।। छहढाला ।।

छहढाला - पाँचवीं ढाल

पाँचवीं ढाल ( प्रश्नोत्तर सहित )

(चाल छंद)

भावनाओं के चिन्तवन का कारण, अधिकारी और लाभ

मुनि सकलव्रती बड़भागी, भव-भोगनतैं वैरागी।
वैराग्य उपावन माई, चिंतैं अनुप्रेक्षा भाई।।१।।

अर्थ - संसार, शरीर एवं भोगों से विरक्त होकर जिन्होंने सकलव्रतों को धारण किया है, वे दिगम्बर (निर्गंरथ) मुनिराज बड़े भाग्यवान हैं। संसार, शरीर और भोगों की असारता तथा अनित्य आदि बारह भावनाओं के स्वरूप का बारम्बार चिन्तवन करना ‘अनुप्रेक्षा’ है। जैसे माता संतान को जन्म देती है, उसी प्रकार अनुप्रेक्षा वैराग्य उत्पन्न करती है इसलिए वे मुनिराज वैराग्य को उत्पन्न करने के लिए बारह भावनाओं का चिन्तवन करते हैं।

विशेषार्थ - संसार, शरीर और भोगों आदि का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा कहलाती है। अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म नाम वाली ये अनुप्रेक्षाएँ बारह हैं।

भावनाओं का फल

इन चिन्तत समसुख जागै, जिमि ज्वलन पवन के लागै।
जब ही जिय आतम जानै, तब ही जिय शिवसुख ठानै।।२।।

अर्थ - जिस प्रकार हवा के लगने से अग्नि वेग से धधक उठती है, उसी प्रकार इन बारह भावनाओं का बारम्बार चिन्तवन करने से समतारूपी भाव जाग्रत हो उठता है, अर्थात् यह जीव अपनी आत्मा के वास्तविकरूप को पहिचानने लगता है। फलस्वरूप वह जीव परपदार्थों से नाता तोड़कर समतारस का पान करता है और कालान्तर में अविनाशी मोक्षसुख को प्राप्त करता है। विशेषार्थ-जैसे-वायु के संयोग से अग्नि में वृद्धि होती है, वैसे ही भावनाओं के चिंतन से वैराग्य दृढ़ होता है, जिससे समता में वृद्धि होती है और समता से आत्मिक सुख प्राप्त होता है।

अनित्य भावना का लक्षण

जोवन गृह गो धन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी।
इन्द्रीय-भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई।।३।।

अर्थ - यौवन, घर, गाय-बैल, द्रव्य, स्त्री, घोड़ा, हाथी, आज्ञा के अनुकूल चलने वाले नौकर तथा इन्द्रियों के भोग-ये क्षणिक हैं, स्थाई नहीं हैं। इन्द्रधनुष या बिजली के अस्तित्व सा चंचल इनका अस्तित्व है। कोई भी पदार्थ नित्य या स्थाई नहीं है, ऐसा विचार कर बार-बार चिन्तवन करना ‘अनित्य भावना’ है। विशेषार्थ-स्वस्वामी भाव से ग्रहण किए हुए चेतन, अचेतन एवं मिश्र पदार्थ तथा इन्द्रिय आदि के भोग इन्द्रधनुष एवं बिजली के सदृश क्षणभंगुर हैं, ऐसा चिन्तन करना अध्रुव अर्थात् अनित्य भावना है। जैसे विवेकी मनुष्यों को जूठे भोजन में ममत्व नहीं होता, उसी प्रकार स्त्री, पुत्र, धन, वैभव का वियोग आदि हो जाने पर भी ममत्व नहीं होता, यही इस भावना का फल है।

अशरण-भावना का लक्षण

सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि काल दले ते।
मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई।।४।।

अर्थ - संसार में जो इन्द्र (सुरपति), नागेन्द्र (असुरपति), चक्रवर्ती (खगपति) आदि महिमावान हुए उन सबको भी मृत्यु (काल) उसी प्रकार विनष्ट कर देती है, जैसे हिरण को सिंह मार डालता है। संसार के भौतिक रत्न, मंत्र और तंत्र भी मृत्यु से नहीं बचा सकते। संसार में कोई भी शरण नहीं है और मरने से कोई बचाने वाला नहीं है-ऐसा चिन्तवन करना ही ‘अशरण भावना’ है।

