दूसरी ढाल ( प्रश्नोत्तर सहित )
(पद्धड़ी छन्द)
ऐसे मिथ्यादृग-ज्ञान-चरण, वश भ्रमत भरत दुख जन्म-मरण। तातैं इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान।।१।।
अर्थ - यह जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के आधीन होकर चारों गतियों में भ्रमण करता है और जन्म-मरण के दु:खों को सहता है इसलिए भलीभांति समझकर उनको त्यागिए। उन तीनों का मैं संक्षेप में वर्णन करता हूँ, सो सुनिए।
विशेषार्थ - मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार परिभ्रमण के कारण हैं।
जीवादि प्रयोजनभूत तत्व, सरधै तिनमांहि विपर्ययत्व। चेतन को है उपयोग रूप, विन मूरति चिनमूरति अनूप।।२।।
अर्थ - जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष-ये सात सारभूत तत्त्व (द्रव्य) हैं। इनका उल्टा (विपरीत) श्रद्धान करना मिथ्यादर्शन है। यदि ऐसा जन्मजात संस्कारवश होता है, तो उसे ‘अगृहीत मिथ्यादर्शन’ कहते हैं। जो देखता-जानता है अर्थात् जिसमें ज्ञान एवं दर्शन होता है, उसे जीव (आत्मा) कहते हैं। यह अमूर्तिक, चैतन्यस्वरूप एवं उपमा रहित है।
विशेषार्थ - चेतना की परिणति विशेष का नाम उपयोग है, या जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं, या जो परिणाम चैतन्य को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं रहता, उसे उपयोग कहते हैं अथवा स्व एवं पर को ग्रहण करने वाले परिणाम को उपयोग कहते हैं। रूप, रस, गंध और स्पर्श सहित वस्तु को मूर्तिक एवं इनसे रहित को अमूर्तिक कहते हैं।
पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतैं न्यारी है जीव-चाल। ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देह में निज पिछान।।३।।
अर्थ - यह जीव (आत्मा) का स्वभाव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-इन पाँच द्रव्यों से भिन्न है, क्योंकि ये पाँचों द्रव्य अजीव हैं। अज्ञानी जीव इस तथ्य को न जानकर इससे उल्टा स्वरूप मान बैठता है। जैसे-वह अजीवरूप देह को ही आत्मा समझता है, दर्पण के प्रतिबिम्ब को वह अपना ही रूप समझता है और अपनी आत्मा के विकास की इच्छा से शरीर के प्रसाधन जुटाने लगता है।
मैं सुखी-दु:खी मैं रज्र् राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव। मेरे सुत-तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन।।४।।
अर्थ - मिथ्यादर्शन के प्रभाव से यह जीव ऐसा मानता है कि मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ, मैं गरीब हूँ, मैं धनी हूँ, धन मेरा है, गाय-बैल मेरे हैं, मेरा खूब प्रभाव है, पुत्र मेरे हैं, स्त्री मेरी है, मैं बलवान हूँ, मैं निर्बल हूँ, मैं कुरूप हूँ, मैं सुन्दर हूँ, मैं मूर्ख हूँ, मैं चतुर हूँ। वास्तव में ये सब पर-पदार्थ के ही परिणमन हैं, आत्मा के नहीं किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव को इनमें अपनत्व की प्रतीति होती है।
विशेषार्थ - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच द्रव्य अजीव हैं और इनसे पृथक् स्वभाव वाला जीव द्रव्य चैतन्यस्वरूप है किन्तु इस प्रकार की यथार्थ श्रद्धा न होकर देह को ही आत्मा मानना एवं देहोत्पन्न होने वाली कुरूप-सुरूप, सबल-निर्बल, धनी-निर्धन, मूर्ख-ज्ञानी तथा सुखी-दुखी आदि अवस्थाओं को आत्मा की अवस्थाएँ मानना जीव तत्त्व की विपरीत श्रद्धा कहलाती है।
तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान। रागादि प्रगट ये दु:ख दैन, तिनही को सेवत गिनत चैन।।५।।
अर्थ - जीव तत्त्व की तरह अजीव तत्त्व का भी मिथ्या श्रद्धान होता है। मिथ्यादृष्टि जीव शरीर की उत्पत्ति को ही अपनी (आत्मा की) उत्पत्ति समझता है और शरीर के नाश को अपना (आत्मा का) नाश मानता है। आत्मा को शरीर के सदृश अजीव-तत्त्व की आत्मरूप मान्यता ही अजीव-तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। धन-दौलत आदि के रागादि भाव स्पष्टत: दु:ख देने वाले हैं, उन्हीं राग-द्वेष, मान-माया, क्रोध-लोभ, पंचेन्द्रिय के विषयों का वह सेवन करता है और उसमें सुख मानता है। दुखद कर्मास्रवों को सुख का कारण मानना ही यह आस्रव-तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है।
शुभ-अशुभ बंध के फल मँझार, रति-अरति करै निज पद विसार। आतम-हित हेतु विराग-ज्ञान, ते लखैं आपको कष्ट दान।।६।।
अर्थ - मिथ्यादृष्टि जीव पूर्व में बंधे हुए शुभ कर्मों का फल भोगने में तो रुचि रखता है और अशुभ-कर्मों का फल भोगने में अरुचि रखता है क्योंकि वह अपनी आत्मा के स्वरूप को भूला हुआ है। ऐसी शुभ फल में रुचि एवं अशुभ फल में अरुचि रखना, बंध-तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। आत्मा का हित करने वाले वैराग्य और तत्त्व-ज्ञान हैं। इस जीव को मिथ्यादर्शन के कारण वैराग्य और निज-ज्ञान की बातें कष्टदायक प्रतीत होती हैं। (राग-रङ्ग और पर-ज्ञान में ही वह निमग्न रहना चाहता है और उनमे ही सुख ढूँढ़ता है।) यह संवर-तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है।
रोके न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय। याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दु:खदायक अज्ञान जान।।७।।
अर्थ - इच्छाओं को रोकना तप कहलाता है, जिससे कर्मों की निर्जरा होती है। मिथ्यादृष्टि जीव अपनी इच्छाओं को नहीं रोकता है, इसलिए वह अपनी आत्म शक्ति को व्यर्थ में खोता है। यह निर्जरा तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। इसलिए वह आनन्दरूप आकुलता से रहित मोक्ष तत्त्व को नहीं समझ पाता है, यही मोक्ष तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। इस प्रकार का विपरीत श्रद्धान अगृहीत मिथ्यादर्शन है और ऐसे ही उल्टे श्रद्धान के साथ जो कुछ ज्ञान होता है, उसे अगृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं जो अनन्त दु:खदायक है।
इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्याचरित्र। यों मिथ्यात्त्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह।।८।।
अर्थ - अगृहीत मिथ्यादर्शन और अगृहीत मिथ्याज्ञान के साथ पाँचों इन्द्रियों के जो विषय हैं, उनमें प्रवृत्ति (आचरण) करना ही अगृहीत मिथ्याचारित्र है। इस तरह मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र, जो (अनादिकालीन) स्वभाव से ही जीवों के बने रहते हैं, उनका वर्णन किया। अब गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र जो दूसरों के उपदेश से ग्रहण किये जाते हैं, उनके वर्णन को अच्छी तरह से सुनो।
