक और मानसिक पीड़ा के कारण भूख-प्यास वगैरह की वेदना को परीषह कहते हैं। परीषह २२ होते हैं-१. क्षुधा २. पिपासा ३. शीत ४. उष्ण ५. दंश मशक ६. नाग्न्य ७. अरति ८. स्त्री ९. चर्या १०. निषद्या ११. शय्या १२. आक्रोश १३. वध १४. याचना १५. अलाभ १६. रोग १७. तृण स्पर्श १८. मल १९. सत्कार पुरस्कार २०. प्रज्ञा २१. अज्ञान २२. अदर्शन।

प्रश्न २८ - तप किसे कहते हैं ?

उत्तर - इच्छाओं के निरोध को तप कहते हैं।

प्रश्न २९ - तप के कितने भेद हैं ?

उत्तर - बारह भेद हैं-छह अन्तरंग तप एवं छह बाह्य तप।
छह अन्तरंग तप-१. प्रायश्चित्त २. विनय ३. वैयावृत्य ४. स्वाध्याय ५. व्युत्सर्ग, ६. ध्यान।
छह बाह्य तप-१. अनशन २. अवमौदर्य ३. वृत्ति परिसंख्यान ४. रस परित्याग ५. विविक्त शय्यासन ६. कायक्लेश

प्रश्न ३० - धर्म किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो जीवों को संसार के दु:खों से निकालकर स्वर्ग-मोक्ष के उत्तम सुख में पहुँचाता है, वह धर्म कहलाता है।

प्रश्न ३१ - धर्म के कितने भेद हैं ?

उत्तर - दस भेद हैं-१. उत्तम क्षमा २. उत्तम मार्दव ३. उत्तम आर्जव ४. उत्तम सत्य ५. उत्तम शौच ६. उत्तम संयम ७. उत्तम तप ८. उत्तम त्याग ९. उत्तम आविंचन्य १०. उत्तम ब्रह्मचर्य।

प्रश्न ३२ - रत्नत्रय किसे कहते हैं ?

उत्तर - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं।

प्रश्न ३३ - मुनि किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियविजय, छह आवश्यक एवं सात शेष गुण, इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुणों को धारण करते हैं, वे मुनि कहलाते हैं।

प्रश्न ३४ -एकल विहारी मुनि कौन हो सकते हैं ?

उत्तर - जो तप, एकत्व भाव, संहनन और धैर्य इन सबसे परिपूर्ण दीक्षा और आगम में बली मुनि हैं, वे ही जिनकल्पी मुनि एकल विहारी हो सकते हैं । किन्तु इस पंचम काल में जिनकल्पी मुनि नहीं हैं अतः आज के स्थविरकल्पी साधुओं को एकलविहार कदापि नहीं करना चाहिए ।


प्रश्न ३५ - कौन मुनि एकल विहारी न होवे ?

उत्तर - गमन, आगमन, सोना, बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मलमूत्रादि विसर्जन करना इन कार्यों में जो स्वच्छन्द प्रवृत्ति करने वाला है और बोलने में भी स्वच्छन्द रुचि वाला है, ऐसा मुनि एकल विहारी न होवे । अर्थात् वर्तमान के स्थविरकल्पी मुनियों के एकलविहार का पूर्ण निषेध मूलाचार आदि ग्रन्थों में किया है ।

प्रश्न ३६ - क्या पंचम काल में कोई भी मुनि एकल विहारी हो सकता है ?

उत्तर - पंचम काल में किसी भी मुनि को एकल विहारी नहीं होना चाहिए, ऐसा आचार्यों ने कहा है क्योंकि एकल विहारी होने से स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति होने लगती है, जिससे गुरु की निन्दा, श्रुत का विनाश, तीर्थ की मलिनता, मूढ़ता, आकुलता, कुशीलता और पाश्र्वस्थता आदि दोष आते हैं।

प्रश्न ३७ - संयम किसे कहते हैं ?

उत्तर - सम्यक् प्रकार से यम अर्थात् नियम का पालन करना संयम कहलाता है। अथवा प्राणियों व इन्द्रियों के विषयों में अशुभ प्रवृत्ति के त्याग को संयम कहते हैं।

प्रश्न ३८ - संयम के कितने भेद हैं ?

