।। मिथ्यात्व ।।

अभी हमने अपने ज्ञानदि गुणों को घातने वाली (प्रगट न होने देने वाली) कषाय का स्वरूप ओर उनका फल समझा। अब बताया जा रहा है उस मिथ्यात्व का स्वरूप और फल संक्षेप से, जिसके कारण अनंतानुबंधी अपना पूर्ण अधिकार जमाये रहती है, अर्थात अनन्तकाल तक संसार में ही रूलाती रहती है। इस घोर मिथ्यात्व का स्वरूप हमें निश्चित ही समझना है क्योंकि इसे समझे बिना इससे अपने आपको बचाना सम्भव नहीं है इसलिए बिना समझे इसका निकालना अर्थात त्याग करना कठिन ही है।

मिथ्यात्व का त्याग क्यों?
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मिथ्यात्व का त्याग किये बिना वस्तु-स्वभाव का यथार्थ ज्ञान नहीं होता, हिताहित मार्ग की परीक्षा नहीं होती, सुख-शांति नहीं मिलती, संसार, शरीर, भोगों की सच्ची विरक्ति नहीं होती अतः मिथ्यात्व का त्याग करना सर्वप्रथम आवश्यक है। अगर इसका त्याग नहीं किया तो अणुव्रत, महाव्रत, शील, संयम घोर तपश्चरण भी हम चाहे जितने करते रहें, वे मुक्ति का कारण न बनकर संसार का ही कारण रहेंगे। जैसे बिना पथ्य के कितनी भी औषधियों का सेवन क्यों न किया जाय वे रोगनाशक नहीं होगी। मिथ्यात्व का अंश भी दुःखदायी है, इसी पर एक छोटा-सा दृष्टान्त है उसे सुनकर हमारा मिथ्यात्व अवश्य ही निकल जायेगा।

दृष्टांत - किसी एक अच्छे सेठजी के लडके को श्वांस-खांसी का रोग हो गया। सेठजी बड़े दुःखी थे, कारण लड़का अकेला था, अनेक डाक्टर-वैद्यों के इलाज चल चुके, लाखों की तादाद में धन भी खर्च हो चुका, परंतु लड़का रोगमुक्त न हुआ। इसका कारण था, कोई आकर बोलता कि आपको तेल-खटाई से परहेज रखना होगा अर्थात त्याग करना होगा। लड़के का कहना था कि मैं सब कुछ छोड़ने को तैयार हूं परंतु एकमात्र दही नहीं छोड़ूंगा। वैद्य आयें और यह सुनकर चले जायें। एक दिन कोई अनुभवी वैद्य आये और उन्होंने कहा कि आप दहीं नहीं छोडि़ये, दही खाते रहिये,दही के अन्दर तीन गुण विशेष हैं। युवक रोगी वैद्यजी की बात पर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहा मैं आपका ही इलाज कराऊंगा, और तो सब आते हैं तो कहते हैं कि दही का त्याग करो। अच्छा आप यह बताइये कि दही खाने में तीन गुण कौन से हैं? वैद्यजी ने कहा-श्वांस, खांसी का रोगी दही खाता रहे तो उसके घर में रात्रि को चारी नहीं होती। दूसरा गुण है कि उसे कभी कुत्ता नहीं काटता और तीसरा गुण है वह बूढ़ा नहीं होता। इन तीन गुणों को सुनकर वह मूर्ख फूला नहीं समाया। कहने लगा कि यह तो अच्छा हुआ, रात्रि को पहरेदारों की आवश्यकता नहीं रेगी। कुत्ते का काटना भी बुरा है और बुढ़ापा भी नहीं आयेगा, इससे बढ़कर खुशी की बात है ही क्या? तीन दिन की औषधि देकर वैद्यजी अपने घर चले गये। इधर सेठजी के लड़के ने दही की खुराक दो गुनी कर दी। रोग बढ़ने लगा, यहां तक कि खांसी के वेग में खटिया से उठना भी आशक्य हो गया। पुनः वैद्यजी को बुलाकर कहा कि आप तो दही में तीन गुण बताते थे, यहां तो खाट से उठना कठिन हो रहा है। वैद्य जी बोले - मैंने जो तीन गुण बताये थे वह बिल्कुल सही हैं। पहले गुण में बताया था कि आपके घर में चोरी नहीं होगी, क्योंकि आप दही खाते रहेंगे, तो रात्रि भर खांसते रहेंगे, जब आप रात्रि भर खांसते रहेंगे तो चोर की आने की ताकत ही कहां। दूसरे गुण में बताया था कि कुत्ता नहीं काटेगा, वह भी मैंने ठीक ही कहा था, आपके पैरों में जब शक्ति नहीं रहेगी तब लाठी का सहारा लेकर चलना होगा और जिसके हाथ में लाठी रहती है, कुत्ता उसके समीप भी नहीं आता। तीसरे गुण में मैंने यह बताया था कि आपको बुढ़ापा नहीं आयेगा, वह भी ठीक ही कहा था, आपको खांसी, श्वांस का रोग है इतने पर आप दही खाते हैं तो अभी आपकी आयु 25 वर्ष की है, दो-चार वर्ष में रामनाम सत्य होकर मृत्यु होगी, बुढ़ापा तो साठ वर्ष के बाद प्रारम्भ होता है।

तीन गुणों को सुनते ही और यह जानकर कि दही खाते रहेंगे तो जान से हाथ धो बैठेंगे, उसी सयम दही का त्याग कर दिया और परहेज पूर्वक औषधियों का सेवन किया तो कुछ ही समय में रोगमुक्त हो गया।