जो कुगुरु कुंददेव कुधर्म सेव, पोषे चिर दर्शन मोह एव। अन्तर रागादिक धरैं जेह, बाहर धन अम्बर तैं सनेह।।९।।
अर्थ - कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की सेवा करने से चिरकाल तक मिथ्यात्व की ही पुष्टि होती है। जो अन्तरंग में राग-द्वेषरूप परिणाम और बहिरंग परिग्रह (धन-वस्त्र-शस्त्रादि) युक्त हैं तथा महत्व (यश, बड़प्पन) की चाह से कुलिंग (खोटा भेष) धारण करते हैं, वे पत्थर की नाव के समान हैं-जो स्वयं तो डूबती ही है, बैठने वालों को भी डुबो देती है अर्थात् वे खोटे गुरु जन्म-मरणरूपी संसार में डूबे हुए प्राणियों को अनन्त संसार में ही भटका देते हैं।
धारैं कुलिंग लहि महत-भाव, ते कुगुरु जन्म जल उपलनाव। जे रागद्वेष मल करि मलीन, वनिता गदादि जुत चिन्ह चीन।।१०।।
अर्थ - जो रागद्वेषरूपी मैल से मलिन (दूषित) हैं, जिनको स्त्री, गदा, त्रिशूल, खप्पर आदि अस्त्र-शस्त्र के चिन्ह होने से पहिचाना जा सकता है, वे सब कुदेव हैं। देव के सच्चे स्वरूप को न जानने वाले अज्ञानी लोग ही केवल उनकी सेवा (पूजा, भक्ति, विनय) किया करते हैं अत: उनके संसार के भ्रमण में कभी कमी नहीं हो सकती है अपितु भटकना बढ़ता ही है। विशेष-यहाँ इस परिभाषा के अनुसार चव्रेश्वरी, पद्मावती आदि शासन देवियाँ तथा क्षेत्रपाल, धरणेन्द्र आदि शासन देवों को कुदेव में ग्रहण नहीं करना, क्योंकि तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के अनुसार चौबीसों तीर्थंकर भगवान के शासन देव-देवी नियम से सम्यग्दृष्टि होते हैं, उनकी पूजा-अर्चना आगम सम्मत मानी गई है।
कुधर्म का लक्षण एवं गृहीत मिथ्याज्ञान के कथन की प्रतिज्ञा ते हैं कुदेव, तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भव भ्रमण छेव। रागादि भाव हिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत।।११।।
जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म, तिन सरधैं जीव लहै अशर्म। यावूँ गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान।।१२।।
अर्थ - राग-द्वेष आदि परिणाम भाविंहसा है, त्रस और स्थावर जीवों का घात होना द्रव्यहिंसा है, ये दोनों क्रियाएँ कुधर्म हैं। इस प्रकार कुगुरु, कुदेव और कुधर्म में जो जीव श्रद्धान करता है, वह सर्वदा दु:ख ही प्राप्त करता है, अत: इनको गृहीत मिथ्यात्व (मिथ्यादर्शन) समझो।
एकान्तवाद-दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त। रागी कुमतिन कृत श्रुताभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास।।१३।।
अर्थ - जो शास्त्र एकान्त पक्ष से दूषित हैं या जो विषय-वासनाओं के पोषक होने से निन्दनीय हैं तथा रागी-द्वेषी कुबुद्धि गुरुओं द्वारा रचे गये हैं, उन समस्त शास्त्रों का पठन-पाठन (अध्ययन) गृहीत मिथ्याज्ञान है। जीव (आत्मा) के लिए ये अन्त में बहुत दु:खदायी सिद्ध होते हैं। विशेषार्थ-भिन्न-भिन्न धर्मों की अपेक्षा एक वस्तु का विरोध रहित अनेक धर्मात्मक कथन करने वाला सिद्धान्त अनेकान्त है और अनेक धर्मों की अपेक्षा न करके वस्तु का एक ही रूप से कथन करना एकान्त है।
जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविधविध देह दाह। आतम अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन।।१४।।
अर्थ - पनी कीर्ति, धन का लाभ, सम्मान आदि की इच्छा से तप करके जो अनेक प्रकार से शरीर को कष्ट देते हैं और जिनको आत्मा क्या है, शरीर क्या है, इसका ज्ञान नहीं है, उनकी क्रियाएँ संसार सुख को तो प्रदान करने वाली हैं, किन्तु मोक्षपद प्राप्त कराने वाली नहीं है।
विशेषार्थ - जैसे तिल और बालू-रेत के लक्षण को न जानने वाले के द्वारा तेल के लिए बालू-रेत पेलने की क्रिया मिथ्या है, वैसे ही जीव और शरीर के भेद को जाने बिना जो-जो क्रियाएँ हैं, वे सब मिथ्याचारित्र हैं। इस पद्य की चतुर्थ पंकित का स्पष्टीकरण पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के शब्दों में शास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें- आत्मा और अनात्मा-स्व और पर के ज्ञान से रहित जो-जो क्रियाएँ हैं वे सब शरीर को क्षीण-कृश करने वाली हैं ऐसा नहीं है प्रत्युत-भस्म लगाना, जटा बढ़ाना, पंचाग्नि तप आदि क्रियाएँ भी भवनवासी आदि देवों में उत्पन्न कराने में कारण बन जाती हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि सम्यग्दर्शन के बिना ये क्रियाएँ मोक्षमार्ग को प्राप्त कराने में असमर्थ हैं। कदाचित् ये देव भगवंतों के पंचकल्याणक आदि में जाकर वहाँ सम्यग्दृष्टि भी बन सकते हैं और यदि नहीं भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सवेंâ तो भी हजारों, लाखों वर्षों तक देवयोनि के सुखों का अनुभव तो करते ही हैं अत: ये भी मिथ्या तपश्चरण सर्वथा शरीर को सुखाने वाले या व्यर्थ नहीं हैं किन्तु हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापों से व जुआ आदि दुव्र्यसनों से रहित होने से संसार के भौतिक सुखों को देने वाले ही हैं और नरकों के दु:खों से बचाने वाले ही हैं।
ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित पन्थ लाग। जगजाल भ्रमण को देहु त्याग, अब ‘दौलत’ निज आतम सुपाग।।१५।।
अर्थ - इस द्वितीय ढाल के अन्त में पं. दौलतराम जी अपने को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि ये सब (खोटे तप) मिथ्याचारित्र हैं, इनको छोड़ो। हे दौलत! अब तुम आत्मा के हितकारी मार्ग में लगकर जगत के जंजाल में भटकना त्याग कर अपनी आत्मा में अच्छी तरह लीन हो जाओ।
विशेषार्थ - मिथ्याचारित्र आदि का त्याग ही संसार चक्र के भ्रमण की परिसमाप्ति है अत: इसे छोड़कर आत्म कल्याण के मार्ग में लगो, यही उपदेश का भाव है। इस ढाल में चतुर्गति भ्रमण व दु:खों का निदान, सात तत्त्वों का उल्टा श्रद्धान, कुगुरु, कुदेव, कुधर्म का स्वरूप, गृहीत-अगृहीत के भेद से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का वर्णन विशद् रूप में किया गया है। अन्त में संसार के दन्द-फन्द छोड़कर आत्मस्वरूप में लवलीन होने की शिक्षा दी गई है।
-पद्धड़ी छंद-