उत्तर - संयम के दो भेद हैं-१. प्राणी संयम २. इन्द्रिय संयम।

प्रश्न ३९ - स्वरूपाचरण चारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर - मुनियों का आत्मस्वरूप में लीन होना स्वरूपाचरण चारित्र है। अथवाशुद्धात्मानुभव से अविनाभावी दिगम्बर मुनियों के चारित्र विशेष को स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं।

प्रश्न ४० - स्वरूपाचरण चारित्र किनके होता है ?

उत्तर - आत्मस्वरूप में लीन रहने वाले मुनियों के ही स्वरूपाचरण चारित्र होता है।

प्रश्न ४१ - स्वरूपाचरण चारित्र का फल क्या है ?

उत्तर - स्वरूपाचरण चारित्र के होते ही अपनी आत्मा की ज्ञानादि सम्पत्ति प्रकट हो जाती है और पर वस्तुओं से सर्व प्रकार की प्रवृत्ति हट जाती है।

प्रश्न ४२ - स्वरूपाचरण चारित्र के समय आत्मा किस अवस्था को प्राप्त हो जाता है ?

उत्तर - स्वरूपाचरण चारित्र के समय मुनिराज भेदविज्ञानरूपी बहुत तेज छैनी से अन्तरंग का पर्दा तोड़ देते हैं। रूपादि बीस गुणों से और रागादि भावों से आत्मभाव को जुदा कर लेते हैं। अपने आत्महित के लिए अपनी आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा को स्वयं ही जान लेते हैं। उस समय उनके गुण-गुणी, ध्यान-ध्याता-ध्येय में कुछ भी भेद नहीं रह जाता है, सब विकल्प मिट जाते हैं।

प्रश्न ४३ - सुबुद्धि रूपी छैनी किसे कहते हैं ?

उत्तर - भेद-विज्ञान को सुबुद्धि रूपी छैनी कहते हैं।

प्रश्न ४४ - गुण किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो वस्तु से अभिन्न रहते हैं या जिससे वस्तु की पहचान होती है उन्हें गुण कहते हैं।

प्रश्न ४५ - गुणी किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिसमें गुण पाये जाते हैं, उसे गुणी कहते हैं।

प्रश्न ४६ - ज्ञाता किसे कहते हैं ?

उत्तर - जानने वाली आत्मा को ज्ञाता कहते हैं।

प्रश्न ४७ - ज्ञेय किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो ज्ञान का विषय है, उसे ज्ञेय कहते हैं।

प्रश्न ४८ - ध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - अपने चित्त की वृत्ति को सब ओर से रोककर एक ही विषय में लगाना ध्यान है।

प्रश्न ४९ - ध्याता किसे कहते हैं ?

उत्तर - ध्यान करने वाले को ध्याता कहते हैं।

प्रश्न ५० - ध्येय किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिसका ध्यान किया जाता है, वह ध्येय है।

प्रश्न ५१ - ध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - ध्यान के चार भेद हैं-१. आत्र्तध्यान २. रौद्रध्यान ३. धर्मध्यान ४. शुक्लध्यान।

प्रश्न ५२ - आत्र्तध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - दु:ख में होने वाले ध्यान को आत्र्तध्यान कहते हैं।

प्रश्न ५३ - आत्र्तध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - आत्र्तध्यान के चार भेद हैं-१. अनिष्ट संयोग २. इष्ट वियोग ३. वेदना ४. निदान।

प्रश्न ५४ - रौद्र ध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - व्रूर परिणामों के होते हुए जो ध्यान होता है, उसे रौद्र ध्यान कहते हैं।

प्रश्न ५५ - रौद्र ध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - रौद्र ध्यान के चार भेद हैं-१. हिंसानंद २. मृषानंद ३. स्तेयानन्द ४. विषय संरक्षणानन्द (परिग्रहानन्द)।

प्रश्न ५६ - धर्मध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - धर्मयुक्त ध्यान को धर्मध्यान कहते हैं।

प्रश्न ५७ - धर्मध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - धर्मध्यान के चार भेद हैं-१. आज्ञा विचय २. अपाय विचय ३. विपाक विचय ४. संस्थान विचय।

प्रश्न ५८ - शुक्लध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - कषायरूपी मल का क्षय अथवा उपशम होने से वह शुक्लध्यान होता है इसलिए आत्मा के शुचि गुण के संबंध से इसे शुक्लध्यान कहते हैं। अथवा रागादि रहित स्वसंवेदन ज्ञान को आगम भाषा में शुक्लध्यान कहा है।

प्रश्न ५९ - शुक्लध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - शुक्लध्यान के चार भेद हैं-१. पृथक्त्व वितर्व २. एकत्व वितर्व ३. सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति ४. व्युपरतक्रिया निवृत्ति

प्रश्न ६० - ध्यान का फल क्या है ?

