।। षष्ठ आवश्यक कर्म: दान ।।

दान-दान सब कहत हैं, दे ना जाने कोय।
दान कला जाने बिना, दान कहां से होय।।16।।

अभी तक की गई है बात देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम और तप की। देवपूजा, गुरूपास्तिा, स्वाध्याय संयम अैर तप नामक आवश्यक कर्मों का पालन करने से हम में जो शांति की एक लहर आयी है वह अकथनीय है। अब हमारे आवश्यक कर्मों में से एक आवश्यक कर्म अैर शेष है और वह है ‘दान’। यहां उस दान नामक आवश्यक कर्म को संक्षेप में बताया जायेगा।

दान किसे कहते हैं?
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मुक्ति पथ की ओर चलने वाले भव्य जीवों को धर्मक्षेत्र में त्याग भावना से, दीन-दुखी जीवों को करूणाभाव से आवश्यकता के अनुसार वस्तु भेंट करना, ख्याति लाभ न चाहते हुए हमेशा के लिए दे देना वही कहा जात है दान अर्थात अपने परिश्रम से कमाये, एकत्र किये हुए धन का सत्पात्रों के लिए त्याग करने को कहते हैं दान।

दान के आचार्यों ने कई भेद बताये हैं, इनमें चार प्रसिद्ध हैं। वे हैं - आहारदान, ज्ञानदान, औषधिदान और उभयकदान। इन चारों प्रकार के दानों को निज शक्ति के अनुसार प्रत्येक दिन करना हमारा परम कर्तव्य हैं।

दान क्यों?

दान तब होता है जब आ जाती है हमारे अंदर प्रवृत्ति त्याग की और त्याग को उत्तमक्षमादि दस धर्मों में धर्म कहा है। दसलक्षण धर्म की पूजा में भी कविवर द्यानतराय जी ने इस प्रकार लिखा है-

उत्तम त्याग कहों जब सारा,
औषधि शास्त्र अभय आहार।।

दान और धर्म अलग नहीं एक ही है। धर्म है वह दान है, दान है वह धर्म है क्योंकि भावपूर्वक जितना पर-पदार्थों से ममत्व और राग द्वेष आदि विकारी भावों का परित्याग, जितना व्रत, चारित्र, सामायिक, ध्यान और स्वसंवेदन होगा वे सब त्याग धर्म के कारण होंगे। जिस समय कारणों की कार्य में उपचार की कल्पना की जायेगी उस समय समस्त व्रत, चारित्र, जप आदि धर्म त्यागरूप (दान) ही कहे जायेंगे। इसलिए त्याग धर्म को सर्वोत्कृष्ट माना जाता है और वह होता है दान करने से। अतः हमें दान करते समय प्रमाद नहीं करना चाहिए।

दान बिना मुक्ति नहीं
दान बिना मुक्ति नहीं, दान बिना यश नाहिं।
कीजे दान विवेक से, पाप मैल धुल जाहिं।।87।।

वास्वत में मोक्ष की प्राप्ति बिना दान के नहीं होती हैं, यह सिद्धांत सर्वमान्य है। दान देने वाले को सुसंगति मिलती है, पुण्य की प्राप्ति होती है। अपने संसार-भ्रमण का नाश चाहते वाले ही दान करते हैं। इस दान धर्म को जिनागम में सर्वोत्कृष्ट धर्म माना है, इसलिए दान और धर्म में किसी प्रकार का भेद नहीं माना है, दोनों एक ही हैं क्योंकि दान भी निवृत्ति रूप होता है, और धर्म भी निवृत्ति रूप में होता है। पर क्रोधादि कषायों को त्याग कर स्वभाव की जो प्राप्ति होती है, वह धर्म है और ममत्व भाव को पर वस्तु की ओर से त्यागकर उसे दूसरे के हितार्थ देना दान है। दान से पाप कर्म नष्ट होते है। पापकर्म समाप्त होने से बढ़ते हैं भाव धर्म की ओर। धर्म करने से ही संसार में शांतिपूर्वक जीवन जिया जा सकता है। धर्म के बिना हमारा जीवन पशु के समान है।

अतः हम जगावें अपने में त्याग धर्म को और देवें प्रारम्भ चार प्रकार के दानों को निवृत्तिभाव से; तभी प्रारम्भ होगा चलना मुक्ति पथ की ओर, सत्पथ की ओर सच्ची भावना से, या और नाम की कामना बिना किया? कर्तव्य समझते हुए दान करना ही वास्तविक दान है। हम चाहते हैं भक्ति और मुक्ति। परवस्त के त्याग अर्थात दान के बिना वह प्राप्त नहीं होती।

जो दान मुक्ति-पथ की ओर ले जाने के कारण है उसके दो भेद हैं। एक है द्रव्यदान और दूसरा है भाव दान। अब पहले द्रव्यदान को बतलाता जा रहा है -

