तृतीय ढाल ( प्रश्नोत्तर सहित )
(नरेन्द्र छंद) जोगीरासा
आतम को हित है सुख सो सुख, आकुलता बिन कहिए। आकुलता शिवमांहि न तातैं, शिवमग लाग्यो चहिए।। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण, शिवमग सो दुविध विचारो। जो सत्यारथ-रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो।।१।।
अर्थ - आत्मा का कल्याण या भलाई सुख में है और वह सुख निराकुल या दु:ख रहित होना चाहिए (जिसके पीछे कभी भी चिंता या क्लेश न हो) आकुलता, चिन्ता या दु:ख मोक्ष में नहीं है, अत: मोक्षमार्ग में हमें लगना चाहिए। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (इनकी एकता) ही मोक्षमार्ग है। इस मोक्षमार्ग के दो भेद हैं-निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग, जो सत्यार्थरूप या वास्तविक मार्ग है, वह ‘निश्चय मोक्षमार्ग’ है और जो ‘निश्चय मोक्षमार्ग’ का कारण है, वह ‘व्यवहार मोक्षमार्ग’ है।
विशेषार्थ - मोक्ष जाने के दो मार्ग हैं-व्यवहार मोक्षमार्ग और निश्चय मोक्षमार्ग। जो सत्यार्थरूप है, अर्थात् जिसके सम्पन्न होने पर उत्तर काल में मोक्ष प्राप्त हो ही जाता है, वह निश्चय मोक्षमार्ग है और जो निश्चय का कारण अर्थात् साधन है वह व्यवहार मोक्षमार्ग है। अर्थात् निश्चय मोक्षमार्ग मोक्ष का साक्षात् कारण है और व्यवहार मोक्षमार्ग परम्परागत कारण है।
परद्रव्यनतैं भिन्न आप में, रुचि सम्यक्त्व भला है। आप रूप को जानपनो सो, सम्यक्ज्ञान कला है।। आप रूप में लीन रहे थिर, सम्यक्चारित सोई। अब व्यवहार मोक्ष-मग सुनिये, हेतु नियत को होई।।२।।
अर्थ - पर अर्थात् दूसरे पदार्थों को अपनी आत्मा से भिन्न जान कर अपनी आत्मा में प्रीति या श्रद्धान करना ‘निश्चय सम्यग्दर्शन’ है। अपने आत्म-स्वरूप का ज्ञान करना ही ‘निश्चय सम्यक्ज्ञान’ है। अपनी आत्मा के स्वरूप में स्थिरता से लीन रहना ही ‘निश्चय सम्यक्चारित्र’ है। अब व्यवहार मोक्षमार्ग का वर्णन करते हैं-उसे सुनिये, क्योंकि वह ‘निश्चय मोक्षमार्ग’ का निमित्त कारण है।
जीव अजीव तत्त्व अरु आस्रव, बन्धरु संवर जानो। निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यों का त्यों सरधानो।। है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो। तिनको सुन सामान्य विशेषैं, दिढ़ प्रतीति उर आनो।।३।।
अर्थ - जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-इन सात तत्त्वों का स्वरूप जैसा श्री जिनेन्द्रदेव ने वर्णन किया है, वैसा ही मानना या अटल श्रद्धान करना, सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है। सातों तत्त्वों का सामान्य और विशेष वर्णन आगे करते हैं, उसे समझो और दृढ़ता से हृदय में धारण कर लो।
विशेषार्थ - जिनेन्द्र भगवान ने जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्त्व कहे हैं। उसका जैसा का तैसा श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। इन तत्त्वों के स्वरूप का सामान्य और विशेषरूप से वर्णन किया जाता है, उसे सुनकर मन में अटल विश्वास करना चाहिए। सात तत्त्वों की यथावत् श्रद्धा करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। हिंसारहित धर्म, क्षुधादि १८ दोष रहित देव और निर्गंरथ गुरु पर श्रद्धा करना भी व्यवहार सम्यक्त्व है।
बहिरातम अन्तर आतम, परमातम जीव त्रिधा है। देह जीव को एक गिनै, बहिरातम तत्त्व मुधा है।। उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के, अन्तर आतम ज्ञानी। द्विविध संग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निज ध्यानी।।४।।
अर्थ - जीव तीन प्रकार के होते हैं-१. बहिरात्मा २. अन्तरात्मा ३. परमात्मा। जो शरीर और आत्मा को एक गिनते हैं, वे तत्त्वों को न जानने वाले अविवेकी मूढ़ ‘बहिरात्मा’ या मिथ्यादृष्टि जीव हैं। जो भेदविज्ञान से आत्मा और शरीरादि पर- पदार्थ को भिन्न जानते हैं, वे ‘अन्तरात्मा’ (सम्यग्दृष्टि) जीव हैं। वे अन्तरात्मा भी तीन प्रकार के होते हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य। जो २४ प्रकार के परिग्रह-रहित शुद्ध-परिणामी आत्मध्यानी मुनि हैं, वे उत्तम अन्तरात्मा हैं।
विशेषार्थ - पुद्गल परमाणुओं के पिण्ड से निर्मित शरीर को जो चैतन्य- स्वरूप आत्मा द्रव्य मानते हैं, वे बहिरात्मा हैं। जड़ एवं नाशवान शरीर से चैतन्यस्वरूप अपने आत्मद्रव्य को भिन्न मानने वाली आत्मा को अन्तरात्मा कहते हैं। अन्तरंग और बहिरंग दो प्रकार के परिग्रह से रहित शुद्ध उपयोग वाले एवं अपनी आत्मा का ध्यान करने वाले मुनि उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं। शुभ-अशुभ रागद्वेष की परिणति से रहित ज्ञान-दर्शन की अवस्था विशेष का नाम शुद्धोपयोग है।
मध्यम अन्तर आतम हैं जे, देशव्रती अनगारी। जघन कहे अविरत समदृष्टि, तीनों शिवमगचारी।। सकल निकल परमातम द्वैविध, तिनमें घाति निवारी। श्री अरिहन्त सकल परमातम, लोकालोक निहारी।।५।।
