।। दर्शन विधि ।।

सदा शुद्ध धुले, वस्. पहन कर घर से जाते समय चावल, लोंग, बादाम आदि कुछ न कुछ कथाशक्ति हाथ में द्रव्य अवश्य ले जाना चाहिए। मंदिर जी में प्रवेश करने से पहले से बाहर रखे हुए शुद्ध जल से हाथ पैर धोवें और फिर मंदिर जी में प्रवेश करें। प्रवेश करते समय ‘ऊँ जय जय जय, निःसहि, निःसहि’ बोलते हुए घण्टा बजावें।

‘निःसहि निःसहि’ का अर्थ है कि हमारे अंदर राग-द्वेष-कषायादि जो कुछ अशुद्ध भाव है वह हट जायें ताकि शुद्ध रूप से दर्शन हो सकें। कुछ आचार्यों का कहना है कि निःसहि-निःसहि का अर्थ है कि जो कोई देव-दर्शन कर रहा हो तो हट जावे सामने से।

कुछ लोगों का कहना है कि मंदिर जी में प्रवेश करते ही घण्टा क्यों बजाया जाता है? जब मनुष्य जय-जय बोलता हुआ घण्टा बजाता है तब उसकी गूंजती हुई ध्वनि में भाूल जाता है सबाके और भगवान की भक्ति में लीन हो जाता है।

भगवान के सामने आते ही सर्वप्रथम जिनेन्द्र-बिम्ब को अच्छी तरह निरख लेना चाहिए। देखने का प्रयोजन यह है कि श्रीजी की मुद्रा श्री अरहंत भगवान के समान वीतरागी है या नहीं।

अर्घ- फिर घर से लाये प्रासुक द्रव्य को उसका मन्त्र बोलकर चढ़ाना चाहिए। जैसे मानों आपके हाथ में अक्षत है तो यह बोलकर चढ़ावें-

क्षण क्षण जनम जो धारते, भयो बहुत अपमान।
उज्जवल अक्षत तुम चरण, पूज लहों शिव-थान।।
ऊँ हृीं श्रीदेवशास्त्रगुरूभ्यो नमः अक्षयणप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

अर्थात-आत्मा के अविनाशी गुणों की प्राप्ति के लिए मैं अक्षतों को चढ़ाता हूं। द्रव्य चढ़ाने के बाद दोनों हाथ जोड़ तीन आवर्त कर नमस्कार करें और जहां वेदी के चारों ओर परिक्रमा हो वहां हाथ जोड़े हुए तीन प्रदक्षिणा देवें। प्रदक्षिणा देते समय हर दिशा में तीन आवर्त कर हाथों को मस्तक पर लगा, झुक कर नमस्कार करते जावें। इस प्रकार करने से 12 आवर्त और चार नमस्कार होवेंगे। प्रदक्षिणा देते समय णमोकार मंत्र पढ़ें, भगवान के स्वरूप का चिन्तन करें, मेरी भावना आदि का पाठ करें और उनके एक-एक गुण का मनन करें, तत्पश्चात भगवान के सन्मुख आके संस्कृत अथवा हिन्दी भाषा में कोई दर्शन-पाठ बोलें। तदनन्तर कायोत्सर्ग करें अर्थात खड़े होकर तीन व नौ बार णमोकार मन्त्र के साथ श्री जिनेन्द्र देव की ध्यानमयी अनुपम मुद्रा के स्वरूप का चिन्तन करें। बाद में गंधोदक अर्थात भगवान के चरणों के प्रक्षालन का जल अपने मस्तक और नेत्रों में लगावें। उस समय उक्त मंत्रों को बोलते हुए पवित्र बनने की भावना भायें-

गन्धोदक लेने का मंत्र और उसका फल
निर्मलं निर्मलीकरणं पवित्रं पापनाशनम्।
जिन-गंधोदकं वन्दे चाष्ट-कर्म विनाशकम्।।
रोग हरे सुख को करे, जिन स्नान का वारि।
उत्तम अंग लगाइये, सब दुख होंगे क्षारि।।