विशेषार्थ - महावन में व्याघ्र से पकड़े हुए हिरण के बच्चे को एवं महासमुद्र में जहाज से छूटे हुए पक्षी को जैसे कोई शरण नहीं है, वैसे ही मरण आदि के समय इन्द्र, चक्रवर्ती, कोटिभट, सहस्रभट, पुत्र एवं स्त्री आदि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भोंहरा, मणि, मंत्र, तंत्र, औषधि, आज्ञा एवं महल आदि अचेतन पदार्थ कोई भी शरण नहीं हैं, ऐसा चिन्तन करना अशरण भावना है।

संसार-भावना का लक्षण

चहुँगति दु:ख जीव भरै हैं, परिवर्तन पञ्च करै हैं।
सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहि लगारा।।५।।

अर्थ - संसार में प्रत्येक प्राणी चारों गतियों के दु:खों को सहता है और पाँचों (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-भव) परिवर्तन करता रहता है, किन्तु कभी शांति नहीं पाता। वास्तव में यह संसार असार है, उसमें लेशमात्र भी सुख नहीं है। सांसारिक सुख तो सुखाभास, नश्वर, भ्रमरूप और परिणाम में कटु हैं, ऐसा विचार करना ‘संसार भावना’ है।

विशेषार्थ - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप यह संसार अनन्त दु:खों एवं कष्टों से भरा हुआ है, सारहीन है तथा कहीं भी चैन और सुख नहीं है, ऐसा विचार करना संसार भावना है।

एकत्व-भावना का लक्षण

शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगै जिय एकहि तेते।
सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी।।६।।

अर्थ - अपने पुण्य कर्मों के अच्छे और पाप कर्मों के निन्दनीय फल को प्रत्येक प्राणी अकेला ही भोगता है अर्थात् यह जीव सदा एकाकी है। उसमें पुत्र-स्त्री आदि कोई भी हिस्सेदार नहीं होते हैं। ये सभी रिश्तेदार स्वार्थ के अभिप्राय से ही नाता रखते हैं एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में मुँह मोड़ लेंगे-ऐसा विचार करना ‘एकत्व भावना’ है।

विशेषार्थ - जो अपना आत्मा है वही सदा अविनाशी, परमहितकारी एवं परमबंधु है, विनश्वर तथा अहितकारी पुत्र, कलत्र और मित्र आदि बंधु नहीं हैं अथवा पुण्य और पाप कर्मों के जितने फल हैं, उनको यह जीव अकेला ही भोगता है, स्त्री-पुत्रादि कोई भाग नहीं बाँट सकता, ऐसा चिन्तन करना एकत्व भावना है। देव-पूजा, गुरु उपासना एवं स्वाध्याय आदि धार्मिक कार्यों की ओर मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति लगाना शुभोपयोग कहलाता है। विषय-कषायों की ओर त्रियोग की प्रवृत्ति लगाना अशुभोपयोग कहलाता है।

अन्यत्व-भावना का लक्षण

जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।
तो प्रगट जुदे धन धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत रामा।।७।।

अर्थ - जिस प्रकार दूध और पानी एकमेक होकर मिल जाते हैं, किन्तु अपने-अपने गुणादिक की अपेक्षा से दोनों अलग-अलग रहते हैं, उसी प्रकार यह जीव और शरीर भी एकमेक होकर मिले हुए हैं, तो भी वे दोनों अपने-अपने स्वरूपादिक की अपेक्षा से अलग-अलग हैं-एक नहीं। जब लेशमात्र भी पृथक् न दिखने वाले जीव तथा शरीर भी जुदे-जुदे हैं, तब स्पष्टरूप से अलग दिखने वाले धन, मकान, पुत्र, स्त्री आदि एक (अपने) कैसे हो सकते हैं ? ऐसा बारम्बार विचार करना ‘अन्यत्व भावना’ है। इस भावना के चिन्तवन से ‘भेदज्ञान’ की सिद्धि होती है। यद्यपि अनादिकाल से शरीर व आत्मा एक साथ रह रहे हैं, किन्तु जो शरीर है वह आत्मा नहीं और जो आत्मा है वह शरीर नहीं। इसी प्रकार संसार की कोई वस्तु मेरी नहीं और मैं भी किसी का नहीं। अन्य वस्तु अन्य रूप है और मैं अन्य रूप हूँ, ऐसी भावना भानी चाहिए।