इसी प्रकार हम भी रोगी हैं, जन्म-मरण का भयंकर रोग लगा है। इसका इलाज करते-करते अनादिकाल व्यतीत हो गया परंतु रोगमुक्त नहीं हुए। इसका कारण यही है कि परम उपकारक गुरूदेव ने जो औषधि बतायी उसका तो जब कभी सेवन किया, परंतु साथ ही जो विषय, कषाय, मिथ्यात्व रूपी तेल-खटाई आदि का त्याग बताया, वह नहीं किया।

अब अगर हम जन्म-मरण रूपी रोग से मुक्त होना चाहते हैं तो इसी समय इस महादुःख के कारण घोर मिथ्यात्व का त्याग कर दें, इसका अगर अंश भी बैठा रहा तो हमें चाह रूपी आग में जलाकर भस्म कर देगा, जैसे - आग का एक कण ही लाखों मन ईंधन को जलाकर भस्म कर देता है अतः इसी समय से हमें इस महान दुःख के कारण मिथ्यात्व का त्याग करना अवश्यक है।

मिथ्यात्व के भेद - अभी तक मिथ्यात्व के त्याग की बात की, अब इसके कितने भेद हैं, यह दिखाते हैं। इसके मूल में दो भेद हैं - गृहीत ओर अगृहीत। तत्वार्थवार्तिकादि ग्रन्थों के अनुसार मिथ्यात्व के पांच भेद हैं -

1 - एकांत

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2 - विपरीत,

3 - वैनायिक,

4 - संशय

5 - अज्ञान

इन सभी प्रकार के मिथ्यात्वों का क्या स्वरूप है, यह दिखाते हैं।

गृहीत मिथ्यात्व - सर्वप्रथम यहां गृहीत मिथ्यात्व का स्वरूप बतलाते हैं पर उपदेश से हुआ जो तत्व का विपरीत श्रद्धान है, वही है गृहीन मिथ्यात्व, अर्थात खोटे देव, शास्त्र ओर गुरूओं की पूजा, सेवा, भक्ति, स्तुति आदि करना, उनका उपदेश सुनकर उनकी बात का श्रद्धान करना, मानना तथा तदनुकूल आचरण करना ओर भी उनके अनुकूल जो कुछ भी मान्यता है, वह सभी गृहीत मिथ्यात्व है। गृहीत नाम इसका इलिए है कि यहां पर उपदेश से ग्रहण किया जाता है। यह मिथ्यात्व मात्र पंजेन्द्रिय सैनी मनुष्यादि जीवों के ही होता हैं।

अगृहीत मिथ्यात्व - अगृहीत मिथ्यात्व उसे कहते हैं जो किसी के उपदेश के बिना ही आदिकाल से अपना स्थान जमाये बैठा हुआ है, उसने वस्तु स्वभाव का यथार्थ ज्ञान ही नहीं होने दिया हैं एकेन्द्रिय से लेकर मनरहित पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों के अगृहीत मिथ्यात्व ही है और शेष मनुष्यादि जीवों के दानों ही म्यिात्व हो सकते हैं, अकेला अगृहीत भी हो सकता है, परंतु अकेला गृहीत नहीं होता क्योंकि इसके उत्पन्न होने में अंतरंग कारण अगृहीत हैं।

एकान्त मिथ्यात्व - एकान्त मिथ्यात्व का स्वरूप इस प्रकार है - यह ऐसा ही है किसी भी तरह से अन्य नहीं है, वस्तु-स्वभाव नित्य ही है, अनित्य ही है। भिन्न ही है, अभिन्न ही है। भेदभाव ही है, अभेदरूप ही है। अस्तिरूप ही है, नास्तिरूप ही है। दर्शनमात्र से ही सम्यक्त्व हो जायेगा। ज्ञानमात्र से ही सुख की प्राप्ति हो जायेगी। चारित्र मात्र से ही कर्म छूट जायेंगे। निश्चय मात्र ही धर्म है, व्यवहार अधर्म है अथवा व्यवहार मात्र ही धर्म है निश्चय नहीं, इस प्रकार की अनेक कपोलकल्पित मान्यताएं एकान्त मिथ्यात्व में ही समाविष्ट हैं। इस एकान्त मिथ्याव्त से बचने के लिए हमें अनेकान्त मूर्ति की शरण लेनी होगी।

विपरीत मिथ्यात्व - एकान्त मिथ्यात्व का स्वरूप इस प्रकार बताया। अब बताया जा रहा है विपरीत मिथ्यात्व का स्वरूप - वस्तुस्थिति जैसी है वैसी न मानकर उल्टी श्रद्धा करना, यही है विपरीत मिथ्यात्व। जैसे हिंसा में ही धर्म होता है; मुनि अपरिग्रह सहित ही होते हैं, पंचमकाल में सच्चे मुनियों का अभाव है; ऐसा कहना, पाप क्रियओं में रत रहते हुए उन्हें धर्म मानना, भोगों में आनन्द मनाना, योगमार्ग को क्लेशदायक मानना; शरीर को ही आत्मा मानना,संसार में ही सुख मानना, और भी जो आगम से विपीरत मान्यतायें हैं वे सभी विपरीत मिथ्यात्व के अंदर अंतर्भाव हो जाती हैं। इस मिथ्यात्व से बचने के लिए हमें अपनी बुद्धि आगमानुसार बना लेनी होगी।

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