।। आओ मंदिर चले ।।
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प्रश्न-181 पूजन में चंदन क्यों चढ़ाते हैं?

उत्तर- चंदन की अपनी विशेषता होती है कि वह सांप के लिपटे रहने पर विषमय नहीं होता अर्थात अपनी सुगंध और शीतलता नहीं छोड़ता। वैसे ही हे परमात्मा! संसार के बीच रहकर भी मैं संसारी न बन सकूं। अपने लक्ष्य को बनाए रखूं क्योंकि लक्ष्य बना रहा तो संसार की तपन एक दिन शीतलता में परिवर्तित हो जाएगी।

प्रश्न-182 पूजन में अक्षत (चावल) क्यों चढ़ाए जाते हैं?

उत्तर- अक्षत हमारे यहां बहुत श्रेष्ठ द्रव्य माना गया है। अक्षत के ऊपर का जो छिलका होता है, बिल्कुल बाहर-ही-बाहर होता है। अंदर जो भी है वह बिलकुल वीतराग है, नग्न है, निग्र्रन्थ है,े और भेद विज्ञान का प्रतीक है। जैसे हम यदि धान बो देते हैं तो वह पुनः उग आता है परंतु अक्षत (चावल) बोएं तो वह नहीं उगता। अर्थात अक्षत के ऊपर से जिस तरह छिलका हटने से अक्षत यानि जन्म-मरण रहित हो गया, उसी तरह मेरी शुभ्र धवल आत्मा अक्षय हो जाये। इसी भावना से अक्षत चढ़ाते हैं। चावल के ऊपर जो धान का छिलका है वह घातिया कर्म का प्रतीक है एवं धान के छिलके के अंदर चावल में जो गुलाबी रंग की पर्त (अशुद्धि) है वह अघातिया कर्म का प्रतीक है। अर्थात मेरी आत्मा में भी इसी तरह घाति-अघाति कर्म लगे हैं। हे प्रभु! मैं चावल की भांति शुद्ध धवल अर्थात अष्ट कर्मों की कालिमा से रहित होना चाहता हूं। जिससे मेरी आत्मा शुद्ध हो जाए इस भावना से भी चावल चढ़ाये जाते हैं।

प्रश्न-183 पूजन में पुष्प क्यों चढ़ाते हैं?

उत्तर- फूल चूंकि मोह वर्धक हैं, कामदेव को भी पुष्प प्रिय होता है। पुष्प में जितना आकर्षण होता है उतना आकर्षण शायद ही कहीं पाया जाता हो। शादी में फूलों की माला और फूलों की सेज पर संसारी प्राणी मोह में फंस जाता है। भौरा, तितली, आदि भी आकर्षित होकर मृत्यु को उपलब्ध हो जाते हैं। आकर्षण होने के कारण भगवान के सान्निध्य में पूजन के समय पुष्प चढ़ाकर विनती करता है कि हे भगवान! आपने मोह का नाश कर दिय है, काम जीत लिया है इसलिए मैं काम भाव को नष्ट करने के लिए पुष्प चढ़ा रहा हूं। अर्थात फूल को आकर्षण रूप (काम रूप) माना है। आपके समान मैं भी काम को जीत सकूं। अर्थात काम भाव से मुक्त होने के लिए पुष्प चढ़ाये जाते हैं।

प्रश्न-184 पूजन में नैवेद्य क्यों चढ़ाते हैं?

उत्तर- दुनिया में केवल एक जिनेन्द्र भगवान ही ऐसे हैं जिन्होंने क्षुधा रोग को नष्ट कर दिया है। नैवेद्य चढ़ाते समय पूजक यह भाव रखता है कि हे जिनेन्द्र! आप तो अपनी आत्मा के रस का निर्बाध रूप से पान कर रहे हैं और हमें यह तुच्छ भोजन मिलता है। हे भगवान! ये भोजन आपके चरणों में समर्पित कर रहा हूं क्योंकि इससे मेरी तृप्ति नहीं होती है। मुझे तो आपके ही समान अमृत आत्म रस की प्राप्ति हो जिसमें हमेशाा के लिए भूख नष्ट हो जायें। इस भाव के साथ नैवेद्य चढ़ाते हैं।

प्रश्न-185 पूजन में दीपक क्यों चढ़ाते हैं?

उत्तर- दीपक की अपनी दो विशेषताएं हैं-पहली स्वपर प्रकाशक और दूसरी उसकी लौ की ऊध्र्वगति होती है। दीपक चढ़ाते समय मेरा यह भाव रहना चाहिए कि हे जिनेन्द्र! जब भौतिक दीपक में इतनी शक्ति है कि वह अंधकार को नष्ट कर देता है, तब केवल ज्ञान के दीप के प्रज्वलित होने से कितना मोहरूपी अंधकार नष्ट होता होगा, वह वर्णनातीत है। और जिस प्रकार दीप की लौ से पतंगा मोह करता है तो मृृत्यु को प्राप्त होता है, उसी प्रकार मेरी आत्मा भी पदार्थाें से मोह करके जन्म-मरण को प्राप्त हो रही है। ज्ञान दीप ही उस मोह को नष्ट कर सकता है। जब ज्ञान का दीप प्रज्वलित हो जाता है तो आत्मा दीपक की लौ की भांति ऊध्र्वगमन करने लगती है। लौ मुक्ति की ओर संकेत करती है। इसी भावना के साथ दीप चढ़ाया जाता है कि जिनेन्द्र! मेरी आत्मा भी केवल ज्ञान रूपी दीपक से स्वपर प्रकाशक हो एवं अपने शाश्वत मुक्ति धाम की ओर ऊपर चले।

प्रश्न-186 पूजन में धूप क्यों चढ़ाते हैं?