विशेषार्थ - संसार की कोई भी वस्तु मेरी नहीं है, दूध-पानी सदृश एकमेक होने वाला शरीर भी मेरा नहीं है, ऐसा चिन्तन करना अन्यत्व भावना है। एकत्व भावना में ‘‘मैं एक हूँ’’ इस प्रकार विधिरूप से एकपने का चिन्तन किया जाता है किन्तु अन्यत्व भावना में ‘देहादिक पदार्थ मेरे नहीं हैं, मुझसे भिन्न हैं’ इस प्रकार निषेधरूप से चिन्तन किया जाता है।

अशुचि-भावना का लक्षण

पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादितैं मैली।
नवद्वार बहैं घिनकारी, अस देह करै किम यारी।।८।।

अर्थ - यह देह ऊपर से देखने में कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, विश्लेषण करने पर अत्यन्त घृणित एवं घोर अपवित्र है। यह काया माँस, खून, पीप, मल-मूत्र आदि की थैली है और हड्डी-चरबी आदि से युक्त होने से पूर्ण अपवित्र है। घृणा उत्पन्न करने वाले नवद्वारों से सदैव मल बहता रहता है-ऐसी अपवित्र देह में भला प्रेम कैसे किया जाये ? ऐसा विचार करना ‘अशुचि भावना’ है। इसके चिन्तवन से शरीर एवं भोगों से विरक्ति होती है, वैराग्य दृढ़ होता है।

विशेषार्थ - यह शरीर हड्डी, माँस आदि ग्लानिदायक वस्तुओं का घर है, नवद्वारों का पींजरा है, मल, मूत्र आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान है, केवल इतना ही नहीं अपितु अपने संसर्ग से पवित्र एवं सुगंधित पदार्थों को भी अपवित्र कर देता है, ऐसा चिन्तन करना अशुचि भावना है।

आस्रव भावना का लक्षण

जो योगन की चपलाई, तातैं ह्वै आस्रव भाई।
आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हैं निरवेरे।।९।।

अर्थ - हे भव्यजीवों! मन-वचन-काय की चंचलता से कर्मों का आस्रव होता है, अर्थात् कर्म आत्मप्रदेशों में बंधते हैं। यह कर्मास्रव जीव के लिए बहुत दु:खदायी है इसलिए बुद्धिमान एवं चतुर प्राणियों को यह वास्तविकता समझकर उससे बचना चाहिए अर्थात् उनको दूर करना चाहिए, ऐसा विचार करना ‘आस्रव भावना’ है।

विशेषार्थ - जैसे छिद्र सहित रत्नों से भरा जहाज भी समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही अनन्त गुणों का भण्डार यह आत्मा आस्रवों के कारण संसार-समुद्र में डूब रहा है, ऐसा विचार करना आस्रव भावना है।

संवर-भावना का लक्षण

जिन पुण्य पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना।
तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके।।१०।।

अर्थ - जो विवेकी प्राणी बंध का कारण होने से पुण्य (शुभोपयोग) और पाप (अशुभोपयोग) रूप भावों को नहीं करते हैं, केवल कर्मबंधरोधक, आत्म-मंथन अर्थात् आत्मा के चिन्तवन (शुद्धोपयोग) में मन लगाते हैं-वे आते हुए नवीन कर्मों को रोककर ‘संवर’ को पाकर सुख की उपलब्धि करते हैं। अपने चित्त में ऐसा विचार करना ‘संवर भावना’ है। कर्मों के संवर से दु:ख स्वत: समाप्त हो जाता है।