उत्तर - आत्र्तध्यान और रौद्रध्यान दोनों संसार के कारण हैं तथा धर्मध्यान परम्परा से मोक्ष का कारण और शुक्लध्यान साक्षात् मोक्ष का कारण है।

प्रश्न ६१ - विकल्प किसे कहते हैं ?

उत्तर - ऊहापोह या मन में अनेकों प्रकार की आकांक्षाओं की उत्पत्ति होने को विकल्प कहते हैं।

प्रश्न ६२- उपयोग किसे कहते हैं ?

उत्तर - जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है उसे उपयोग कहते हैं। अथवा चेतना की परिणति विशेष का नाम उपयोग है ।

प्रश्न ६३ - उपयोग के कितने भेद हैं ?

उत्तर - उपयोग के तीन भेद हैं-१. अशुभोपयोग २. शुभोपयोग ३. शुद्धोपयोग।

प्रश्न ६४ - स्वरूपाचरण चारित्र के समय आत्मा कैसा दिखता है ?

उत्तर - स्वरूपाचरण चारित्र के समय प्रमाण, नय और निक्षेप का प्रकाश अनुभव में नहीं आता है। आत्मा अनन्त चतुष्टयरूप दिखलाई देता है, उसमें कोई रागादि भाव नहीं दिखते। आत्मा ही साध्य- साधक तथा कर्मों और उसके फलों से बाधा रहित दिखने लगता है और वह चैतन्य का समूह खण्ड रहित उत्तम गुणों का पिटारा तथा पाप रहित दिखने लगता है।

प्रश्न ६५ - प्रमाण किसे कहते हैं ?

उत्तर - सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। अथवा वस्तु के सर्वांशों को जानने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है।

प्रश्न ६६ - नय किसे कहते हैं ?

उत्तर - वस्तु के एकदेश को जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं।

प्रश्न ६७ - नय के कितने भेद हैं ?

उत्तर - नय के दो भेद हैं-१. द्रव्यार्थिक नय २. पर्यायार्थिक नय।

प्रश्न ६८ - निक्षेप किसे कहते हैं ?

उत्तर - प्रमाण और नय के अनुसार प्रचलित हुए लोक व्यवहार को निक्षेप कहते हैं।

प्रश्न ६९ - निक्षेप के कितने भेद हैं ?

उत्तर - निक्षेप के चार भेद हैं-१. नाम निक्षेप २. स्थापना निक्षेप ३. द्रव्य निक्षेप ४. भाव निक्षेप।

प्रश्न ७० - अनन्त चतुष्टय कौन से हैं ?

उत्तर - अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य ये चार अनन्त चतुष्टय हैं।

प्रश्न ७१ - साध्य किसे कहते हैं ?

उत्तर - रत्नत्रय की एकता साध्य है।

प्रश्न ७२ - साधक किसे कहते हैं ?

उत्तर - शुद्धात्मा की साधना करने वाला जीव साधक है।

प्रश्न ७३ - स्वरूपाचरण चारित्र किस गुणस्थान में होता है ?

उत्तर - स्वरूपाचरण चारित्र सप्तम गुणस्थान से होता है तथा पूर्णता की अपेक्षा बारहवें गुणस्थान में होता है।

प्रश्न ७४ - क्या चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र हो सकता है ?

उत्तर - चतुर्थ गुणस्थान में यूँ तो चारित्र ही नहीं होता है इसीलिए उस गुणस्थान का नाम अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है फिर भी उसके सदाचरण की अपेक्षा रयणसार ग्रंथ में सम्यक्त्वाचरण चारित्र कह दिया है किन्तु उनके चारित्र को स्वरूपाचरण चारित्र तो कह ही नहीं सकते हैं।

प्रश्न ७५ - स्वरूपाचरण चारित्र का फल क्या है ?

उत्तर - उपयोग की स्थिरता से निजानन्द का पान करने वाले मुनिराज स्वरूपाचरण चारित्र में शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा चारों घातिया कर्मरूपी सघन वन को जलाकर केवलज्ञानरपी विशिष्ट फल को प्राप्त कर लेते हैं।

प्रश्न ७६ - केवलज्ञान प्राप्त होने पर वे मुनिराज क्या करते हैं ?

