।। चर्तुगति दुःख ।।

चारों गति के बीच में, दुःख सहे अति घोर।
जो इनसे भयभीत हैं, दृष्टि कर निज ओर।।101।।

अीा तक परम्परा से चतुर्गति दुखनाशक षट् आवश्यक कर्मों का विवेचन किया गया । अब उन चारों गतियों का संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है जिसमें अनेक प्रकार के दुख भोगते-भोगते हमें अनन्तकाल व्यतीत हो गया। अगर इनसे बचने का (निकलने का) उपाय नहीं किया तो अनन्तकाल और व्यतीत हो जायेगा। कौन-कौन गति में हमने कैसे-कैसे दुख प्राप्त किये उनहीं को यहां बताते हैं।

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तिर्यंच गति के दुःख

अनादिकाल तो हमने निगोद में ही व्यतीत कर एक श्वांस के अष्टादशम भाग में जन्म-मरण किया। यहां एक बार मरण करने में कितना कष्ट होता है, वहां श्वासं के अंदर अठारह बार जन्म-मरण करने में हमें कितना अपार दुख हुआ होगा, जिसे हम आज भूल गये।

निगोद से निकलकर पंच स्थावरों में अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और वनस्पतिकाय जीवों में उत्पन्न हुए। वहां भी खोदने, गर्म करने, बुझाने, श्वांस लेने और छिन्न-भिन्न करने आदि अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करना पड़ा।

जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति अति दुर्लभता से होती है, उसी प्रकार हमें सथावर से त्रसपर्याय की प्राप्ति हुई, वहां परभी अपार दुख पाये।

कभी तो इन्द्रिय लट आदि होकर अनेक बार मरे, कभी पिपीलादि त्रीन्द्रिय पर्याय में अनेक दुख पाये, कीाी चै-इन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होकर घोर दुःख उठाये, कीाी बड़े जीवों के पग तले आकर मरे, कभी अन्य जीवों छिपकली आदि के द्वारा खाये गये। कभी पंचेन्द्रिय भी हुए तो मन के बिना निपट अज्ञानी रहे। कभी मन सहित भी हुए तो अपने से बलवानों का शिकार बने और अनेक प्रकार के ताड़न, मारन, भूख, प्यास, छेदन, भेदन, भारारोपण आदि अनेक कष्ट सहे। पशुओं के दुख आज भी तो हमारे सामने हैं, देखों उस पुल पर चढ़ते हुए तांगे में जुते घोड़े को, चार की जगह आठ बैठे हैं, मालिक ऊपर से हन्टर जमा रहा है। क्या इस समय इस घोड़े के मन के दुख को हम जान सकते हैं? जब हम पशु योनि में थे तब इन सभी दुखों का हमाके भी सामना करना पड़ा था। अब हमें ऐसा काम करना है, ताकि पुनः तिर्यंच गति में न जाना पड़े, यह असहृ दुःख न सहना पड़े।

नरक गति के दुख

तिर्यंच और मनुष्य पर्याय में जब घोर पाप किये, तब अति संक्लेशमय भावों से मरणकर घोर नकर गति में जा पड़े। नकर की भूमि स्पर्श करते ही इतना दुख हुआ कि यहां पर एक हजार बिच्छु भी एक साथ काटें तो भी उतना दुख न हो। सि प्रकार बाॅ जमीन पर जोर से पटकने पर पुनः ऊपर की ओर उठती है, फिर धीर-2 जमीन पर ही रह जाती है, इसी प्रकार जब हम नकर में गये तो वहां की भूमि के कष्ट को सहन न कर सके, तब बार-बार ऊपर की ओर उठले। उन नरकों के अंदर पीव और ख्ूान की नदियां बह रही हैं तथा कृमिकुल अर्थात बारीक कीड़ों के समूह से भरी हुई है वहां की दाह जब हमसे सहन न हुई तब उन नदियों के अंदर जा कूद। दाह को उत्पन्न करने वाली नदियों में से व्याकुल हो भागे, तब सेमर वृक्ष के नीचे छाया लने के इच्छा से आये, वहां पर तलवार के सामान वृक्ष के तीक्ष्ण्या पत्तों ने हमारे शरीर के टुकड़े-2 कर दिये। टुकड़े-2 हो जाने पर भी नरकों में शरीर पुनः पारेवत् जुडत्र जाता है। कुछ नारकियों ने आकर खौलते कड़ाहे में पटक दिया। किसी ने आकर शरीर को खण्ड-2 कर दियां असुरकुमार के देवों ने आकर हमारे पूर्वभव के बैर को स्मरण कराकर और भिड़ा दिया। भूख-पस इतनी लगी कि समुद्र का पानी पीकर, तीनों लोकों का अन्न खाने पर भी वह न मिटती, परंतु अन्न का कण और पानी की बूंद भी वहां पर न मिली। शीत और उष्णता भी वहां पर इतनी थी कि मेरू के समान लोहे का गोला भी गलकर भस्म हो जाये ओर भी अनेक प्रकार के दुख वहां हमने अनेक सागर पर्यन्त उठाये जिनका विवेचन करोड़ों जिह्वाओं के द्वारा भी नहीं यिका जा सकता। अगर इन महान दुखों से हमारा मन भयभीत है तो ऐसे कार्य न करें कि हमें नकर जाना पड़े।