अर्थ - देशव्रत को धारण करने वाले पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक, ऐलक, उपचार से महाव्रतों को धारण करने वाली आर्यिकाएँ तथा शुभोपयोग में स्थित छट्ठे गुणस्थान वाले महाव्रती मुनिराज को मध्यम अन्तरात्मा कहते हैं। जो इन्द्रिय के विषयों से विरक्त नहीं हैं तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से भी विरक्त नहीं हैं पर जिनकी जिनेन्द्रदेव में यथार्थ श्रद्धा है, ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों को जघन्य अन्तरात्मा कहते हैं। उत्तम, मध्यम और जघन्य, ये तीनों प्रकार के अन्तरात्मा मोक्षमार्ग पर चलने वाले हैं। परमात्मा दो प्रकार के हैं-एक सकल परमात्मा और दूसरे निकल परमात्मा। श्री अरहंत भगवान शरीर सहित होने से सकल परमात्मा हैं, उन्होंने चारों घातिया कर्मों का विनाश किया है और वे लोक तथा अलोक के दृष्टा अर्थात् केवलज्ञानी होते हैं।
विशेषार्थ - श्रावक के व्रतों का धारी सम्यग्दृष्टि पंचम गुणस्थानवर्ती जीव को देशव्रती और परिग्रह से रहित छठे गुणस्थानवर्ती जीव को अनगारी कहते हैं। चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि का शरीर के प्रति अहंभाव तो नष्ट हो जाता है किन्तु ममत्व बना रहता है यही उसके जघन्यता में कारण है। जो आत्माएँ कर्ममल से रहित तथा परमपद में स्थित हैं, उन्हें परमात्मा कहते हैं।
ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्म-मल, वर्जित सिद्ध महन्ता। ते हैं निकल अमल परमातम, भोगैं शर्म अनन्ता।। बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हूजै। परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजै।।६।।
अर्थ - औदारिक आदि शरीर रहित शुद्ध ज्ञान ही जिनका शरीर है, जो तीनों प्रकार के कर्म-मल (द्रव्य कर्म, भाव कर्म और नो कर्म) से रहित हैं, ऐसे महान् हैं सिद्ध भगवान। वे शुद्ध निकल (अशरीरी) परमात्मा हैं, ज्ञान के कारण ही वे अनन्त काल तक अनन्त सुख भोगते हैं अत: अपनी आत्मा के चरम (पूर्ण) विकास के लिए बहिरात्मपना (मिथ्यादृष्टि) त्यागने योग्य समझकर उसे त्यागो और अन्तरात्मा बनकर सदा दोनों प्रकार के परमात्माओं का ध्यान लगाओ, जिससे सच्चे आनन्द (चिर शान्ति अर्थात् मोक्ष) की प्राप्ति हो।
विशेषार्थ - द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ये तीन प्रकार के कर्म हैं। ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों को द्रव्यकर्म, राग-द्वेष, मोहरूप खोटे परिणामों को भावकर्म और औदारिक आदि तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण नोकर्म कहलाता है। जैसे ज्ञान जीव की निजी वस्तु है वैसे ही सच्चा सुख भी जीव का स्वभावसिद्ध वैभव है। शरीर में एकत्वबुद्धि का त्याग, भेदविज्ञान की प्रगटता एवं तत्त्व में तल्लीनता ही इस सुख की प्राप्ति का उपाय है।
चेतनता बिन सो अजीव है, पञ्च भेद ताके हैं। पुद्गल, पञ्च वरन, रस, गंध दु, फरस वसू जाके हैं।। जिय-पुद्गल को चलन सहाई, धर्म-द्रव्य अनरूपी। तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन विन मूर्ति निरूपी।।७।।
अर्थ - अजीव वह है, जिसमें चेतना या आत्मा नहीं है। इसके पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। जिसमें रूप (वर्ण), रस, गंध, और स्पर्श हो, उसे पुद्गल-द्रव्य कहते हैं। वर्ण पाँच (काला, श्वेत, लाल, नीला, पीला) हैं, रस पाँच (खट्टा, मीठा, चरपरा, कडुवा, कषायला) हैं, गंध दो (सुगंध, दुर्गन्ध) और स्पर्श आठ (गर्म, ठण्डा, हल्का, भारी, कोमल, कठोर, रूखा, चिकना) होते हैं। धर्म-द्रव्य अमूर्तिक है, वह स्वयं चलते हुए जीव और पुद्गल को चलने में सहायक होता है। अधर्मद्रव्य को श्री जिनेन्द्र भगवान ने अमूर्तिक कहा है और वह जीव तथा पुद्गल को ठहरने में सहायक होता है।
विशेषार्थ - लोकान्त के आगे धर्म द्रव्यरूपी पटरी नहीं है अत: सिद्ध जीव आगे नहीं जा सके। धर्म और अधर्म द्रव्य स्वयं चलते एवं स्वयं ठहरते हुए जीव, पुद्गल को चलने एवं ठहरने में सहयोगी होते हैं।
सकल-द्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानो। नियत वर्तना निशिदिन सो, व्यवहार काल परिमानो।। यों अजीव, अब आस्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा। मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा।।८।।
अर्थ - अजीव का चौथा भेद आकाश द्रव्य है, जिसमें छहों द्रव्यों का निवास है। यह दो प्रकार का है-१. लोकाकाश-जितने स्थान में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये छहों द्रव्य रहते हैं। २. अलोकाकाश-जिस स्थान में केवल आकाश ही आकाश है, अन्य कोई द्रव्य नहीं। अजीव का पाँचवाँ भेद काल द्रव्य अर्थात् समय है। सभी द्रव्यों के परिणमन (परिवर्तन) में जो सहायक होता है, उसे काल द्रव्य कहते हैं। यह भी दो प्रकार का है- १. निश्चयकाल-जो स्वयं परिवर्तनशील है तथा अन्य सब द्रव्यों के परिवर्तन में कुम्हार के चाक के समान सहायक (अंतरंग कारण) है। २. व्यवहारकाल-रात्रि-दिवस, घड़ी, घण्टा, प्रहर, मिनट आदि। अब आस्रव-तत्त्व का वर्णन करते हैं, जो कर्मों के आगमन में सहायक है। मन-वचन-काय की चंचलता तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय के कारण आत्मा में जो हलचल (प्रवृत्ति) होती है, उससे कर्मों का योग (आगमन) होता है, इसे आस्रव-तत्त्व कहते हैं। कर्मों का आस्रव उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार नाव में छिद्र हो जाने पर पानी भरने लगता है। इसके ५७ भेद हैं-५ मिथ्यात्व (विपरीत, एकांत, विनय, संशय, अज्ञान),१२ अविरति (पापों में प्रवृत्ति), २५ कषाय (जो आत्मा को दु:ख दे या पराधीन करे), १५ प्रमाद (अच्छे कार्यों में उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति न करना)।