विशेषार्थ - जैसे वही जहाज छिद्र बंद हो जाने से जल के न घुसने पर निर्विघ्न पार हो जाता है वैसे ही यह जीवरूपी जहाज आस्रवरूपी छिद्रों के बंद हो जाने से सुख को प्राप्त हो जाता है, ऐसा चिन्तन करना संवर भावना है। हिंसा आदि लोकनिंद्य कार्यों को पाप और सच्चे देव द्बारा कथित धार्मिक कार्यों का फल पुण्य कहलाता है।

निर्जरा-भावना का लक्षण

निज काल पाय विधि झरना, तासों निजकाज न सरना।
तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै।।११।।

अर्थ - अपनी-अपनी स्थिति (समय) पूर्ण (पूरा) कर सम्पूर्ण संसारी जीवों के कर्मों का नष्ट (क्षय) होना (झरना) सविपाक या अकाम निर्जरा है। जैसे-आम अपना समय आने पर ही पकता या गिरता है, उसी प्रकार सविपाक निर्जरा में कर्म अपनी स्थिति पूर्ण होने पर ही फल देकर झड़ जाते हैं। इस अकाम निर्जरा से आत्मा (जीव) का कुछ भी कल्याण नहीं होता है। तप के द्वारा कर्मों का नाश किया जाना अविपाक या सकाम निर्जरा है। जैसे-कोई कच्चा आम तोड़कर पाल में दबा कर असमय में ही पका दिया जाता है, उसी प्रकार अविपाक निर्जरा में कर्म स्थिति पूर्ण हुए बिना ही तप आदि के बल से नष्ट कर दिये जाते हैं। यह सकाम निर्जरा ही मोक्ष सुख को प्राप्त को कराती है इसलिए सकाम निर्जरा के कारणों को जानकर कर्मों को स्वयं तप के द्वारा दूर करना चाहिए, ऐसा विचार करना ‘निर्जरा भावना’ है।

लोक-भावना का लक्षण

किनहू न करौ न धरै को, षट् द्रव्यमयी न हरै को।
सो लोकमांहि बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता।।१२।।

अर्थ - इस लोक को किसी ने नहीं बनाया है और न कोई इसे धारण किए हुए है। यह लोक छ: द्रव्यों (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल) से भरा हुआ है और कोई इसका कभी नाश नहीं कर सकता है। इस स्वयंसिद्ध लोक में यह जीव समतापरिणति के अभाव में भ्रमण करता है और दु:ख सहता है। ऐसा विचार करना, दसवीं ‘लोक भावना’ है।

बोधि दुर्लभ-भावना का लक्षण

अन्तिम ग्रीवकलौं की हद, पायों अनन्त बिरियाँ पद।
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ।।१३।।

अर्थ - मिथ्यादृष्टि अभव्य जीव (प्राणी) ने मंद कषाय के फलस्वरूप असंख्य बार नौवें ग्रैवेयक (स्वर्ग का विमान) में उत्पन्न होकर अहमिन्द्र पद प्राप्त किया, परन्तु इसे एक बार भी सम्यक्ज्ञान का उदय नहीं हुआ क्योंकि उसका पाना कोई सरल काम नहीं है। ऐसे बड़ी कठिनता से उपलब्ध होने वाले सम्यक्ज्ञान की साधना आत्मचिन्तवन करने वाले भावलिंगी मुनि ही कर सकते हैं, ऐसा विचार करना ‘बोधिदुर्लभ भावना’ है।

विशेषार्थ - एकेन्द्रिय, विकलत्रय, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त, नरपर्याय, उत्तम कुल, उत्तम देश, सांगोपांगता, सुन्दर रूप, इन्द्रियों की पूर्णता, कार्य कुशलता, निरोगता, दीर्घायु, श्रेष्ठ बुद्धि, समीचीन धर्म का सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, श्रद्धान करना, संयम, विषय सुखों से पराङ्मुखता एवं क्रोधादि कषायों से निवृत्ति ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। काकतालीय न्याय से ये कदाचित् मिल भी जाएँ, तो भी बोधि और समाधि की प्राप्ति तो अति दुर्लभ है, ऐसा सदैव चिंतन करना चाहिए। पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होना बोधि है तथा इस बोधि को निर्विघ्नतापूर्वक अन्य भव में ले जाना समाधि है। दिगम्बर मुनिराज ही इसे अपने हृदय में धारण करके मोक्ष पद प्राप्त करते हैं। बिना सम्यग्ज्ञान के तो इस जीव ने अनन्तों बार मुनिव्रत धारण कर नवम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया किन्तु मोक्ष प्राप्त नहीं कर सका, इसलिए इसे अतिदुर्लभ कहा है।