उत्तर - केवलज्ञान के द्वारा तीनों लोकों के अनन्तानन्त पदार्थों के गुण और पर्यायों को जानते हैं तथा संसार के भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग का उपदेश देते हैं।

प्रश्न ७७ - घातिया कर्म किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो कर्म जीव के ज्ञानादिक गुणों को घातें, उन्हें घातिया कर्म कहते हैं।

प्रश्न ७८ - घातिया कर्म कितने हैं ?

उत्तर - घातिया कर्म चार हैं-१. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. मोहनीय ४. अन्तराय।

प्रश्न ७९ - अरिहन्त किन्हें कहते हैं ?

उत्तर - चार घातिया कर्मों से रहित मोक्षमार्ग प्रदर्शक केवली भगवान को अरिहन्त भगवान कहते हैं।

प्रश्न ८० - कर्मों को नष्ट करते ही जीव ऊध्र्व गमन ही क्यों करता है ?

उत्तर - कर्मों को नष्ट करते ही जीव निम्न कारणों से ऊध्र्वगमन करता है-
१. पूर्व संस्कार से
२. संग-परिग्रह का पूर्ण अभाव होने से
३. बंध के छेद होने से
४. जीव का ऊध्र्वगमन स्वभाव होने के कारण

प्रश्न ८१ - मुक्त जीव का जब ऊध्र्वगमन स्वभाव है तब फिर वे सिद्धलोक से आगे क्यों नहीं जाते हैं ?

उत्तर - सिद्धलोक के आगे गमन में सहकारी कारण धर्मास्तिकाय अथवा धर्म द्रव्य का अभाव होने के कारण मुक्त जीव सिद्धलोक से आगे नहीं जा सकते हैं।

प्रश्न ८२ - सिद्धों के ज्ञान की क्या विशेषता है ?

उत्तर - सिद्ध भगवान की आत्मा में लोक-अलोक के अनन्तानन्त पदार्थ अनन्तगुण और पर्यायों सहित एक साथ झलकने लगते हैं।

प्रश्न ८३ - मोक्ष में सिद्ध भगवान कब तक रहते हैं ?

उत्तर - सिद्ध भगवान जिस निर्मल अवस्था से मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, वैसे ही अनन्तानन्त काल तक मोक्ष में रहते हैं और वे पुन: लौटकर संसार में कभी भी नहीं आते हैं।

प्रश्न ८४ - मनुष्य पर्याय की सार्थकता किसमें है ?

उत्तर - जिन जीवों ने मनुष्य जन्म पाकर मुनिपद की प्राप्तिरूप कार्य किया है वे जीव धन्य हैं और इसी में उनकी मनुष्य पर्याय की सार्थकता है। अथवा जब तक मुनि नहीं बन सकते हैं तब तक अणुव्रत आदि ग्रहण करके अपनी मनुष्य पर्याय को सार्थक करना चाहिए।

प्रश्न ८५ - संसार का नाश कौन कर सकता है ?

उत्तर - जो मानव जीवन पाकर मुनिव्रत धारण करते हैं, वही पंच परावर्तनरूप संसार का नाश करते हैं। मुनिपद धारण किए बिना संसार का नाश और मोक्ष की प्राप्ति न कभी किसी को हुई है और न कभी हो सकती है।

प्रश्न ८६ - रत्नत्रय कितने प्रकार का होता है ?

उत्तर - रत्नत्रय दो प्रकार का होता है-१. निश्चय रत्नत्रय २. व्यवहार रत्नत्रय।

प्रश्न ८७ - संसार में महाभाग्यशाली कौन हैं ?

उत्तर - जो निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार के रत्नत्रय को धारण करते हैं और आगे करेंगे, वे जीव इस संसार में महाभाग्यशाली हैं।

प्रश्न ८८ - रत्नत्रय धारण करने का फल क्या है ?

उत्तर - रत्नत्रय धारण करने वालों का सुकीर्तिरूपी जल संसाररूपी मैल को नष्ट करता है तथा वे रत्नत्रय के धारण करने से शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।


प्रश्न ८९ - संसार में आत्महित कब तक कर लेना चाहिए ?

उत्तर - रत्नत्रय ही मोक्ष का यथार्थ कारण है इस प्रकार जानकर आलस्य को छोड़कर साहसपूर्वक इस शिक्षा को ग्रहण करो कि जब तक रोग और वृद्धावस्था ने नहीं घेरा है तब तक जल्दी से अपना हित कर लेना चाहिए।

प्रश्न ९० - राग किसे कहते हैं ?

उत्तर - इष्ट पदार्थों में प्रीतिरूप परिणाम को राग कहते हैं।

प्रश्न ९१ - राग कितने प्रकार का होता है ?