विशेषार्थ - जिस प्रकार किसी बर्तन में पानी भरकर उसमें भस्म (राख) डाली जाए, तो वह समा जाती है, फिर उसमें शर्वरा डाली जाए, तो वह भी समा जाती है, फिर उसमें सुइयाँ डाली जाएँ, तो वे भी समा जाती हैं, उसी प्रकार आकाश में भी अवगाहन शक्ति है, इसलिए उसमें सर्वद्रव्य एक साथ रह सकते हैं। अपनी-अपनी पर्यायरूप से स्वयं परिणमित होते हुए जीवादिक द्रव्यों के परिणमन में जो निमित्त हो, उसे कालद्रव्य कहते हैं। कालद्रव्य असंख्यात है अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं अत: कालद्रव्य भी असंख्यात है। इस प्रकार अजीव तत्त्व का वर्णन हुआ, अब आस्रव तत्त्व का वर्णन किया जाता है। मन, वचन, काय, मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद और कषाय सहित जो आत्मा की प्रवृत्ति है, उसे आस्रव कहते हैं। जो आत्मा को कषता है अर्थात् दु:ख देता है, पराधीन करता है अथवा उसके चारित्र आदि गुणों को घातता है, उसे कषाय कहते हैं। पापरूप प्रवृत्ति को अविरति और असावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना या धार्मिक कार्यों में अनुत्साह रखना प्रमाद है।
ये ही आतम के दु:खकारण, तातैं इनको तजिये। जीव प्रदेश बँधे विधिसों सो, बन्धन कबहूँ न सजिये।। शम-दमतैं जो कर्म न आवैं, सो संवर आदरिये। तप-बलतैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये।।९।।
अर्थ - ये आस्रव भाव (त्रियोग, मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय, प्रमाद) आत्मा के लिए दु:ख के कारण हैं, इसलिए इनको त्यागना चाहिए। इन्हीं भावों के निमित्त से आये शुभ-अशुभ पुद्गल कर्मो का आत्मा के साथ दूध और जल के समान मिलकर एकमेक हो जाना ‘बन्ध-तत्त्व’ है। कषायों के शमन (समता भाव रखने) और दमन (इन्द्रिय व मन को वश में करने) से कर्मों का आना रुक जाता है, इसी को संवर-तत्त्व कहते हैं। ऐसे संवर तत्त्व का आदर करना चाहिए। जैसे नाव का छेद बंद कर देने से पानी का भरना रुक जाता है। तप के प्रभाव से आठों कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय) का झड़ना (क्षय) या एकदेश दूर होना निर्जरा तत्त्व है। इस निर्जरा-तत्त्व का सदा आचरण करना चाहिए।
विशेषार्थ - कषायों के उपशम अर्थात् न होने देने को शम और इन्द्रियों एवं मन की स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोकना दम कहलाता है।
सकल-कर्मतैं रहित अवस्था, सो शिवथिर सुखकारी। इहविधि जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी।। देव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो। येहु मान समकित को कारण, अष्ट-अंग-जुत धारो।।१०।।
अर्थ - सब कर्मों से रहित अवस्था को ही मोक्ष कहते हैं, जो स्थाई सुख देने वाली है। इस प्रकार मोक्ष-तत्त्व का लक्षण हुआ। इस प्रकार सात तत्त्वों (जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष) पर श्रद्धा करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। श्री जिनेन्द्र भगवान, सब परिग्रहों से रहित दिगम्बर जैन गुरु (मुनिराज), दयामय धर्म-इन तीनों का यथार्थ श्रद्धान ही सम्यक्त्व का कारण समझो। इस सम्यक्त्व को उसके आठ अंगों सहित धारण करो।
विशेषार्थ - किसी स्थान विशेष का नाम मोक्ष नहीं है, अपितु बन्धन- मुक्ति का नाम मोक्ष है अर्थात् कर्मबंध से रहित जीव की अवस्था विशेष मोक्ष है। ‘‘इह विधि’’ अर्थात् जिस प्रकार भगवान जिनेन्द्र ने सात तत्त्वों का प्रतिपादन किया है, उसी प्रकार श्रद्धा करना चाहिए।
वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो। शज्रदिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो।। अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, तिन संक्षेपहु कहिये। बिन जानेतैं दोष-गुनन को, कैसे तजिये गहिये।।११।।
अर्थ - आठों मदों को छोड़ो, तीन मूढ़ताओं (खोटे देव, खोटे शास्त्र, खोटे गुरु) को मन से हटाओ, छ: अनायतनों का त्याग करो। शंका आदि आठ दोषों को दूर कर ‘प्रशम, संवेग, अनुकम्पा एवं आस्तिक्य’-सम्यक्त्व की इन ४ भावनाओं को चित्त में धारण करो। अब सम्यग्दर्शन के आठ अंग और पच्चीस दोषों का स्वरूप संक्षेप में कहते हैं, क्योंकि दोष और गुण जाने बिना जीव कैसे दोषों को त्यागे और गुणों को ग्रहण करे ?