धर्म-भावना का लक्षण

जे भाव मोहतैं न्यारे, दृग ज्ञान व्रतादिक सारे।
सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै।।१४।।

अर्थ - सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, तप आदि जितने भी भाव हैं, वे सब मोह-भाव से भिन्न हैं (क्योंकि ये भाव धर्मरूप हैं)। इस धर्म को जब यह जीव धारण करता है, तब ही वह शाश्वत सुख अर्थात् मोक्ष (सब कर्मों से रहित अवस्था) को प्राप्त करता है, ऐसा चिन्तवन करना ‘धर्म प्रभावना’ है।

विशेषार्थ - वस्तु का स्वभाव धर्म, अहिंसा धर्म, उत्तम क्षमादि दस- लक्षण धर्म, निश्चय एवं व्यवहार धर्म तथा शुद्ध आत्मानुभव रूप, मोह-क्षोभ रहित आत्मपरिणाम वाला धर्म, ये धर्म के भिन्न-भिन्न लक्षण हैं। धर्म में कर्तव्य-पालन की प्रधानता रहती है किन्तु धर्म भावना में धर्म के लक्षणों का बार-बार चिन्तन किया जाता है।

मुनिधर्म को सुनने की प्रेरणा

सो धर्म मुनिन-करि धरिये, तिनकी करतूत उचरिये।
(तिनकी गुणकीर्ति उचरिये)
ताकों सुनिये भवि प्राणी, अपनी अनुभूति पिछानी।।१५।।

अर्थ - ऐसे रत्नत्रयस्वरूप हितकारी धर्म को भावलिंगी निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैसे मुनि ही धारण करते हैं और कोई अन्य नहीं, क्योंकि रत्नत्रय का पूर्ण पालन केवलमात्र वे ही करने में समर्थ हैं इसलिए अगली अध्याय में उन मुनियों की क्रियाओं (कत्र्तव्यों) अर्थात् सकलचारित्र का वर्णन किया जाता है। हे भव्यजीवों! उन मुनि के कत्र्तव्यों को सुनो और अपनी आत्मा के अनुभव को पहचानो अर्थात् समझो। यहां ‘करतूत’ शब्द लोकविरुद्ध है प्राय: गलत क्रियाओं को ‘करतूत’ कहते हैं अत: ‘गुणकीर्ति’ पद अच्छी चर्या और क्रिया का बोध कराने वाला है।

प्रश्नोत्तरी

प्रश्न १ - अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ?

उत्तर - संसार, शरीर और भोगों के स्वभाव का पुन: पुन: चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।

प्रश्न २ - अनुप्रेक्षा कितनी होती हैं ? उनके नाम बताइए ?

उत्तर - अनुप्रेक्षाएँ बारह होती हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-१. अनित्य २. अशरण ३. संसार ४. एकत्व ५. अन्यत्व ६. अशुचि ७. आस्रव ८. संवर ९. निर्जरा १०. लोक ११. बोधिदुर्लभ और १२. धर्म।

प्रश्न ३ - इन बारह भावनाओं का चिन्तवन करने से क्या फल मिलता है ?

उत्तर - जैसे हवा के लगने से अग्नि धधक उठती है, उसी प्रकार इन बारह भावनाओं के चिन्तवन से समतारूपी सुख जागृत हो जाता है। इन भावनाओं के द्वारा जब जीव आत्मा को पहचानता है, तब ही जीव मोक्षरूपी सुख को प्राप्त करता है।

प्रश्न ४ - अनित्य भावना का क्या स्वरूप है ?

उत्तर - जवानी, घर, गाय, धन, स्त्री, घोड़ा, हाथी, कुटुम्बी, नौकर और इन्द्रिय- भोग आदि सब क्षणभंगुर-विनाशीक हैं, ऐसा बार-बार चिंतवन करना अनित्य अनुप्रेक्षा है।

प्रश्न ५ - अशरण भावना का लक्षण बताइए ? ?