उत्तर - राग दो प्रकार का होता है-१. प्रशस्तराग (शुभराग) २. अप्रशस्तराग (अशुभराग)

प्रश्न ९२ - प्रशस्त राग किसे कहते हैं ?

उत्तर - देव, शास्त्र, गुरु के प्रति भक्तिरूप परिणाम एवं दान, पूजा, व्रतादि अनुष्ठानरूप परिणाम को प्रशस्त राग कहते हैं।

प्रश्न ९३ - अप्रशस्त राग किसे कहते हैं ?

उत्तर - पाँचों इन्द्रियों की विषयभूत इष्ट सामग्री में प्रीतिरूप परिणाम को अप्रशस्त राग कहते हैं।

प्रश्न ९४ - प्रशस्त, अप्रशस्त राग के करने से क्या होता है ?

उत्तर - प्रशस्त राग पुण्य बंध का कारण है एवं परम्परा से मोक्ष का कारण है, किन्तु अप्रशस्त राग पाप बंध का ही कारण है।

प्रश्न ९५ - राग को आग के समान क्यों कहा है ?

उत्तर - शुद्धोपयोग की साधना करने वाले वीतरागी मुनियों के लिए ही राग को आग के समान कहा है। जैसे-अग्नि र्इंधन को जलाती है वैसे ही यह राग आत्मा को दु:खी बनाता है किन्तु शुद्धोपयोग की साधना के अभाव में श्रावकों का प्रशस्त राग आग के समान नहीं कहा है, उन्हें तो अप्रशस्त राग से बचने के लिए प्रशस्त रागरूप प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर कहा है।

प्रश्न ९६ - रागरूपी आग को शान्त करने के लिए क्या करना चाहिए ?

उत्तर - यह रागरूपी आग जीव को अनादिकाल से हमेशा जला रही है इसलिए इसे शान्त करने के लिए समतारूपी अमृत का सेवन करना चाहिए।

प्रश्न ९७ - इस जीव ने अनादिकाल से क्या किया है ?

उत्तर - इस जीव ने अनादिकाल से विषय-कषायों का सेवन किया है।

प्रश्न ९८ - अब हमें क्या करना चाहिए ?

उत्तर - अब हमें विषय-कषायों का त्याग करके आत्मस्वरूप को पहिचानना या प्राप्त करना चाहिए।

प्रश्न ९९ - पं. दौलतराम जी अपने आपको सम्बोधित करते हुए क्या कहते हैं ?

उत्तर - पं. दौलतराम जी अपने आपको सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि तू पर-पदार्थों में क्यों लुभा रहा है ? वह तेरा कर्तव्य नहीं है। तू दु:ख क्यों सहता है ? अब तो आत्मपद में मन लगा और इस अवसर को हाथ से मत खोने दो।

प्रश्न १०० - छहढाला ग्रंथ की रचना कब हुई ?

उत्तर - विक्रम संवत् १८९१ वैशाख शुक्ला तृतीया (अक्षय तृतीया) को छहढाला ग्रंथ की रचना हुई थी।

प्रश्न १०१ - पं. दौलतराम जी ने छहढाला ग्रंथ की रचना किस ग्रंथ के आधार से की थी ?

उत्तर - पं. दौलतराम जी ने छहढाला ग्रंथ की रचना प्राचीन विद्वान् बुधजन दास जी कृत छहढाला के आधार से की थी।

प्रश्न १०२ - इस ग्रंथ के अन्त में पं. दौलतराम जी क्या कहते हैं ?

उत्तर - पं. दौलतराम जी कहते हैं कि बुद्धि की मंदता व प्रमाद से इस छहढाला ग्रंथ में कहीं शब्द या अर्थ की भूल रह गई हो तो बुद्धिमान इसे सुधार कर पढ़ें जिससे संसार से पार होने में समर्थ हो सवें।

प्रश्न १०३ - छहढाला नाम के अभी तक वर्तमान में कितने ग्रंथ उपलब्ध हैं ?