प्रश्न १ - क्षणभंगुर इस संसार मांहि, क्यों जीव भ्रमण करता सदाहि ? उनको क्यों तजने हेतु कहा, बतलाओ इसका मर्म यहाँ ?।१।।
उत्तर - मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप परिणामों के कारण जीव संसार में परिभ्रमण करता है। ये तीनों संसार में दु:खदायी होने के कारण इन्हें त्याग करने की प्रेरणा दी गई है।
प्रश्न २ - मिथ्यादर्शन के मुख्य भेद, कितने होते हैं कहो देख ? चेतन आत्मा का मुख्य रूप, उत्तर बतलाओ क्या स्वरूप ?।२।।
उत्तर - मिथ्यादर्शन के मुख्य दो भेद हैं-अगृहीत और गृहीत मिथ्यादर्शन। चेतन आत्मा का मुख्य स्वरूप है उपयोगमयी होना, वह आत्मा चिच्चैतन्यरूप अमूर्तिक और अनुपम-उपमारहित है।
प्रश्न ३ - आत्मा का क्यों विपरीत ज्ञान, होता वैâसे मन में अज्ञान ? तब काया के प्रति क्या विचार, करता मानव क्या समझ सार ?।३।।
उत्तर - यह जीव मिथ्यात्व एवं अज्ञानता के वशीभूत होकर पुद्गल आदि पाँचों द्रव्यों को भी जीव के समान ही मानने लगता है, तब वह शरीर को ही आत्मा समझने लगता है।
प्रश्न ४ - मिथ्यादृष्टी क्या मान्य करे, पुद्गल के प्रति क्या भान करे ? तन उपज नाश में क्या विचार, सुख का माने किसको भंडार ?।४।।
उत्तर - मिथ्यादृष्टि जीव शरीर के सुख-दु:ख में आत्मा को ही सुखी-दु:खी मानने लगता है। वह शरीर की उत्पत्ति और विनाश में आत्मा की उत्पत्ति और विनाश मानता है। आत्मा को दु:ख प्रदान करने वाले रागद्वेष परिणामों को ही वह असली सुख का भंडार समझकर सच्चे सुख से वंचित रह जाता है।
प्रश्न ५ - शुभ अशुभ कर्म फल भोग जीव, मिथ्यात्व सहित क्या कहे जीव ? आतम हित के हैं हेतु कौन, उनके प्रति करता भ्रान्ति कौन ?।५।।
उत्तर - मिथ्यादृष्टि जीव शुभ-अशुभ कर्मों के फल सुख-दु:ख को भोगने में अत्यन्त रागद्वेषरूप परिणाम करता है और आत्मा के हितकर जो वैराग्य एवं ज्ञानरूप भाव हैं उनको वह भ्रान्तिवश दु:खदायी मानने लगता है।
प्रश्न ६ - कैसी प्रतीति है मिथ्याज्ञान, है अगृहीत की क्या पहचान ? यदि छहढाला का तुम्हें ज्ञान, दे दो उत्तर को सही मान ?।६।।
उत्तर - अगृहीत मिथ्याज्ञान से सहित जीव की पहचान यह है कि वह आत्मिक शक्ति को खोकर अपनी इन्द्रियजन्य इच्छाओं को रोक नहीं पाता और न ही निराकुल मोक्षसुख की खोज कर पाता है।
प्रश्न ७ - मिथ्यात्व सहित जो विषयवृत्ति, उनको माना कैसा चरित्र ? कब से वह आत्मा के है संग, बतलाओ यह कैसा प्रसंग ?।७।।
उत्तर - मिथ्यात्व सहित विषय सेवन की प्रवृत्ति को अगृहीत मिथ्याचारित्र कहते हैं वह मिथ्याचारित्र जीव के साथ अनादिकाल से चल रहा है, ऐसा जानना चाहिए।
प्रश्न ८ - मिथ्यादर्शन का दुतिय भेद, किस नाम से कहता ग्रन्थ वेद ? बतलाओ उसका क्या स्वरूप, जिसके कारण लखता न रूप ?।८।।
उत्तर - मिथ्यादर्शन के दूसरे भेद का नाम है-अगृहीत मिथ्यादर्शन। उसके होने पर यह जीव सच्चे धर्म को छोड़कर कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्रों के प्रति श्रद्धान करने लगता है।
प्रश्न ९ - कुगुरु की क्या पहचान कही, क्यों उनकी मुद्रा पूज्य नहीं ? उनकी संगति से क्या हो प्राप्त, उत्तर सुन होगा ज्ञान प्राप्त ?।९।।