विशेषार्थ - सांसारिक कार्यों में उत्साह न होना प्रशम, धर्मकार्यों में तत्परता और संसार से भीरुता होना संवेग, सभी प्राणी सुखी रहें, दुखी कोई न हो, ऐसी भावना होना अनुकम्पा एवं अपनी आत्मा को तथा स्वर्ग-नरक आदि के अस्तित्व को स्वीकार करना आस्तिक्य है, ये चारों ही सम्यक्त्व की भावनाएँ हैं।
जिन वच में शंका न धार वृष, भव-सुख-वांछा भानै। मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व कुतत्त्व पिछानै।। निजगुण अरु पर औगुण ढाँकैं , वा जिन-धर्म बढ़ावै। कामादिक कर वृषतैं, चिगते, निज पर को सु दिढ़ावै।।१२।।
अर्थ - १. श्री जिनेन्द्र भगवान के कहे गये वचनों में शंका नहीं करना एवं उनके उपदेशों में अटल श्रद्धा रखना, यह नि:शंकित अंग है। २. धर्म सेवन करके उसके बदले संसार के सुखों की इच्छा न करना, नि:कांक्षित अंग है। ३. मुनिराज (या अन्य किसी धर्मात्मा) के शरीर को मैला देखकर घृणा न करना, सो निर्विचिकित्सा अंग है। ४. तत्त्व-खरे (सच्चे) और कुतत्त्व-खोटे तत्त्वों (सिद्धान्तों) की परख कर मूढ़ताओं और अनायतनों में नहीं फसना, सो अमूढ़दृष्टि अंग है। ५. अपने गुणों को छिपाना और दूसरों के अवगुणों को प्रगट न करना तथा आत्मधर्म को बढ़ाना (निर्मल रखना-दूषित नहीं होने देना), सो उपगूहन अंग है। ६. काम-क्रोध, मान, माया, लोभ आदि किसी विकारवश से यदि धर्म से कोई चलायमान हो गया हो, तो उस समय जिस तरह बने, अपने को और उसको धर्म में दृढ़ करना, सो स्थितिकरण अंग है। ७. जैसे-गाय अपने बछ़ड़े से नि:स्वार्थ प्रीति करती है, वैसे ही साधर्र्मी-बंधुओं से प्रीति करना, सो वात्सल्य अंग है। इससे द्वेष-कलुषता आदि अपने-आप समाप्त हो जाते हैं। ८. अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने के लिए मंदिर आदि का निर्माण, जैन साहित्य का प्रसार आदि जैसे बने जैनधर्म की उन्नति या प्रचार अथवा प्रभावना करना प्रभावना अंग है। इस प्रकार सम्यक्त्व के ये ८ अंग या गुण हैं। इन गुणों से विपरीत ८ आचरण दोष हैं, जिनसे सदा बचना चाहिए। वे ८ दोष हैं-शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना।
विशेषार्थ - जैसे अक्षर, मात्रा एवं अनुस्वार आदि से हीन मंत्र कार्य- सिद्धि में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार अंगहीन सम्यक्त्व जन्म सन्तति के छेद में समर्थ नहीं होता अत: आठों अंगों का पालन अनिवार्य है।
धर्मीसों गौ-बच्छ-प्रीतिसम, कर जिन-धर्म दिपावै। इन गुणतैं विपरीत दोष वसु, तिनकों सतत खिपावै।। पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठानै। मद न रूप को, मद न ज्ञान को, धन बल को मद भानै।।१३।।
अर्थ - सम्यग्दृष्टि जीव पिता आदि पितृपक्ष (कुल) के, मामा आदि मातृपक्ष (जाति) के, राजा आदि (शासक) होने का घमण्ड नहीं करता है। वह अपने रूप का, ज्ञान का, धन-सम्पत्ति का, अपनी शक्ति का, तपस्या का, अपने उच्च पद का भी घमण्ड नहीं करता है। जो इन पर-वस्तुओं पर घमण्ड नहीं करता है, वही अपने ‘निज-स्वरूप’ या आत्मा को समझता है। यदि जीव इन पर घमण्ड करे, तो ये आठ दोष सम्यक्त्व को मलिन (दूषित) कर देते हैं।
तप को मद न मद जु प्रभुता को, करै न सो निज जानै। मद धारै तो यही दोष वसु, समकित को मल ठानै।। कुगुरु-कुदेव-कुवृष-सेवक की, नहिं प्रशंस उचरै है। जिनमुनि जिनश्रुत बिन कुगुरादिक, तिन्हें न नमन करै है।।१४।।
अर्थ - खोटे-गुरु, खोटे-देव, खोटा-धर्म और इन तीनों के सेवक अर्थात् खोटे-गुरु के भक्त, खोटे-देव के भक्त और खोटे-धर्म के भक्त-ये छ: अनायतन हैं अत: सम्यग्दृष्टि जीव इन छहों की भक्ति-विनय तो दूर, कभी प्रशंसा तक नहीं करता है। यदि प्रशंसा भी करे, तो उसे सम्यक्त्व में दोष लगता है। सिवाय जिनेन्द्र भगवान, सच्चे मुनि और जिनेन्द्र कथित शास्त्रों के अतिरिक्त किसी कुदेव, कुगुरु या कुशास्त्र को सम्यग्दृष्टि नमस्कार नहीं करता है। यदि करता है, तो उसके सम्यक्त्व में मूढ़ता नामक दोष लगता है।