द्रव्य दान का स्वरूप
रक्षा होवे धर्म की, करो द्रव्य का दान।
जहां नही उपयोग है, ना फल मिले महान।।88।।

स्व-पर उपकार के लिए अपना द्रव्य मोक्षामार्ग की प्राप्ति रूप कार्यों में वितीर्ण करना, लगाना आंतरिक इच्छा से, वह कहा जाता है द्रव्य दान। जिस दान के देने से दाता की आत्मा का कल्याण नहीं हो वह दान नहीं है और जिस दान से पात्र की आत्मा का कल्याण नहीं हो वह भी वास्तविक दान नहीं है तथा जिस दान से मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति नहीं होती हो वह भी सही दान नहीं है। सच्चा दान तो वही है जो ले जाये भव्य जीवों को मुक्ति पथ की ओर।

वस्तविक दान वही है जो मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति करने वालों में दिया जाता है। उस दान के आचार्यों ने ‘‘समदत्ति, अन्वयदत्ति और पात्रदत्ति’’ इत्यादि प्रकार के भेद बतायो हैं। ये सब मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति करनो वाले हैं। उनका स्वरूप आगे बताया जायेगा।

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दान देने का मुख्य उद्देश्य मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति है जिस दान से मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति हो वह दान वास्तव में सम्यक् दान है। अन्यथा कुदान ही है। जिस दान के देने से हमारी आत्मा का कल्याण नहीं होता है वह दान भी दान नहीं। दान तो वही है जिसके देने से हमारी आत्मा में आत्म-गुणों की विशुद्धि, सन्मार्ग की प्राप्ति, परिणामों की समुज्ज्वलता और धर्म की श्रद्धा सातिशय वृद्धिंगत हो। सम्यक्दान इसको ही कहते हैं। कीर्ति या नाम के लिए पाप कार्यों में दान देना वास्वत में दान नहीं है। कीर्ति के लिए दिया गया दान द्रव्य का निष्फल व्यापार है। प्रायः ऐसे दान में विवेक ओर विचार सर्वथा नहीं रहता है। इसलिए हम अपनी कीर्ति के लिए पाप कार्यों में दान प्रदान करते हैं, मिथ्यात्व वृद्धि के कार्यों में दान देते हैं। जिससे आत्मा में मिथ्यात्व य पापों की प्रवृत्ति निरंतर होती है। इस सबका फल यह होता है कि ऐसे दान से नीति, सदाचार और सन्मार्ग का लोप तथादुराचार अन्याय एवं मिथ्यात्व बढ़ जाता है।

जिस दान से मिथ्यात्व की वृद्धि हो या सन्मार्ग की हानि हो अथवा अन्याय और पापों की प्रवृत्ति हो उस दान का फल हमें अवश्य घोर दुखदायी प्राप्त होगा। जिस प्रकार सम्यक दान से हमें सन्मार्ग की प्राप्ति और स्वर्ग, मोक्ष आदि सदगति की प्राप्ति होती है। उसी प्रकार मिथ्यात्वादि के बढ़ाने वाले कुदानों से हमें मिथ्यात्व की प्रतृत्ति और तिर्यंच, नरकादि खोटी गतियों के दुखों की प्राप्ति होती है।

जिस दान से अन्याय, असदाचार बढता हो और सन्मार्ग का नाश होता हो, वह दान जीवों को दुखदायी और आत्मा को दुर्गति का पात्र बनाने वाला होगा, क्योंकि जैसे तलवार से तो एक जीव का वध होता है परंतु ऐसे आानरूप दान से अनन्त जीवों का वध हो जाता है। जिस दान से कुज्ञान की प्रवृत्ति होती है वह दान तत्काल ही संसार में मिथ्यात्व की वृद्धि, सन्मार्ग का लोप, अन्याय की प्रवृत्ति, सदाचार और नीति के नाश का कारण हो जाता है और उसका फल हमें अवश्य भोगना पड़ता है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव सब को है। फिर भी न जाने क्यों ख्याति-लाभ के वशीभूत होकर हम लोग मिथ्यात्व-पोषण करते जा रहे हैं। इसलिए हम उसी दान को करे, जो ले जाये मुक्ति-पथ की ओर, क्योंकि दान का मुख्य उद्देश्य सन्मार्ग की प्रवृत्ति है। जिस दान से सन्मार्ग की प्रवृत्ति नहीं होती हो, वह दान, दान नहीं है, किंतु दुखों का सामना कराने वाला कुदान ही है।

दान का दूसरा उद्देश्य अपनी आत्मा का कल्याण होता है। अगर दान देकर भी हम दुर्गति के पात्र हो गये तो समझना चाहिए कि हमने अपने धन को विषैले अगर के मुख में रखने का प्रयत्न किया है, क्योंकि अजगर के मुख में जाकर प्रत्येक वस्तु जहर बन जाती है उसी प्रकार कुपात्र रूपी अजगर को दिया हुआ दान भी जहर के तुल्य बन जाता है।

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