उत्तर - जिसके अन्तर मन में राग-द्वेष भरा है तथा बाहर में जिन्होंने धन, वस्त्र आदि का परिग्रह धारण कर कुलिंगी भेष को अपना लिया है, उन्हें कुगुरु कहते हैं। जो लोग उनकी संगति करते हैं, वे पत्थर की नाव में बैठने के समान संसार में डूबने का ही फल प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न १० - हैं कौन देव माने कुदेव, किनमें क्या रहती है कुटेव ? उनसे क्यों नहिं हो भ्रमण छेव, उनकी करते हैं कौन सेव ?।१०।।
उत्तर - जो अपने साथ स्त्री, गदा आदि हथियारों को लिए हुए होते हैं वे कुदेव कहलाते हैं। राग-द्वेष से मलिन होने के कारण उन कुदेवों को सच्चे देव मानकर उनका सत्कार करने वालों का संसार भ्रमण नष्ट नहीं हो सकता है क्योंकि उनकी सेवा करने वाले भी मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं।
प्रश्न ११ - बोलो भाई क्या है कुधर्म, क्या है गृहीत मिथ्यात्व मर्म ? इसका कैसे हो समाधान, जिससे हो जावे सही ज्ञान ?।११।।
उत्तर - जिस धर्म में हिंसा करने की प्रेरणा दी जाती हो, राग-द्वेष उत्पन्न करने वाली क्रियाओं का वर्णन हो, उसे कुधर्म कहते हैं। कुगुरु, कुदेव और कुधर्म में श्रद्धान करना गृहीत मिथ्यादर्शन कहा गया है।
प्रश्न १२ - क्या है गृहीत मिथ्यात्वज्ञान, किसको होता है कुमतिज्ञान ? किस श्रुत को मिथ्याशास्त्र कहा, इस उत्तर में है सार बड़ा ?।१२।।
उत्तर - एकान्त और दुराग्रह से समन्वित ज्ञान गृहीत मिथ्याज्ञान कहलाता है, वह मिथ्यादृष्टि जीवों के ही होता है। मिथ्यादृष्टियों के द्वारा रचित शास्त्र, अश्लील उपन्यास आदि मिथ्याशास्त्र माने जाते हैं क्योंकि उनके अध्ययन से कुज्ञान की ही वृद्धि होती है।
प्रश्न १३ - कैसा गृहीत मिथ्याचरित्र, जो कर न सके आतम पवित्र ? तब जड़ चेतन का क्या स्वभाव, बोलो कैसा आचरण भाव ?।१३।।
उत्तर - अपने ख्याति, लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा की भावना से शरीर को कष्ट देने वाला तपश्चरण करना गृहीत मिथ्याचारित्र है। ऐसा जीव शरीर और आत्मा की भिन्नता को नहीं जान पाता है और उसकी क्रिया मात्र सांसारिक सुख प्रदान करने वाली होती है अर्थात् संसार से पार करने वाली नहीं होती है। यहाँ यह बात भी विशेष समझने की है कि तापसियों की जो अनेक प्रकार की क्रियाएँ हैं, वे केवल शरीर को क्षीण करती हैं, ऐसा एकांत नहीं है, क्योंकि उन क्रियाओं से भवनवासी आदि देवों के सुख भी प्राप्त हो सकते हैं इसलिए ये क्रियाएँ सर्वथा व्यर्थ नहीं हैं, क्योंकि संसार के कुछ न कुछ सुख तो देती ही हैं।
प्रश्न १४ - आतमहित का है मार्ग कौन, क्यों हैं उसके प्रति आज मौन ? दौलत इसका क्या सार कहें, उत्तर दो तुम क्या मान रहे ?
उत्तर - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही आत्महित के मार्ग हैं और मिथ्यात्व के कारण प्राणी उस रत्नत्रय के प्रति मौन रहते हैं अर्थात् उसे ग्रहण नहीं कर पाते हैं। पण्डित दौलतराम जी छहढाला की द्वितीय ढाल के समापन में अपनी आत्मा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे दौलत! अब तू ऐसे मार्ग में लग, जिसमें आत्मा का हित हो अत: संसार के जाल में घूमने का अब तू त्याग कर दे और आत्मा मे लीन होकर उसकी भलाई में लग जा।