विशेषार्थ - जो मद में आकर धर्मात्माओं का अनादर करता है, वह जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए रत्नत्रय धर्म का अनादर करता है क्योंकि धर्म, रत्नत्रय- धारियों के बिना प्राप्त नहीं होता इसलिए मद करने से सम्यक्त्व मलिन हो जाता है। सम्यक्त्व के नाशक कुदेवादिक की प्रशंसा करना अनायतन कहलाता है। धर्म और सम्यक्त्व में दोषजनक अविवेकीपन के कार्य को मूढ़ता कहते हैं। धर्म समझकर बालू और पत्थरों का ढेर लगाना, गंगा आदि नदीरूप तीर्थों में स्नान, समुद्र में स्नान, जल में प्रवेश करके मरना, अग्नि में जल कर मरना, गाय की पूँछ आदि को ग्रहण करके मरना, पृथिवी, अग्नि और बड़ वृक्ष आदि की पूजा करना लोकमूढ़ता कहलाती है। लौकिक-पारमार्थिक हेय-उपादेय एवं स्वपर ज्ञान रहित अज्ञानीजनों के कुल परिपाटी से आया हुआ और अन्य भी जो धर्माचरण है, उसको भी लोकमूढ़ता जानना चाहिए। वर की इच्छा से रागी-द्वेषी देवों की सेवा करना अथवा ख्याति-पूजा-लाभ-रूप-लावण्य-सौभाग्य-पुत्र-स्त्री-राज्य आदि संपदा की प्राप्ति के लिए मिथ्यादृष्टि देवों की आराधना करना देवमूढ़ता कहलाती है। अज्ञानी लोगों को चित्त चमत्कार (आश्चर्य) उत्पन्न करने वाले ज्योतिष मंत्रवाद आदि को देखकर मिथ्यादेव-मिथ्याआगम एवं मिथ्या तप करने वाले कुलिंगियों को भय-वांछा-स्नेह और लोभ से धर्म के लिए प्रणाम, पूजा, विनय एवं सत्कार आदि करना पाखण्डीमूढ़ता है।
दोषरहित गुणसहित सुधी जे, सम्यक्दरश सजे हैं। चरितमोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजे हैं।। गेही पै गृह में न रचै ज्यों, जलतैं भिन्न कमल है। नगरनारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल है।।१५।।
अर्थ - २५ दोषों से रहित और ८ गुणों से सहित ऐसे सम्यग्दर्शन से जो बुद्धिमान शोभायमान है, वह यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण चारित्र मोहनीयकर्म के उदय से विंचित् भी व्रतादि नहीं धारण कर सका है, तो भी उसे इन्द्र तक पूजते हैं। यद्यपि वह गृहस्थ है, फिर भी गृह-कुटुम्बादि में आसक्त नहीं है। जैसे-कमल जल में रहते हुए भी उससे भिन्न है, वैसे ही वेश्या के प्यार जैसा केवल दिखाऊ प्रेम उसका गृह-कुटुम्बादि पर है। अथवा जैसे कीचड़ में पड़ा सोना यद्यपि ऊपर से कीचड़ में सना हुआ दिखाई देता है, किन्तु वास्तव में वह निर्मल है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि की अवास्तविक आसक्ति गृहकुटुम्बादि पर पदार्थों पर रहती है, परन्तु वास्तव में उसका अन्तर निज आत्म निधि की ओर दृष्टि लगाए रहता है।
विशेषार्थ - अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य यदि पुरुषार्थ करे, तो शीघ्र ही संयम धारण कर अपने सम्यक्त्व को पूर्णतया निर्दोष और पूर्ण बना सकता है किन्तु इन्द्रों में संयम धारण की योग्यता नहीं है।
प्रथम नरक बिन षट् भू ज्योतिष, वान भवन षंढ नारी। थावर विकलत्रय पशु में नहिं, उपजत सम्यक् धारी।। तीनलोक तिहुँ काल माहिं नहिं, दर्शन सो सुखकारी। सकल धरम को मूल यही, इस बिन करनी दु:खकारी।।१६।।
अर्थ - सम्यक्त्वी जीव पहले नरक के सिवाय शेष छ: नरकों में, ज्योतिषी-व्यन्तर-भवनवासी देवों में, नपुंसकों में, स्त्रियों में, स्थावरों में, दो इन्द्रिय-त्रि इन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीवों में तथा पशु-पर्याय में जन्म धारण नहीं करता है। तीनों लोकों और तीनों कालों में सम्यग्दर्शन के समान अन्य कोई भी सुख देने वाला नहीं है। सब धर्मों की जड़ यही है। बिना सम्यग्दर्शन के सभी क्रियाएँ संसार भ्रमण का ही कारण है।
विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन होने के पूर्व ही यदि किन्हीं जीवों ने नरकायु- तिर्यंचायु का बंध कर लिया है, तो वे प्रथम नरक में और भोगभूमिज तिर्यंचों में उत्पन्न होंगे, क्योंकि आयुबंध छूटता नहीं है। यह व्यवस्था मात्र क्षायिक सम्यक्त्व की है। क्षायोपशमिक और उपशम सम्यग्दृष्टि जीव तो नरक और तिर्यंच गतियों में उत्पन्न होते ही नहीं हैं। सम्यग्दर्शन ही सब धर्मों की जड़ है। जैसे जड़ के बिना वृक्ष फल नहीं दे सकता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना अन्य सम्पूर्ण क्रियाएँ मोक्ष सुख देने में समर्थ नहीं हो सकतीं। पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा इस पद्य का विशेषार्थ इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-
विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन संपूर्ण धर्मों का मूल है अत: इसके बिना जितनी भी क्रियाएँ हैं-चारित्र है वह दु:ख को देने वाला नहीं है किन्तु नाना प्रकार के संसार के सुख भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों के सुखों को तथा वैमानिक देवों के भी सुखों को देने वाला है। हाँ, यदि वे क्रियाएँ जीवबलि आदि हैं तो अवश्य ही दु:ख देने वाली हैं। यदि क्रियाएँ मिथ्याचारित्र में पंचाग्नि तप आदि रूप से हैं तो भी देवों के सुखों को प्राप्त करा देती हैं और यदि जैन परम्परा के अनुसार अणुव्रत, महाव्रत आदिरूप हैं तो परम्परा से सम्यक्त्व के लिए कारण हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि सम्यक्त्व के बिना क्रियाएँ संसार का अंत करने वाली नहीं हैं अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराने वाली नहीं हैं। अत: उपर्युक्त १६वें पद्य की चतुर्थ पंक्ति में ‘‘इस बिन करनी दुखकारी’’ के स्थान पर ‘‘इस बिन न क्रिया भवहारी’’ पढ़ना चाहिए।
मोक्षमहल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान-चरित्रा। सम्यव्ता न लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा।। ‘दौल’ समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै। यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवै।।१७।।
अर्थ - सम्यक्दर्शन ही मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी है। बिना पहले इस पर आए मोक्षरूपी महल में प्रवेश असंभव है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र मिथ्या बने रहते हैं, वे सम्यक् माने ही नहीं जाते हैं इसलिए हे आत्महितैषी भव्य! ऐसे पवित्र सम्यग्दर्शन को धारण करो। कवि स्वयं को सम्बोधन कर कहते हैं हे दौलतराम! तू समझ, सुन, फिर सचेत हो जा। तू विवेकी है, इसलिए समय व्यर्थ नष्ट मत कर। समझ ले कि यदि इस पर्याय में सम्यग्दर्शन तुझे प्राप्त नहीं हुआ, तो तेरा मनुष्य जन्म वृथा गया पुन: यह मनुष्य पर्याय मिलना बहुत कठिन है।
विशेषार्थ - जैसे प्रथम घड़ा औंधा रखा जाने पर उसके ऊपर अन्य घड़े सीधे नहीं रखे जा सकते, वैसे ही श्रद्धा समीचीन हुए बिना ज्ञान और चरित्र भी समीचीनता अर्थात् सम्यक्त्वपने को प्राप्त नहीं होते, इसलिए सम्यक्त्व को मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी कहा गया है। इस ढाल का अध्ययन कर यह शिक्षा ग्रहण करना चाहिए कि मनुष्य प्रति समय मर रहा है एवं काल अबाध गति से भाग रहा है अत: समय रहते सचेत हो जाना चाहिए अर्थात् सम्यक्त्व ग्रहण कर लेना चाहिए। जैसे बिना धागे वाली सुई गुम हो जाने पर मिलना कठिन हो जाता है, वैसे ही सम्यक्त्व बिना यह जीव नरक-निगोदादि कुगतियों में चला जाता है, जहाँ से निकलकर मनुष्य भव प्राप्त कर पाना अतीव दुर्लभ है।
तर्ज-दीदी तेरा.............