उत्तर - जैसे हिरण को सिंह नष्ट कर देता है, वैसे ही इन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र और खगेन्द्र (विद्याधर) आदि को भी मृत्यु नष्ट कर देती है अर्थात् संसार में कोई शरण नहीं है, ऐसा बार-बार चिंतवन करना अशरण अनुप्रेक्षा है।

प्रश्न ६ - संसार अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ?

उत्तर - जीव चारों गतियों के दु:ख भोगता हुआ पंच परावर्तन करता है और यह संसार सब प्रकार से असार है इसमें थोड़ा सा भी सुख नहीं है, ऐसा चिन्तवन करना संसार अनुप्रेक्षा है।

प्रश्न ७ - एकत्व भावना का क्या अभिप्राय है ?

उत्तर - अपने शुभ कर्मों के अच्छे और अशुभ कर्मों के खराब फल को जीव अकेला ही भोगता है, पुत्र और स्त्री आदि कोई भी हिस्सेदार नहीं होते, वे सब मतलब के साथी हैं, ऐसा चिंतवन करना एकत्व अनुप्रेक्षा है।

प्रश्न ८ - अन्यत्व अनुप्रेक्षा से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर - मैं शरीर से भिन्न हूँ, फिर स्त्री, पुत्र, धन आदि बाह्य परिग्रह मेरे कैसे हो सकते हैं अर्थात् आत्मा से सभी पदार्थ पृथक् हैं, ऐसा चिन्तवन करना अन्यत्व अनुप्रेक्षा है।

प्रश्न ९ - अशुचि भावना का क्या अभिप्राय है ?

उत्तर - यह शरीर मांस-खून-पीप और मल-मूत्रादि का घर है, इस तरह शरीर की अपवित्रता का चिन्तवन करते हुए आत्मा की पवित्रता को प्राप्त करने का चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है।

प्रश्न १० - आस्रव भावना किसे कहते हैं ?

उत्तर - कर्मों का आना आस्रव है और वह आस्रव बहुत दु:ख देने वाला है, ऐसा जानकर उससे बचने का चिन्तवन करना आस्रव अनुप्रेक्षा है। प्रश्न ११ - संवर अनुप्रेक्षा का स्वरूप बताइए ?

उत्तर - जो शुभ और अशुभ भाव नहीं करते तथा आत्मा के चिन्तन में चित्त लगाते हैं, वे कर्मों के आस्रव को रोकते हैं और संवर को पाकर सुख पाते हैं, ऐसा चिन्तवन करना संवर अनुप्रेक्षा है।

प्रश्न १२ - निर्जरा भावना किसे कहते हैं ?

उत्तर - संवरपूर्वक तप के बल से संचित कर्मों का झड़ जाना निर्जरा है, ऐसा चिन्तवन करना निर्जरा अनुप्रेक्षा है।

प्रश्न १३ - लोक अनुप्रेक्षा का लक्षण बताइए ?

उत्तर - छह द्रव्यों से भरे हुए लोक को न किसी ने बनाया है, न कोई इसे धारण किए है और न कोई इसे नष्ट कर सकता है, ऐसे संसार में समता के बिना यह जीव भटकता हुआ दु:ख भोगता रहता है, ऐसा चिन्तवन करना लोक अनुप्रेक्षा है।

प्रश्न १४ - बोधि दुर्लभ भावना से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर - संसार में अति दुर्लभ सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति का बार-बार चिन्तवन करना बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा है।

१५ - धर्म भावना का स्वरूप प्रतिपादित कीजिए ?

उत्तर - मिथ्यात्व से भिन्न सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदि जो भाव हैं, वे धर्म कहलाते हैं। जब यह जीव इस धर्म को धारण करता है तभी मोक्ष सुख को पाता है, ऐसा विचार करना धर्म अनुप्रेक्षा है।

प्रश्न १६ - मुनिधर्म को सुनने की प्रेरणा देते हुए कविवर क्या कहते हैं ?

उत्तर - मुनियों के धर्म को, उनके कर्तव्यों को सुनकर भव्यजीवों को मुनिव्रत धारण करके आत्मानुभूति करना चाहिए।