उत्तर - छहढाला नाम के अभी तक तीन ग्रंथ उपलब्ध हैं-१. पं. द्यानतराय कृत छहढाला, २. पं. बुधजन दास कृत छहढाला और ३. पं. दौलतराम जी कृत छहढाला। इनमें से यही दौलतराम कृत छहढाला सर्वाधिक प्रसिद्धि को प्राप्त है, जिसे प्राय: सभी जैन पाठशालाओं में पढ़ाया जाता है।

एते हि तृष्णया मुक्ता निर्जितेन्तियशत्रवदृ । विधायापि बहन् मासानुपवासं महागुणा: ।। ९ ६ ।। भिक्षरै परगृहे लब्धरै मिदोंपां मौनमारिंथता८ । भुञ्जते प्राणमृत्यर्थ प्राणा धर्मस्य हेतव८ ।। ९७ ।। धर्म चरन्ति मोक्षार्थ यत्र पीडा न विद्यते । कथ'चिदपि सत्यानां सवेंयां सुरवमिच्छतान् ।। ९ ४ ।। श्रुत्वा तदूवचनं सम्राडचिन्तयदिदं चिरम् । अहो वत महाकष्ट जैनेश्वरमिद व्रतम् ८। ९९।। तिष्टन्ति मुनयो यत्र स्वरिमन् देहेरुपि नि८ रुपृहा८ । जातरूपधरा धीरा० सर्वभूत्तदयापसां ।। १ ००।। इदानीं भोजयाम्मेतान् सागारव्रत्तमाश्रितान् । लक्षणं हेमसूबेण कृरुबैतेन मसांधसा ।। १ ० १ ।। प्रकाभभन्थदमृयेम्यो दानं यदृछामि भक्तित८ । कनीयान् मुनिधर्मस्य धर्मठिमीभि८ समाधिन: । । १ ० २ ।। सम्यनंदृष्टिजनं सर्व ततोठसौ धरणीतलै । २न्थमत्कायन् महावेमैं: पुरुपै: स्वस्थ संमतै ८ ।। १ ०३।। महान् कलकलो जात: सर्वस्यामवनौ तत: । मो मो नरा महादानं मरत: कहुँयुद्यता ८। १ ० ४।। उसिष्टताशु गच्छामो वरुत्ररत्मादिकं धनम् । आनयामो नरा शेते प्रेपितास्तेन सादरा८ । । १ ० ०० । । उक्तभदृबैरिंदं तत्र 3पूज़यत्येष मंभतान् । सम्यनंदृष्टिजनान् राजा गमनं तत्र नो वृथा ।। १ ० ६।।

तत सम्यनंदृशो३ याता हर्ष पस्ममागता८ । समं पुत्र: कलबैश्च पुरुषा विनयरिथता८ ।। १ ० ७।। मिथ्यमृदृशोथीं सँप्राप्ता मायया वसुतृष्णया । भवन राजराजस्य शक्रप्रासादसबिभम् ।। १ ०८।। अङ्गन्धीप्तयववीहिभुदूमाषाडुरादिमि । उबित्य लक्षण: सर्वाम् सम्यरदर्शनसंस्कृतान्।। १ ० ९।।

करते । 1९५ । ८ ये मुनि तृष्ठणासे रहित हें इन्होंने इन्दियरूपी शत्रुओंको जीत लिया है, तथा महान् गुणोंके धारक हैं । ये एक-दो नहीं अनेक महीनोंके उपवास करनेके बाद भी श्रावकोंके घर ही भोजनके लिए जाते हें और वहां प्राप्त हुई निदोंष भिक्षाकौ मौन'-से खड़े रहकर ग्रहण करते हें । उनकी यह प्रवृत्ति रसास्वादके लिए न होकर केवल प्राणोंकी रक्षाके लिए हो होती है क्योंकि प्राण घमंके कारण हैं ।।९६-९७।। ये मुनि मोक्ष-प्रासिके लिए उस घर्मका आचरण कर रहे हैं जिसमें कि सुखकी इच्छद्भा रखनेवाले समस्त प्राणियोंको किसी भी प्रकारकी पीड़ा नहीं दी जाती है । । ९८ । । भगवान्के उक्त वचन सुनकर सम्राटू ० भरत चिरकाल तक यह विचार करता रहा और कहता रहा कि अहो ! जिनेन्द्र भगवान्का यह व्रत महान् कष्ठोंसे भरा है । इस व्रतके पालन करनेवाले मुनि अपने शरीरमें नि८स्मृह रहते हैं, दिगम्बर होते हैं, धीरवीर तथा समस्त प्राणियोंपर दया करनेमें तत्पर रहते हें । ।९०.-१ ० ० ८ । इस समय जो यह महान् भोजन-सामग्री तेयार कौ गयो है इससे गृहस्थका व्रत धारण करनेवालें पुरुषोंको भोजन कराता हूँ तथा इन गहरूयोंको सुवर्णसूत्रसे विहित करता हूँ 1। १ ० १ ।। भोजनके सिवाय अन्य आवश्यक वस्तुएँ भी इनके लिए भक्तिपूर्वक अच्छी मात्रामें देता हू क्योंकि इन लोगोंने जो धर्म धारण किया है वह मुनि घर्मका छोटा भाई ही तो है । । १ ०२। ।