भगवान का अभिषेक किया हुआ जल इतना पवित्र होता है कि अगर हम पूर्ण श्रद्धा के साथ मस्तक पर लगा लें तो समस्त पापों का क्षय हो जाता है, रोगों का नाश हो जाता है, दरिद्रता नष्ट हो जाती है, बुद्धि बृद्धिंगत हो जाती है, समस्त सुखों की प्राप्ति स्वयमेव ही हो जाती है। इसी गंधोक को मैना-सुन्दरी ने श्रीपाल आदि 700 कुष्ट रोगियों के शरीर पर छिड़का था। फलस्वरूप कुछ ही समय में सब की कुष्ट व्याधि दूर हो गई। इसी प्रकार अगर पवित्र भावना से हम भी गंधोदक लगायेंगे तो पवित्र हो जायेंगे। इसकी महिमा का आजतक किसी ने पार नहीं पाया है। जैसे जिसके भाव हों वैसी ही उसकी महिमा है।

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भगवान के दर्शन के लिए आते समय नीचे देखते हुए चलना चाहिए और रास्ते में किसी से बात नहीं करनी चाहिए। भगवान के गुणों का चिन्तवन करना चाहिये। ऐसा करने में अनन्त पुण्य-फल की प्राप्ति होती है। कहा भी है-

मनचिन्ते जब सहस फल, लक्षा गमन करेय।
होय अनन्ता फल तबै, जब जिनवर दर्शेय।।

दर्शन के लिए परिचय

जिनेन्द्र देव की वीतरागी मुद्रा को देखकर ज्ञान होता है अपनी आत्मा का हमको। भाव निर्मल बन जाते हैं और हृदय-कमल जिनेन्द्र रूप कमल को देखकर खिल जाता है। उस समय जो आनन्द आता है वह कहा नहीं जा सकता, मात्र अनुभव ही किया जा सकता है। पूर्ण आनन्द लेने के लिए जिनेन्द्र भगवान से हमको परिचय कर लेना चाहिए, तभी सच्चा प्रेम होगा ओर तभी सच्चा आनन्द अयेगा। उनसे परिचय के लिय हम को जानना होगा कि जिनेन्द्र भगवान किसे कहते हैं और क्या-क्या विशेषगुण (मूल गुण) होते हैं? तभी हम णमोकार मंत्र को समझेंगे। णमोकार मंत्र की गहराई में जाने के लिए (परिचय करने के लिए), पंचपरमेष्ठी से प्रेम करने के लिए, भगवान की भक्ति में लीन होने के लिए आवश्यक है कि उनसे परिचय करें तभी प्रेम होगा, जब पे्रम होगा तभी सच्चा आनन्द आयेगा, जब सच्चा आनन्द आयेगा तभी प्रगट होगी; जब भक्ति की शक्ति प्रगट होगी तभी होगा चलना मुक्ति पथ की ओर।

प्रभु के दर्शन करन से, निज में ले निज-जोय।
पाप टलें सब भवनिके, मुक्ति रमा पति होय।।

अभी अभी मैंनें, यह अनुभव किया है।
प्रतिकूलता में भी, सहज समरस पिया है।।
अनुकूलता कभी-कभी, स्वभाव प्रतिकूल बनाती है।
प्रतिकूलता भी भव्यों में, स्वानुभव जगाती है।।
ऊँ जय
आस्था कोई झाड़ नहीं, जो तूफानों में गिर जाए।
दृष्टि सूर्यमुखी का फूल नहीं, सूर्य देख वह फिर जाय।।
यथार्थ समर्पण में कोई, शर्त नहीं होती है भाई।
श्रद्धा संकल्प यथावत है जीवन, चाहे संकट में घिर जाए।।