मनुष्य गति के दुःख
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नकरों में सागरों पर्यन्त घोर दुख उठाने के बाद किसी महान पुण्य कर्म के कारण मनुष्य गति का बंध किया। वहां से आकर मां के पेट में नवमास पर्यन्त वह घोर दुःख पाया, जिसके विवेचन करना शक्य नहीं है। कभी अल्प आयु लेकर के आये तो पेट में ही मरण को प्राप्त हो गये। जिस समय जन्म हुआ था उस समय क्या दशा हुई थी, अगर आज भी विचार करें तो उस कष्ट का कुछ भाग तो अनुभव में आ ही जाता है। कभी पैदा होते ही समस्त हो गये, अगर बच भी गये तो बालपन खेल-कूद में गंवा दिया कुछ ज्ञान नहीं किया। किया तो सच्चा ज्ञान नहीं लौकिक ज्ञान किया, जो अकेला रहने पर धर्म कार्यों में बाधक होता है। लौकिक ज्ञान करना बुरा नहीं है, ंपरंतु उसके साथ-2 धर्मज्ञान भी होगा तो सार्थकता है, अन्यथा तो किया न किया समान ही है। युवा अवस्था में हितपथ पर न लगे विषय-भोगों में ही लीन रहे; चाह रूपी दाह में जलते रहे और अनेक प्रकार के दुःखों का सामना करना पड़ा। कभी निर्धन बने तो दुःखी रहे, कभी धनवान बने तो पुत्रादि के वियोग जन्य दुःखों से दुःखी रहे। कभी अंगहीन होने से दुःखी रहे, कभी बुद्धिहीन होने से दुःखी रहे, वृद्ध हुए तो शरीर ने साथ नहीं दिया, इन्द्रियां भी शिथिल हो गयी, चला-फिरा नहीं गया अर्थात धर्ममृत के समान अवस्था हो गयी। उस समय हमने कितने दुःख हुआ था, उसे तो हम आज भी आंशिक रूप से जान सकते हैं,दूसरों का मरण देखकर। अब हमें यह नरजन्म मिला है, इसे भी उसी प्रकार विषय-भोगों में न व्यतीत कर दें। बाल्यकाल में सम्यग्ज्ञान प्राप्त करें। युवा अवस्था में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरूषाार्थों को यथाशक्ति अपनाये ंतो बुढ़ापा भी अर्धमृतक के समान व्यतीत नहीं होगा अन्यथा तो पूरे जीवन भर दुःख ही दुःख है।

देवगति के दुख

कभी अकामनिर्जरा की; तो हम भवनत्रिक में उत्पन्न हुए, वहां भी विष्य-चाहरूपी अग्नि में जलते रहे ओर भी अनेक कारणों से दुःखी रहे। कभी अगर विमानवासी भी हुए तो सम्यग्दर्शन के बिना दुःखी रहे। दूसरे देवों का वाहन बनाना पड़ा तब महान दुःख अर्थात चारों गतियों के अंदर सुख है ही नहीं, सुख तो अपने अंदर है अतः हमें चतुर्गतियों से बचना हैं

इस दुःखमय चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण कराने वाली अर्थात दुःख देने वाली कषाय है अतः तब आगे कषाय के स्वरूप को बताया जा रहा है,उसे समझकर अगर हमें चतुर्गति दुःख से बचना है तो त्याग करें।