तदनन्तर-सम्राटू भरतने महावेगशाली अपने इष्ट पुरुषोंको भेजकर पृथिवीतलपर विद्यमान समस्त सम्यनंदृष्टिजनोंकौ निर्मान्त्रत किया ।। १ ०३ ।। इस कायंसे समस्त पृथिवीपर बड़ा कोलाहल मच गया । लोग कहने लगे कि अहो. ! मनुष्यजनृ हो 1 सग्राटू भरत बहुत भारी दान करनेके लिए उद्यत हुआ है ८। १ ०४।। इसलिए उठो शीघ्र चलें, वस्त्र-रत्न आदिक धन लावें, देखो ये आदरसे भरे सेवकजन उसने भेजे हैं । । १ ० ५ 1 । यह सुनकर उन्हीं लोगोंमें-से कोई कहने लगे कि यह भरत अपने इष्ट सम्यरदृष्टिजनोंका ही सत्कार करता है इसलिए हम लोगोंका वहाँ जाना वृथा है ।। १ ०६ ।। यह सुनकर जो सम्यरदृष्टि पुरुष थे वे परम हर्षको प्राप्त हो स्वीपुत्रादिकोंके

साथ भरतके पास गये और विनयसे खड़े हो गये ।। १ ०७।। जो मिध्यादृष्टि थे वेभी धनकी तृरुणासे माथामयी सम्यरदृष्टि बनकर इन्द्रभवनकी तुलना करनेवाले सग्राटू भरतके भवनमें पहुचे । । १ ० ८ ८ । सग्राट भरतने भवनके आँगनमें बोये हुए जो, धान, मूँग उड़द आदिके अंकुरोंस अलक्षयत् सररनेन सूत्रचिढेन चारुणा । चामीकरमयेनासौ प्रावेशयदयो गृहम् ।। १ १ ०।। मिप्यादृशोरुपिं तृष्णार्ताश्विन्तया प्याकुलीकृसां । जल्पस्ती दीनवाक्यानि प्रविष्टा दु८रत्रसागरम् ।। १ १ १।। ततो यथेप्सिर्त दान' आवकेक्यों ददौ नृप: । पूजितानां च चिंतेयं सेपां जाता दुरात्मनाम् ।। १ १ २।। वयं केरुपि महापृता जगते हितकारिणा । पृजिता यन्नरेन्देण श्रद्धयाध्यान्ततुङ्गया । । १ १ ३। ।

ततरुते तेन गवेंण समरते धरणीतले । प्रवृत्ता याचिपुं लोकं वृद्वा द्रय्यसमन्वितम् ।। १ १ ४ ।।

सतो मतिसभुदेण भरताय निवेदितमू । यथाग्रेति मया जैने वचनं सदसि श्रुतम् ।। १ १५।। वर्द्धमानजिनस्यान्ते भविष्यन्ति कलों युगे । एते ये भवता सृष्टा: पारत्रण्डिनो महोद्धता: ।। १ १ ६।। प्राणिनो भारयिष्यन्ति धर्मबुद्धया विमोहिता८ । महाकषायसंयुक्ता८ सदा पापक्रियोद्यता: । । १ १ ७।। कृग्रव्यं वेदसंर्श च हिंसाभाषणतरुपरम् । वक्ष्यन्ति कर्दनिमुँत्तर्दे मोहयन्तोठखिला: प्रजा: ।। १ १ ८।। महाररभेषु स'सक्ता८ प्रतिग्रहपरायणा: । करिष्यन्ति सदा निन्दरै जिनभापितशासने ।। १ १ ९।। निर्यन्थभग्रतों दृट्टा क्रोर्ध यास्यन्ति पापिन८ । उपद्रवाय लोकस्य बिषवृक्षाङ्करा इव ।। १ २ ०।। तदृछुस्वा भरत८ कुद्ध८ तान् सर्वान् हन्तुमुद्यता । न्नासितारते ततस्तेन नाभेयं शरणं गता८ ।। १ २ १ ।। यस्सान्या हननं पुत्र कार्षोंरिति निवारितन् । त्ररषभेण ततो याता "माहना इति ते श्रुतिम् ।। १ २२।। रक्षितारुते यतरुतेन जिनेन श माँगता । न्नातारमिन्द्रमित्युन्दचैस्तत्तरुर्त विबुधा जगु: । । १ २ ३ १ ।