प्रश्न १ - प्रश्नों का कुछ लेकर बहाना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना। यही चाहे सारा जमाना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।टेक.।। क्या कहते हैं कविवर तृतिय ढाल में, सुन लो प्राणी इसी से तो ज्ञान बढ़ेगा। कहाँ सच्चा सुख है निराकुल निरापद, बताओ भला उसका मारग है कैसा । उसके भेद कितने बताना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।१।।
उत्तर - मोक्ष में पूर्ण निराकुल और निरापद सच्चा सुख पाया जाता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं। यह मोक्षमार्ग दो तरह का माना है-१. निश्चय मोक्षमार्ग २. व्यवहार मोक्षमार्ग।
प्रश्न २ - जो निश्चय व व्यवहार शिवपथ रत्नत्रय, क्या परिभाषा उनकी बताओ रे भाई ? जो व्यवहार सम्यक्त्व सुज्ञान चारित्र, की क्या व्यवस्था जिनागम में आई ?। किसको किसका हेतू है माना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।२।।
उत्तर - निश्चय रत्नत्रय पूर्ण वास्तविक, आत्मा के सच्चे स्वरूप को प्रगट करता है। परद्रव्यों से भिन्न आत्मा को मानकर उसकी श्रद्धा करना ‘‘निश्चय-सम्यग्दर्शन’’ है, उसी आत्मस्वरूप को विशेषरूप से जानना ‘‘निश्चय सम्यग्ज्ञान’’ है और आत्मा के स्वरूप में ही लीन हो जाना ‘‘निश्चय सम्यक्चारित्र’’ है। इस निश्चय रत्नत्रय को प्राप्त कराने में व्यवहार रत्नत्रय को हेतु माना गया है।
प्रश्न ३ - जो व्यवहार सम्यक्त्व छहढाला में है, कहा उसका लक्षण बताओ सभी को ? जो तत्त्वों की संख्या बताई है कवि ने, उन्हें नाम लेकर बताओ सभी को ?। इनका उत्तर सुन्दर बताना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।३।।
उत्तर - जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों का जैसे का तैसा श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। तत्त्व सात हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। अहिंसा धर्म, क्षुधादि अट्ठारह दोषरहित देव और निर्ग्रंथ गुरु पर श्रद्धान करना भी व्यवहार सम्यग्दर्शन है।
प्रश्न ४ - चैतन्यमय जीव आत्मा के कितने, भेदों का वर्णन बताता जिनागम ? उनकी क्या पहचान बाहर से होती, अन्तर में उनके क्या कहता है आगम ?। सम्यग्दृष्टी है कौन माना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।४।।
उत्तर - चैतन्य जीव आत्मा के तीन भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। जो शरीर और आत्मा को एक मानते हैं, वे बहिरात्मा कहलाते हैं। जो शरीर और आत्मा को पृथक्-पृथक् मानते हैं, वे सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा कहलाते हैं।
प्रश्न ५ - किसे कहते हैं अन्तरात्मा तथा उनके, हैं भेद कितने समझ में न आए ? इसी भांति परमातमा के स्वरूप, व भेदों को कवि ने कैसे बताए ?। इनके उत्तर तुमसे है पाना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।५।।
उत्तर - जो भेदविज्ञान से आत्मा और शरीरादि परपदार्थ को भिन्न जानते हैं, वे अन्तरात्मा हैं। अन्तरात्मा के तीन भेद हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य। परमात्मा के दो भेद हैं-सकल परमात्मा और निकल परमात्मा। शरीर सहित होने से अरिहंत भगवान सकल परमात्मा कहलाते हैं।
प्रश्न ६ - अशरीरी सिद्धों का है कौन सा तन, किन कर्ममल को है जीता उन्होंने ? किस सुख को वे भोगते सिद्धभूमि में, किस पद को पाया है शाश्वत उन्होंने ?। उत्तर चाहूँ प्रश्नों का पाना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।६।।
उत्तर - ज्ञानरूपी शरीर के धारी सिद्ध भगवान तीन प्रकार के कर्ममल अर्थात् द्रव्यकर्म-भावकर्म और नोकर्म मल से रहित होते हैं, वे निकल परमात्मा हैं। वे सिद्ध
प्रश्न ७ - बिना चेतना के है तत्त्व अजीव, कहो उसके कितने प्रकार बताए ? पुद्गल के परमाणुओं में भी बोलो, कितने गुणों के अस्तित्व पाएँ ?। द्रव्य धर्माधर्म बताना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।७।।
उत्तर - चैतन्य शून्य जो अजीव तत्त्व है, उसके पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। पुद्गल के परमाणुओं में २० गुण होते हैं-५ रस, ५ वर्ण, २ गंध और ८ स्पर्श। जो जीव और पुद्गल को चलने में सहकारी है, वह धर्मद्रव्य है तथा जीव-पुद्गल को जो ठहरने में सहायक है, वह अधर्मद्रव्य कहा जाता है।
प्रश्न ८ - नीले गगन को न आकाश मानो, मगर कैसा आकाश है यह बताओ ? समय की क्रिया कहने वाला जो है, काल द्रव्य उसी के प्रभेद बताओ ?। आस्रव की भी महिमा बताना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।८।।
उत्तर - जीव आदि पाँचों द्रव्यों का जिसमें निवास स्थान है, उसे आकाशद्रव्य कहते हैं। सभी द्रव्यों के परिणमन (परिवर्तन) में जो सहायक होता है, उसे कालद्रव्य कहते हैं। उसके निश्चयकाल और व्यवहारकाल की अपेक्षा दो भेद हैं। मन-वचन-काय की चंचलता तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय के कारण आत्मा में जो कर्मों का आना होता है, उसे आस्रव कहते हैं।
प्रश्न ९ - किसे कहते हैं बंध तत्त्व जगत में, जिसे हमने अब तक गले से लगाया ? पुन: तत्त्व संवर का लक्षण बताओ, जिसे बंध के बाद कवि ने बताया ?। निर्जरा को भी समझाना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।९।।