उत्तर- जिस प्रकार अग्नि में स्वर्ण की सारी अशुद्धियां जल जाती हैं, उसी प्रकार ध्यान रूपी अग्नि में भी, हे जिनेन्द्र! आपने कर्म रूपी कालिमा (अशुद्धि) को होम करके भस्म कर दिया है। वही ध्यानाग्नि मेरी अंदर भी प्रज्वलित हो जाए। जिससे मैं अपने अष्ट कर्मों की आहुति देकर आप सम बन जाऊं अर्थात धूप अष्ट कर्मों का प्रतीक है और अग्नि ध्यान का प्रतीक है। अतः पूजन में धूप चढ़ाई जाती है।

प्रश्न-187 पूजन में फल क्यों चढ़ाते हैं?

उत्तर- हे जिनेन्द्र! मैंने जो आपका पूजन किया है, उसका मैं यही फल चाहता हूं कि मुझे आपके समान मुक्ति प्राप्त हो जाए। क्योंकि संसार के सारे पदार्थ मैंने भोग लिए हैं। उनसे आज तक मुझे शाश्वत सुख की प्राप्ति नहीं हो पाई है। अतः मैं सांसारिक विभूति की प्राप्ति के उद्देश्य से आपकी पूजन नहीं कर रहा हूं। मैं तो आपको उत्तम फल (सर्वोत्तम मोक्ष फल) की प्राप्ति हेतु फल चढ़ा रहा हूं।

प्रश्न-188 पूजन में अध्र्य क्यों चढ़ाते हैं?

उत्तर- अष्ट द्रव्य से पूजन करने का परिणाम अनघ्र्य पद की प्राप्ति हो, क्षण भंगुर पदार्थों से छूटकर आत्मा में लीन हो मुक्त हो जाऊं जिससे वह अमूल्य अनघ्र्य पद मुझे प्राप्त हो सके, और अघ्र्य चढ़ाने का एक और कारण है कि समयाभाव के कारण यदि अष्ट द्रव्य न चढ़ा पाएं तो, अघ्र्य चढ़ाने में भी पूजा का फल प्राप्त हो जाता है। पर समयाभाव के समय ही अकेला अघ्र्य चढ़ाना चाहिए। हर समय नहीं। उसे परम्परा नहीं बनाना चाहिए।

प्रश्न-189 जयमाला क्या होती है?

उत्तर- पूजन के अंत में पूजा की विषय वस्तु को सार रूप में प्रस्तुत करने वाला गेय भाग अर्थात काव्य रूप में जिनेन्द्र की महिमा, गुण, अतिशय आदि का वर्णन जिसमें होता है वह जयमाला कहलाती है।

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प्रश्न-190 पुष्पांजलि किसे कहते हैं?

उत्तर- पूजन के अंत में पुष्पों को अंजलि में भरकर बरसाया जाता है, उसे पुष्पांजलि कहते हैं। भगवान के सम्मानार्थ पुष्पांजलि क्षेपण की जाती है।

प्रश्न-191 विसर्जन किसे कहते हैं?

उत्तर- यह पूजा का उपसंहार होता है। विसर्जन में भगवान का विसर्जन या विदाई नहीं होती, अपितु पूजन का विसर्जन है, जो पूजन हमने की है उसका उपसंहार या तात्कालिक समाप्ति को विसर्जन कहते हैं, जो भगवान आए थे ठोने में पुष्प बनकर उन्हें विदाई देते हैं जबकि ऐसा नहीं है। भगवान को तो भावों में आमंत्रित करते हैं, ठोना में तो उनके सम्मानार्थ पुष्प चढ़ाए जाते हैं, पुष्प भगवान नहीं है।

आए जो जो देवगण पूजे भक्ति प्रमाण।
ते सब जावहुं कृपा कर अपने-अपने थान।।

यह दोहा प्रतिष्ठा आदि ग्रन्थों से लिया गया है। अर्थात यह प्रतिष्ठा के समय पढ़ते हैं। क्योंकि प्रतिष्ठा में दिक्पालों का आह्वान करते एवं उन्हें विदाई विसर्जन के रूप में देते हैं। परंतु नित्य-पूजन में यक प्रक्रिया नहीं होती। पूजन में हुई त्रुटियों की क्षमा-याचना आदि विसर्जन में की जाती है।

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