भाशा ५ ३५ ,५-५ शाच्चि

श्या चिं '५१५ पिं ,५ ८५ ’५ ३५ ८५ '५ ,५ ८५ '५८५

स्था ^ ^ स्था

समस्त सम्मादृष्टि पुरुषोंकी छाट अलग कर ली तथा उन्हें जिसमें रत्न पिरोया गया था ऐसे सुवर्णमय सुन्दर सूत्रके चिह्नसे विहित कर भवनके भीतर प्रविष्ट करां लिया । । १ ० ९-१ १ ० । । तृष्णश्वसे पीडित मिध्यादृष्टि लोग भी चिन्तासे व्याकुल हो दीन वचन कहते हुए दु:खरूपी सागरमें प्रेविष्ट हुए 1। १ १ १ ३। तदनन्तर-राजा भरतने उन श्रावकोंके लिए इच्छानुसार दान दिया । भरतके द्वारा सम्मान पाकर उनके ह्रदयमें दुर्भावना उत्पन्न हुई और वे इस प्रकार विचार करने लगे । । १ १ २। । कि हम लोग वास्तवमें महापवित्र तथा जगन्का हित करनेवाले कोई अनुपम पुरुष हैं इसीलिए तो राजाधिराज भरतने बडी श्रद्धाके साथ हम लोगोंकी पूजा की है ।।१ १ ३ ।। तदनन्तर वे इसी गर्वसे समस्त पृथिवीतलपर फेल गये और किसी धन'-सम्पन्न व्यक्तिको देखकर याचना करने लगे 1 1 १ १ ४। । तत्पश्चात् किसी दिन मतिसमुद्र नामक मनंत्रीने राजाधिराज भरत्तसे कहा कि आज मैंने भगवान्के समवसरणमें निग्वांकित वचन सुना है ।। १ १५।। वहाँ कहा गया है कि भरतने जो इन बाहाणोंकी रचना की है सो वे वर्द्धमान तीर्थकरके बाद कलियुग नामक पंचम काल आनेपर पाखण्डी एवं अत्यन्त उद्धत हो जायेंगे । । १ १ ६ । । धर्म बुद्धिसे मोहित होकर अर्थात् धर्म समझकर प्राणियोंको मारेंगे, बहुत भारी कषायसे युक्त होंगे और पाप कार्यके करनेमें तत्पर होंगे । । १ १७। । जो हिंसाका उपदेश देनेमें तत्पर रहेगा ऐसे वेद नामक खोटे शाखको कतसिं रहित अर्थात् ईश्वर प्रणीत बतलावेंगे और समस्त प्रजाको मोहित करते फिरेंगे । । १ १ ८।। बड़े-बड़े आरम्भीमें लोन रहेंगे दक्षिणा ग्रहण करेंगे और जिनशासनकी सदा निन्दा करेंगे । । १ १ ९। । निग्रंन्थ मुनिको आगे देखकर क्रोघको प्राप्त होंगे और जिस प्रकार विषवृक्षके अंकुर जगत्के उपद्रव अर्थात् अपकारके लिए है उसी प्रकार ये पापी भी जगत्के उपद्रवके लिए होंगे-जगत्में सदा अनर्थ उत्पन्न करते रहेंगे । । १ २ ० । । मतिसमुद्र मनंत्रीके वचन सुनकर भरत कुपित हो उन सब विमोंको मारनेके लिए उद्यत हुआ । तदनंतर वे भयभीत होकर भगवान् ऋषभदेवकी शरणमें गये । । १ २ १ 1 ! भगवान् ऋषभदेवने "हे पुत्र ! इनका ( मा हननं कार्षों: ) हनन मत करो' यह शब्द कहकर इनकी रक्षा की थी इसलिए ये आगे चलकर 'माहन' इस प्रसिद्धिको प्राप्त हो गये अर्थात् 'माहन' कहलाने लगे । । १ २२ । । चूँकि इन _ शरणागत बाहाणोंकी ऋषभ जिनेन्द्रने रक्षा की थी इसलिए देवों अथवा बिद्वानोंने भगवान्को

८ रि … ९.… … ८



9 ठाग्रइप्रप्नडाप्नक्षप्रझ० प्न । 3 डाराग्रइम्रत्राझ' ८ । ३ न्नामा० प्रष्ट प्र’ ३