उत्तर - आस्रव भावों के निमित्त से आए शुभ-अशुभ पुद्गलकर्मों का आत्मा के साथ दूध-पानी के समान एकमेक हो जाना बंधतत्त्व है। कषाय के शमन और इन्द्रियों के दमन से कर्मों का रुक जाना संवर तत्त्व है तथा तप के प्रभाव से कर्मों का झड़ जाना निर्जरा है।
प्रश्न १० - कहाँ मोक्ष है उसका लक्षण भी क्या है, बताओ यही तत्त्व अंतिम कहा है? कहा कौन सा धर्म उत्कृष्ट जग में, व्यवहार सम्यक्त्व किसको कहा है ?। इनके सबके उत्तर बताना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।१०।।
उत्तर - सब कर्मों से रहित अवस्था का नाम मोक्ष है, जो शाश्वत सुख को देने वाली है। इस प्रकार सात तत्त्वों पर श्रद्धा करना व्यवहार सम्यक्त्व है। दयामय धर्म जगत में सर्वोत्कृष्ट है।
प्रश्न ११ - किसे कहते हैं मद वह गुण है या अवगुण, कितने हैं मद के प्रभेद बताए ? है क्या मूढ़ता उसके भी भेद कितने, सम्यक्त्व के दोष कितने हैं गाए ?। थोड़े में ही सब कुछ बताना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।११।।
उत्तर - घमण्ड, मान, अभिमान को मद इस नाम से जाना जाता है, यह एक प्रकार का अवगुण है, उसके आठ भेद हैं। मूढ़ता ३ प्रकार की है। सम्यक्त्व के २५ दोष हैं-८ मद, ३ मूढ़ता, ६ अनायतन, शंका आदि ८ दोष।
प्रश्न १२ - सम्यक्त्व के कितने अंग हैं बोलो, नहीं कौन शंका करे जिनवचन में ? नगन तन मुनी में घृणा जो न करते, वे किस अंग को पालते हैं जगत में ?। उपगूहन का लक्षण बताना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।१२।।
उत्तर - सम्यक्त्व के आठ अंग हैं-नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना। जिनेन्द्र भगवान के वचनों में शंका नहीं करना नि:शंकित अंग है। मुनियों के शरीर को मैला देखकर घृणा न करना निर्विचिकित्सा अंग है। अपने गुणों को छिपाना और दूसरों के अवगुणों को प्रकट न करना उपगूहन अंग है।
प्रश्न १३ - सम्यक्त्व के दोष मद जो बताए, उनको न क्यों करना कवि ने बताया ? किसे कहते हैं जाति मद जैन आगम, बढ़े कैसे कुल का गौरव हमारा ?। दोषों को न मन से लगाना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।१३।।
उत्तर - सम्यग्दृष्टि जीवों को निज स्वरूप को समझते हुए इन मदों को नहीं करना चाहिए। मामा आदि मातृपक्ष का घमण्ड करना जातिमद है।
प्रश्न १४ - किसे कहते हैं आयतन उनसे उल्टे, अनायतनों में दोष क्या है बताओ ? कुदेव कुगुरु आदि की सेवा को भी, सदोषी कहा क्यों जरा यह बताओ ?। उत्तर इनका अच्छा बताना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।१४।।
उत्तर - सच्चे देव-शास्त्र-गुरु और इनके उपासक को आयतन कहते हैं और उनसे उल्टे खोटे देव-शास्त्र-गुरु एवं उनके भक्त छह अनायतन हैं। इन अनायतनों का सेवन करने से जीव संसार में ही भ्रमण करता है इसलिए इनकी मान्यता दोषपूर्ण मानी गई है।
प्रश्न १५ - किस कर्मवश जीव संयम न पावे, है क्या नाम उस कर्म का यह बताओ। गृहस्थी में रहकर कमलवत् रहें कौन, इन्द्रों से भी पूज्य क्यों वह बताओ।। किन-किन उदाहरणों से जाना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।१५।।
उत्तर - चारित्रमोहनीय कर्म के कारण जीव संयम को ग्रहण नहीं कर पाता है। सम्यग्दृष्टि जीव संसार में रहकर भी जल में कमल के समान भिन्न रहता है इसीलिए वह इन्द्रों से भी पूज्य माना जाता है। सम्यग्दृष्टि की प्रवृत्ति को वेश्या की प्रीति और कीचड़ में सोने के समान बतलाई है कि जैसे वेश्या का प्रेम किसी पुरुष में स्थिर नहीं रहता है वैसे ही सम्यग्दृष्टि जीव अपने इष्टजनों में अत्यधिक आसक्त नहीं होता है एवं जैसे कीचड़ में पड़ा हुआ सोना अपनी पवित्रता नहीं छोड़ता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि प्राणी की आत्मा गृहस्थ कीचड़ में रहते हुए भी निर्मल बनी रहती है।
प्रश्न १६ - जो सम्यक् सहित हैं वे मर करके बोलो, कहाँ जाते और कहाँ पर न जाते ? त्रयकालों-त्रयलोकों में सबसे अधिक, सुखदायी किसे आचार्य बताते ?। धर्मों की जड़ किसको है माना, मैं तो चाहूँ सबके ज्ञान को बढ़ाना।।१६।।
उत्तर - सम्यग्दृष्टि जीव मरकर प्रथम नरक के सिवाय शेष छ: नरकों में, ज्योतिषी-भवनवासी-व्यंतरवासी देवों में, नपुंसकों में, स्त्रियों में, स्थावर में, विकलत्रय जीवों में तथा पशुपर्याय में जन्म धारण नहीं करता है तथा तीनों लोकों और तीनों कालों में सम्यग्दर्शन के समान अन्य कोई भी सुख देने वाला नहीं है। सभी धर्मों की जड़ सम्यग्दर्शन है। बिना सम्यग्दर्शन के सब क्रियाएँ संसार के सुख तो दे सकती हैं किन्तु उनसे मोक्षसुख नहीं मिल सकता है। भाररूप एवं केवल दु:ख का ही कारण हैं।
प्रश्न १६ - प्रथम सीढ़ी मुक्ती महल की बताओ, किसे कहते हैं जैन आगम में भव्यों! बिना इसके ज्ञान व चारित हैं कैसे, क्या कहते लेखक बताओ स्वयं को ? सब प्रश्नों का उत्तर बताना, मैं तो चाहू सबके ज्ञान को बढ़ाना।।१६।।
उत्तर - सम्यग्दर्शन ही मोक्षरूपी महल की प्रथम सीढ़ी है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक् नहीं माने जाते हैं इसलिए हे आत्महितैषी भव्य! ऐसे पवित्र सम्यग्दर्शन को धारण करो।